मरती नदियां, उजड़ता बुंदेलखंड

चंबल, नर्मदा, यमुना और टोंस आदि नदियों की सीमाओं में बसने वाला क्षेत्र बुंदेलखंड तेजी से रेगिस्तान बनने की दिशा में अग्रसर है। केन और बेतवा को जोड़कर इस क्षेत्र में पानी लाने की योजना मुश्किलों में फंस गई है। जो चंदेलकालीन हजारों तालाब बुंदेलखंड के भूगर्भ जल स्रोतों को मजबूती प्रदान करते थे, वे पिछले दो दशकों के दौरान भू-माफिया की भेंट चढ़ गए हैं। अकाल की विभीषिका से जूझ रहे बुंदेलखंड में सरकारी पैकेज की खुली लूट का भयानक मंजर देखने को मिल रहा है। बुंदेलखंड की धड़कन मानी जाने वाली बेतवा नदी के साथ हो रही छेड़-छाड़ से जल संकट बढ़ गया है। रायसेन के पास शराब फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषण से नदी का जल जहरीला हो रहा है। जालौन और झांसी में बालू मा़फिया के कारण सबसे बड़ा संकट बेतवा नदी पर है। झांसी में बजरी की बढ़ती मांग और चढ़ते दामों के चलते अवैध खनन बढ़ गया है। खनिज व राजस्व विभाग और पुलिस की मिलीभगत से आसपास की नदियों से दर्जनों ट्रैक्टर बजरी अवैध रूप से शहरों में पहुंच रही है। पहूज एवं बेतवा नदी के घाटों से तो बजरी कानपुर और उरई तक पहुंच रही है। सबसे नजदीक पहूज नदी है, जो अवैध खनन करने वालों के निशाने पर है। इस नदी के घाट अवैध खनन के मुख्य क्षेत्र हैं। इसके साथ ही बेतवा नदी के विभिन्न घाटों पर भी अवैध खनन किया जा रहा है। रामनगर घाट से तो डंपरों बजरी शहर में आती है। महोबा में सूखे के चलते तालाबों में धूल उड़ रही है। मवेशी प्यास बुझाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। एक दर्जन से अधिक जानवर मर चुके हैं। लोग अपने पालतू पशुओं को कौड़ियों के दाम बेचने को मजबूर हैं। प्रशासन नदी और निजी नलकूपों से जहां-तहां तालाब भराकर काम चला रहा है।

 

 

यह हाल किसी एक गांव का नहीं है, बल्कि दर्जनों ऐसे गांव हैं, जो पानी की कमी से बेहाल हैं। मवेशियों की प्यास का अंदाजा शायद किसी को नहीं होता, तभी तो बिना कोई शिकवा-शिकायत प्यास से तड़प-तड़प कर उन्होंने अपनी जान दे दी। पनवाड़ी ब्लॉक के गांव धवार में प्यास से 10 मवेशियों की मौत हो गई।

यह हाल किसी एक गांव का नहीं है, बल्कि दर्जनों ऐसे गांव हैं, जो पानी की कमी से बेहाल हैं। मवेशियों की प्यास का अंदाजा शायद किसी को नहीं होता, तभी तो बिना कोई शिकवा-शिकायत प्यास से तड़प-तड़प कर उन्होंने अपनी जान दे दी। पनवाड़ी ब्लॉक के गांव धवार में प्यास से 10 मवेशियों की मौत हो गई। एसडीएम विंध्यवासिनी राय एवं बीडीओ दीनदयाल अनुरागी ने भी इन मवेशियों की मौत का कारण प्यास माना। खैरोकलां में भी क़रीब आधा दर्जन मवेशी प्यास से दम तोड़ चुके हैं। मवेशियों की मौत से लोग इस क़दर सहमे हुए हैं कि वे अपने जानवर औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर हैं। कई स्थानों पर नदी की जलधारा गड्‌ढों में सिमट गई है। बीच धारा में मशीन के सहारे बालू निकाल कर जलस्रोत ख़त्म कर दिए गए हैं। बालू के धंधे के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ हो रहा है। अभी तक इस मामले में हमीरपुर बदनाम था, लेकिन पिछले कई वर्षों से जालौन भी उसी ढर्रे पर चल रहा है। यहां बालू खनन के दर्जन भर से अधिक घाट हैं, जिन पर बसपा समर्थक लोगों का क़ब्ज़ा है। खनन के नाम पर नियम-कानूनों की अवहेलना देखनी हो तो वह बुंदेलखंड में देखी जा सकती है। उच्च न्यायालय की बार-बार चेतावनी के बावजूद यहां नदी की शेष धारा तक खनन कार्य खुलेआम हो रहा है। बेतवा नदी के अस्तित्व पर सबसे अधिक संकट जालौन और हमीरपुर में देखने को मिल रहा है। यहां नदी की जल धारा के बीच ही खनन कार्य कराया जा रहा है, जबकि इस पर रोक के निर्देश जिलाधिकारी ने दे रखे हैं।

पिछले दिनों नवरात्र के दौरान भेड़ी घाट में एक नाव डूबने से श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। जांच के बाद यह बात सामने आई कि जरूरत से ज़्यादा बालू निकालने के चलते नदी में का़फी गहरे गड्‌ढे हो जाते हैं, जो ऐसी दुर्घटनाओं की वजह बनते हैं। स़िर्फ बेतवा ही नहीं, केन, पहूज, सिंध, घसान, सुखनई, शहजाद, सजनाम, जामनी, सतार, बंडई, बबेड़ी, यमड़ार, खैड्डर, मंदाकिनी और बागेन पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ललितपुर के मड़ावरा वन प्रभाग क्षेत्र की बंडई नदी जीव-जंतुओं और आदिवासियों के जीवन का एकमात्र सहारा थी। यह सहारा छिन जाने से सिर्फ आदिवासियों को ही नहीं, अपितु वन्य जीवों को भी गहरा धक्का लगा। इस प्रभाग में रहने वाले जंगली जानवर सीमावर्ती क्षेत्रों में पलायन करने के लिए विवश हो गए। बंडई नदी की यात्रा भले ही लंबी नहीं थी, लेकिन उसने मड़ावरा ब्लॉक के इस क्षेत्र में, जहां लोग जाने से डरते हैं, जंगली जानवरों को हमेशा जीवन दिया। मंदाकिनी चित्रकूट का जीवन स्रोत है। आज स्थिति यह है कि मंदाकिनी नदी का पानी राजापुर की ओर नहीं जा रहा। धवैन, चंदार्गाहना और बनकट आदि गांवों से नदी का सूखना प्रारंभ हो जाता है। पास में केवटों का पुरवा बड़ी तरिया है। वहां की कंचन कहती हैं कि हमारे गांव का जीवन कैसे चलेगा। नदी सूखते ही कुएं भी सूख गए। नदी में भरा पानी सड़ने लगा है। भोले-भाले बुंदेलखंडी लोग कहते हैं कि मास्टर साहब लिखा-पढ़ी नहीं करत, का करी? नारायणपुर हार में पशुओं को चराने आए दया राम ने कहा कि हमारे पूरे इलाक़े का पानी सूख गया है। यहां पानी के आस में आए तो देख रहे हैं कि नदी सूख गई। पिछले कई वर्षों से हम आ रहे हैं, लेकिन कभी सोचा न था कि मंदाकिनी भी सूख जाएगी। नारायणपुर के श्याम सुंदर और चंद्र प्रकाश ने कहा कि हम लोगों को अहंकार था कि नदी कभी नहीं सूखेगी। अब पूरा गांव भयभीत है कि खेती कैसे होगी। सबसे बड़ी समस्या है पशुओं के पानी की। नदी में जमा पानी सड़ने लगा है, जहरीला हो रहा है। गोदा घाट के सुंदर केवट नदी का पानी पीकर बीमार हो गए थे। चंदार्गाहना से लेकर सूरज कुंड तक कुल 7 दहार हैं। केवल दहारों में पानी है। सबसे जहरीला पानी सूरज कुंड में है, जहां शव डाले जाते हैं। सूरज कुंड आश्रम के महंत रामचंद्र दास ने कहा कि यह काम सरकार और पंचायत का है कि वे इसे रोकें, यह प्रथा गलत है। बरवारा के धर्मराज ने कहा कि नदी को जो ऊपर बांधा गया है, वह बहुत बड़ा अपराध है। नदी को यदि प्राकृतिक तरीके से बहने दिया जाए तो वह अपने आप बरसात में गंदगी को बहा ले जाती है। आज नदियों के सूखने का सबसे बड़ा कारण बांध हैं। सूरज कुंड में नया चेकडैम क्यों बनाया जा रहा है? सरकार हमारी राय क्यों नहीं लेती?

वैशाली नदी काली पहाड़ी क्षेत्र के पश्चिम से निकलती है और सुपावली तक यह उत्तर दिशा में बहती है। इसमें कई बरसाती नदियां और नाले मिलते हैं। सुपावली से आगे यह मुरार नदी में संगम करती है। इन दोनों नदियों का अस्तित्व अब समाप्त हो गया है। वैशाली सिंध नदी की सहायक नदी हुआ करती थी। सिंध नदी ग्वालियर में आर-पार बहने वाली नदी है। यह विदिशा ज़िले में सिरोंज के मालवा पठार से निकल कर दक्षिण में ग्वालियर में प्रवेश करती है। मार्ग में पार्वती, नून, जोर एवं छछूंद आदि नदियां और कई बरसाती नाले इसमें मिलते हैं। उत्तर पूर्व में करीब दो सौ मील बहने के बाद यह यमुना में संगम करती है। पार्वती नदी शिवपुरी जिले से निकल कर नरवर के पास ग्वालियर में प्रवेश करती है। यहां इस नदी पर एक बांध बनाया गया है, जो हरसी बांध के नाम से प्रसिद्ध है। शिवपुरी से जिस स्थान पर यह ग्वालियर जिले में प्रवेश करती है, वहां भी इसका पानी बांधा गया है, जो ककेटो बांध के नाम से प्रसिद्ध है। पार्वती डबरा के पास पवाया गांव में सिंध नदी से संगम करती है। नून पनिहार गांव के पास से निकल कर दक्षिण में बहने के बाद पूर्व की ओर मुड़ जाती है और सिंध में मिल जाती है। छछूंद नदी आंतरी के पास पूर्व में पहाड़ी से निकल कर दक्षिण की ओर बहती है और आगे सिंध में संगम करती है। कई सामाजिक संगठन केन-बेतवा गठजोड़ के ख़िलाफ सत्याग्रह कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्राकृतिक नदियों का ऐसा अनर्गल गठजोड़ बुंदेलखंड को विनाश की ओर ले जाएगा। वे कहते हैं कि केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर विराम लगाया जाए। बीते 16 अप्रैल को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क को इस गठजोड़ से हानि पहुंचने के चलते अनापत्ति प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया है। बुंदेलखंड में चल रही बड़ी बांध परियोजनाओं जैसे केन-बेतवा लिंक, अर्जुन सहायक बांध परियोजना महोबा, बांदा एवं हमीरपुर प्रस्तावित क्षेत्र से विस्थापित किसानों को उचित मुआवज़े और पुनर्वास की उचित व्यवस्था की जाए। स्थायी रोजगार हेतु शजर उद्योग, बांदा कताई मिल, बुनकर एवं शिल्प कला, बरगढ़ ग्लास फैक्ट्री चित्रकूट और महोबा-छतरपुर पान उद्योग को पुनर्स्थापित करते हुए पलायन की मार से टूट चुके बुंदेलखंड को बचाने की जरूरत है।

नदियों को कल-कल बहने दो, लोगों को ज़िंदा रहने दो। बेतवा और चंबल क्षेत्र में मछुआरों पर संकट भारी साबित हो रहा है। यह बात झांसी में जंतु विज्ञानियों एवं विशेषज्ञों ने एक संगोष्ठी में कही है। उनका मानना है कि बुंदेलखंड में मछलियों एवं अन्य जल जीवों पर मंडरा रहे ख़तरे पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। बेतवा और चंबल की सहायक नदियों का प्रवाह सिकुड़ने से उत्पन्न समस्या पर अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो यह क्षेत्र रेगिस्तानी टीले में बदल सकता है। झांसी के उमेश शुक्ल ने बुंदेलखंड स्तर पर जल-जैव विविधता में हो रहे बदलाव को ख़तरनाक बताया। भोपाल के प्रो. डी के बेलसार ने नदियों में पानी की कमी से मछुआरों को हो रही दिक्क़तों पर चर्चा करते हुए कहा कि पर्याप्त मात्रा में मछलियां न होने से मछुआरों के अलावा जल में रहने वाले अन्य जीवों के भी सामने समस्या पैदा हो गई है। सदा नीरा नदियां लापरवाही के कारण मर गई है। इसका असर कृषि के साथ-साथ नागरिक जीवन पर भी पड़ा है। बुंदेलखंड के पहाड़ नंगे हो गए हैं और जमीन बंजर। इसके चलते बीहड़ों का विस्तार हो रहा है। खेत-खलिहानों के साथ गांव भी उजड़ रहे हैं। मूल रूप से नदी और कुंआ कभी नहीं मरते, आदमी ही इसे मरा समझ लेता है। प्रयास किए जाएं तो इन नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है। ऐतिहासिक कुओं और बावड़ियों को भी रीचार्ज करके इनका पानी लौटाया जा सकता है, लेकिन भागीरथ बनने के लिए कोई तैयार नहीं है।
 

 

 

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