मंदाकिनी

चित्रकूट भगवान राम की कर्मस्थली रही है। जहाँ भगवान राम ने साढ़े ग्यारह वर्ष का वनवास काटा चित्रकूट विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी पर अवस्थित है। इसी पर्वत श्रृंखला में स्थित महर्षि अत्रि एवं माता सती अनुसुइया आश्रम से पयस्विनी मंदाकिनी का उद्गम हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सती अनुसुइया ने अपने तपोबल से मंदाकिनी को उत्पन्न किया था। तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है कि-

नदी पुनीत पुरान बखानी, अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।

इसी स्थान पर अनुसुइया ने तीन देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश को अपनी दिव्य शक्ति से बाल स्वरूप बनाकर पलने में पौढ़ा दिया था। क्योंकि ये तीनों माँ अनुसुइया की परीक्षा लेने आये थे।

सती अनुसुइया द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और महेश को बालक बना देने और अपना दुग्धपान कराने की गीतों में कथा है-

माता अनुसुइया ने डाल दिया पालन,
झूल रहे तीन देव बन करके लालना।
मारे खुशी के मैया फुली नहीं समाती है,
गोदी में लेती कभी पालना झुलाती है।
उनके भाग्य की आज को करे सराहना,
झूल रहे तीन देव बन करके लालना।.....

स्वर्ग लोक छोड़ मृत्यु लोक पधारे हो,
ऋषियों की कुटिया में रहने को गुजारे हो।
आज मेरे घर में आये लेने को बड़ाई,
भूल गये भगवान तुम सारी चतुराई।
पतिव्रत देवियों से आज पड़ा सामना,
झूल रहे तीन देव बन करके लालना।......


यहाँ भगवान राम से मिलने जब भरत आये तो उन्होंने भी इस नदी को पुनीत माना-

यहाँ भरतु सब सहित सुहाए, मंदाकिनी पुनीत नहाए,
सरित समीप राखि सब लोगा, मागि मातु गुर सचिव नियोगा।


(रा.च.मा. 232/2)

मंदाकिनी का उल्लेख तुलसी ने बारम्बार किया है- यथा

राम कथा मन्दाकिनी, चित्रकूट चित चारू,
तुलसी सुभग सनेह वन, सिय रघुवीर विहारू।


श्रीमद्बागवत में मंदाकिनी का वर्णन मिलता है। वन गमन के समय भगवान राम ने भी मन्दाकिनी में स्नान किया था।

चित्रकूट महिमा अमित, कही महामुनि गाई
आइ नहाए सरित वर, सिय समेत दोई भाई।


महाकवि वाल्मिकि ने भी मन्दाकिनी की स्तुति में कहा है कि-

मदरांचल मूलातु प्राप्तां मंदाकिनी नदी,
सा देवगंगा विख्याता सद्यः पापहरा परा।


(वाल्मिकि रामायण)

मंदाकिनी नदी मंदरांचल पर्वत से प्रकट होकर देवगंगा के नाम से विख्यात हुयी है तथा सम्पूर्ण पापों को शीघ्र दूर करती है। महासती अनुसुइया के द्वारा अवतरित पुण्य सलिला मंदाकिनी का प्रभाव तो भागीरथी गंगा से भी अधिक है क्योंकि गंगा तो पापों को धो देती है किन्तु मन्दाकिनी तो पाप समूह का भक्षण करके उसका उस्तित्व ही हटा देती हैं।

पतित पावनी मंदाकिनी को पयस्विनी गंगा भी कहा जाता है। मंदाकिनी भारत की प्रमुख पवित्र नदियों में से एक है। इसका वर्णन आदिकवि वाल्मिकि, गोस्वामी तुलसीदास, महाकवि कालिदास और पुराणों मे भी किया गया है। कालिदास ‘रघुवंश’ में कहते हैं कि- मन्थर गति एवं मन्द ध्वनि वाली मन्दाकिनी इस पर्वत के समीप से ऐसे बह रही है, मानो वह इसके कण्ठ प्रदेश की मुक्तावली हो। इसी मंदाकिनी के घाट पर तुलसीदास ने श्री राम से साक्षात्कार कर उन्हें चन्दन से तिलक लगाया था।चित्रकूट के घाट पे, भई सन्तन की भीर,
तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक देत रघुवीर।


अगर आपने इस संसार में मनुष्य का शरीर धारण किया है। और चित्रकूट की मंदाकिनी नदी में स्नान नहीं किया तो नरदेह धरे का कोई सुफल प्राप्त नहीं किया।

दूत कहै यम के नर सों, नर देह धरी न करे सतसंगा,
नहि हरि नाम लियों मुख सों, नहि तुलसी माल धरी उर अंगा।
नहि दान करे, कबहू कर सो, नहि तीरथ पाव धरे मतिभंगा,
नर देह धरे को कहा फलु है, जो अन्हाई नहीं मन्दाकिनी गंगा।


मन्दाकिनी नदी सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने वाली है।

सुरसरी धार नाउ मंदाकिनी, जो सब पातक पोतक, डाकिनि।
अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहि, करहि जोग जप तप तन कसहीं।
लखन दीख पय उतर करारा, चहु दिशि फिरेउ धनुष जिमि नारा।नदी पनच सर सम दम दान, सकल कलुष कलि साउज नाना।


जो मनुष्य इस मंदाकिनी गंगा के द्वारा विधिवत् पितृ और देवताओं का तर्पण करता है तथा श्राद्ध और पिण्ड दान करता है। वह वस्तुतः विधि यज्ञों का ज्ञाता होता हैं। वह कायिक, वाचिक और मानसिक पापों से मुक्त हो जाता हैं। मन्दाकिनी नदी के किनारे सती अनुसुइया अत्रि आश्रम, रामघाट, राघवप्रयाग श्री मत्तगयेन्द्र शिव मंदिर, प्रमोदवन, जानकी कुण्ड और स्फटिक शिला, तुलसीदास मंदिर और अनेक पावन तीर्थ हैं। इसके अतिरिक्त कामदगिरी पर्वत, सिरसा वन, वाल्मीकि आश्रम, सरभंग आश्रम, मारकण्डेय ऋषि आश्रम (मड़फा), सुतीक्षण आश्रम, विजय राघव (निरमोही अखाड़ा), मोरध्वज गुफा, यज्ञवेदी (वेदिका) या (ब्रह्मवेदी), दास हनुमान, पर्ण कुटी, राम शैया, भरत कूप, हनुमान धारा, सीता रसोई, लक्ष्मण पहाड़ी, भरत मिलाप स्थल, गुप्त गोदावरी, देवांगना, कोटि तीर्थ, बांके सिद्ध आदि स्थल हैं। वाल्मिकि रामायण में चित्रकूट का विस्तृत वर्णन किया है-

नाना नागगणों पेतः किन्नरोरम सेवितः।
मयूर नादाभिरतों गजराजनि सेवितः।।
गम्यता भविता शैलस्चित्रकूटः स विश्रुतः,
पुण्यश्च रमणीयश्च बहु मूल फला युतः।
सरित्प्रस्त्रवण प्रस्थान्दरी कन्दर निर्झरान,
यावता चित्रकूटस्य नरः श्रृगाण्डय वेक्षते।।


सुविख्यात पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा है। यहाँ पर बहुत से नाग, किन्नर सेवक जैसे सेवा करते हैं। मोरों के कलरव से वह अत्यंत रमणीय है। चित्रकूट पर्वत परम पवित्र है। रमणीय फल-फूलों से सम्पन्न है। मंदाकिनी नदी अनेकानेक जलस्रोत, पर्वत शिखर, गुफा, कंदरा, झरने से मन को आनन्द व कल्याणकारी पुण्य फल प्रदान करते हैं।

नरदेह पाऊँ जन्म धरूँ पैस्वनी के तीरे,
कामद के नित्य ही परिक्रमा लगाऊँ मैं।
वृक्ष जो बनूँ तो प्रमोद वन बीच डोलूँ,
मीन जो बनूँ तो कुण्ड जानकी नहाऊँ मैं।
रज जो बनूँ तो फटिक शिला के पंथ,
पहान को टूक, चित्रकूट को कहाऊँ मैं।


कहा जाता है कि सभी तीर्थ यहाँ तक कि प्रयागराज भी एक समय इसमें स्नान करने के लिए आते हैं। चित्रकूट में भगवान राम ने साढ़े ग्यारह वर्ष का वनवास व्यतीत किया है।
 

रामघाट


रामघाट मंदाकिनी नदी का एक महत्वपूर्ण घाट एवं स्थान है। मंदाकिनी नदी पर स्थित इस घाट पर वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता ने स्नान किया था। इसलिए इसे रामघाट कहते हैं। यह घाट मंदाकिनी के ठीक मध्य में स्थित है।

पुनीत मंदाकिनी नदी में प्रतिदिन स्नान तपस्या से इन्द्रिय शमन और मन निग्रह से समस्त पाप क्षरित हो जाते हैं। सिद्ध महात्माओं के अवगाहन से इसका जल निर्मल होता रहता है। भगवान श्रीराम ने जगत जननी जानकी को स्नान करने की आज्ञा दी थी कि तुम भी यहाँ मेरे साथ स्नान करो।

रामघाट पर विशेष अवसरों पर दीपदान किया जाता है। दीपावली के अवसर पर दीपदान का दृश्य यहाँ देखते ही बनता है। जल राशि में दीप मालिकाओं की कतारों को लहरों पर लहराते देखकर मन मुग्ध हो जाता है। यह एक ऐतिहासिक घाट है, जिससे अनेक कथाएँ एवं स्मृतियाँ जुड़ी हैं।

रामघाट के पास बालाजी का भव्य मंदिर बना हुआ है इस मंदिर में फारसी भाषा में ताम्रपत्र मौजूद हैं जिसमें औरंगजेब के हृदय परिवर्तन का उल्लेख है।

इस आश्रम के आस-पास सात पावन शिलाएँ हैं। आश्रम के मंदिर में अनुसुइया के पुत्र दत्तात्रेय तथा उनकी स्वयं की मूर्ति स्थापित है। मंदिर के नीचे अन्य पुत्रों चन्द्रमा तथा दुर्वासा की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। यह वही स्थान है। जहाँ वनवास के समय चित्रकूट निवास में सीता जी को अनुसुइया ने पतिव्रत्य धर्म का उपदेश दिया था। यहाँ दोनों देवियों के चरण चिन्ह अंकित हैं। इस अत्रि-अनुसुइया तीर्थ में स्नान करके पतिव्रता अनुसुइया देवी का दर्शन करके सम्पूर्ण पापों से रहित होकर मनुष्य को अभीष्ट फलों को प्राप्त होता है।

चित्रकूट में महासती अनुसुइया एवं उनके पति अत्रि मुनि का अति प्राचीन आश्रम मंदाकिनी के किनारे स्फटिक शिला एवं कामतानाथ जी से 15 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहाँ सती अनुसुइया और अत्रि से संबंधित ऐतिहासिक झाँकियाँ निर्मित हैं। इसी आश्रम से मंदाकिनी गंगा प्रकट हुई हैं। वे यहाँ स्वर्ग गंगा भी कहलाती हैं।

कहते हैं कि भागीरथ के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अपनी जटाओं से तीन बूँद गिराईं थी। उन्हीं से तीन गंगाएँ प्रकट हुई। एक गंगा स्वर्ग लोक गई। दूसरी श्री सगर पुत्रों का उद्धार करने के लिए मृत्यु लोक में पधारी और तीसरी पाताल गंगा है जो हनुमान धारा में प्रकट हुई। यहीं गंगा पयस्विनी कहलाती है। अत्रि-अनुसुइया के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव, चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा के रूप में उनके पुत्र बने। इन्ही सती अनुसुइया की परीक्षा लेने आये तीनों देवों को महासती ने अपने सतीत्व के बल पर बालक बनाकर पलना में पौढ़ा दिया था।

राघव प्रयाग मंदाकिनी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यहाँ पर बालीखिल्य नाम के मुनिगणों ने महान तपस्या की थी। पर्वत के मध्य में गंगा नाम की जो नदी है उसे पयस्विनी कहते हैं। सावित्री, गंगा और मंदाकिनी इनका जहाँ पर संगम है उस स्थान को राघव प्रयाग कहते हैं। इस स्थान पर सनकादि मुनि समुदाय ने महान तप किया था। यहाँ पर सम्पूर्ण नदियाँ अपने-अपने पवित्र जल के द्वारा जानकी नाथ परात्पर परमेश्वर रघुत्तम राम को स्नान कराती हैं।

यत्र सर्वा सरिच्श्रेष्ठा जानकीशं परात्मपरम,
स्वं-स्वं तोय मुपादाय स्नापयन्ति रघुत्तमम।
वन्यादि कंद मूलानि ग्रहीत्वा द्विजसत्तम,
श्राद्धं चकार विधिवत्पित्रे दशरथाय च।


राघव प्रयाग में श्री राम जी सीता लक्ष्मण के साथ जंगली कंद मूल को लेकर विधिपूर्वक अपने पिता दशरथ जी का श्राद्ध किया।

हे द्विजोत्तम मनुष्य! राघव प्रयाग में जब स्नान करता है, तब उसके हृदय में श्री सीता राम की भक्ति हमेशा के लिए उत्पन्न हो जाती है। मत्तगयेन्द्र शिव मंदिर चित्रकूट का महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है, जो मंदाकिनी गंगा के किनारे स्थित है। ब्रह्मा जी ने चित्रकूट क्षेत्र में क्षेत्रपाल नियुक्त करने का विचार करके भगवान शंकर को नमस्कार कर उनके महान शिवलिंग की स्थापना कर ‘मत्त गयेन्द्र’ नाम देकर क्षेत्रपाल नियुक्त कर दिये।

महाल्लिंग प्रतिष्ठात्य शाम्भवं भूरि भावनः,
मत्त गयेन्द्र नामेदं क्षेत्रपालं समादद्ये।


भगवान शंकर का मत्त गयेन्द्र नामक शिवलिंग दर्शन और पूजन से शीघ्र ही बैकुण्ठ रूप फल देने वाला है।

करोति रक्षां तपस्य महर्षिणां तथैव च,
प्रातम्याय मा स्नात्वा लिंगमध्यचर्य शाम्भवम्।


जब सीता जी ने भरत को सपरिवार तथा सेना सहित चित्रकूट आने का स्वप्न देखा और श्री राम को स्वप्न के बारे में बताया तो उसकी शांति के लिए उन्होंने मत्तगयेन्द्र की ही पूजा की थी।

श्री वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि-

ततः पारिप्लवं गच्छेतीर्थ त्रैलोक्य पूजितम्,
अग्निष्टोम त्रिरदात्रिम्यः फलं प्राप्नोति मानवः।


हनुमान धारा के अनन्तर पारिप्लव (प्रमोद वन) या राम तीर्थ नाम का तीनों लोकों में प्रशंसित तीर्थ है। उस तीर्थ के दर्शनादि कर्मों का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है। तीन रात्रि न्यूनतः तीर्थ में निवास करना चाहिए। रामघाट से दो किलोमीटर की दूरी पर पयस्विनी के किनारे प्रमोद वन है। यहाँ रामनारायण भगवान का मंदिर है।

यत्र मंदाकिनी रम्या प्रवंति श्रीयती नदी,
मणि निर्मित तोया च ब्रज बैड् र्य बालुका।

जानकी कुण्ड


प्रमोद वन के कुछ दक्षिण भाग में रामघाट से दो किलोमीटर दूर जानकी कुण्ड स्थित है। कहते हैं वनवास के समय सीता जी इसी कुण्ड में नित्य स्नान किया करती थीं। इसी कारण इस कुण्ड को जानकी कुण्ड कहते हैं।

यहाँ पर श्री रामचन्द्र करोड़ों कामदेवों की कांति से युक्त नित्य विहार करते हैं। उनके चरणों की रेणु (धुल) यहाँ पर्वत के रूप में एकत्रित हो गई है। उसकी शिला स्फटिक समान स्वच्छ चिकनी है, जो संसार को पवित्र करती है। उस शिला में सुन्दर दाहिना चरण चिन्ह विद्यमान है। जानकी कुण्ड के नाम से प्रख्यात है। इस सीता कुण्ड में स्नान करके तथा भक्ति भाव से चरणों का पूजन करके मनुष्य महान् पातकों का नाश करने वाले भक्ति योग को प्राप्त करता है।

सीता कुण्डे नरः स्नात्वा चरणं पूज्य भक्तितः,
भक्ति योगम् प्राप्नोति महापातक नाशनम्।


यह स्थान रम्य आश्रम के रूप में वर्तमान में विख्यात है। यहाँ महात्मागण, अनगिनत गुफाओं में तपश्चर्या में निम्गन रहते हैं। मंदाकिनी के किनारे यह आश्रम प्राकृतिक एवं मनोरम है। नदी के दोनों किनारे हरितिमा से विभूषित एवं नयनाभिराम हैं।

यहाँ के पत्थर आग्नेय हैं। कहीं-कहीं यहाँ सफेद पत्थर भी पाये जाते हैं। जब युगल सरकार यहाँ चलते थे तो मानो यह पत्थर भी मोम के मानिन्द हो जाते थे।

स्फटिक शिला


स्फटिक शिला मंदाकिनी गंगा के किनारे स्थित है। हरी-भरी वृक्षावलियों के कारण दृश्यावली लुभावनी बन पड़ी है। ऐसा कहा जाता है कि जब राम और सीता जी चित्रकूट से अत्रि ऋषि के आश्रम को जाते थे तो रास्ते में मंदाकिनी के किनारे एक श्वेत धवल शिला पर विराजते थे। इस मनोरम पवित्र स्थल पर श्री राम के पद चिन्ह एक शिला पर अंकित हैं। इसी स्थान पर इन्द्र के पुत्र जयंत ने सीता जी के चरण में काक का रूप धारण कर चोंच मारी थी। यहाँ सीता जी के चरण चिन्ह अंकित हैं जो सफेद आग्नेय पत्थर पर बने हैं जो अनेकों वर्ष के होंगे। यह शिला स्फटिक मणि के समान हैं, इसी कारण इसका नाम स्फटिक शिला पड़ा।

गुप्त गोदावरी


तुंगारण्य नाम के पर्वत निःसृत पापों को विनष्ट करने वाली पुण्य नदी गोदावरी है जो गुप्त गोदावरी नाम से प्रसिद्ध है। इस स्थान पर महादेव जी भी विद्यमान हैं। जिनकी ऋषि-मुनि सेवा करते हैं। उसी पर्वत के अन्तर्गत ठण्डे और गर्म जल के दिव्य कुण्ड हैं। यहाँ एक शिला, चोर के रूप में अंतरीक्ष में विराजमान है जिसे मयंक या खटखटा चोर कहते हैं।

शिलैका चोर रूपा च अंततरिक्षे प्रवर्तते,
गोदावर्ण नरः स्नात्वा कृत्वा संध्या दथा विधिः।


गोदावरी पुण्य सलिला है। पापमोचनी एवं आत्मिक आनन्द प्रदाता है।

तस्मिन गोदावरी पुण्य नदी पाप प्रमोचिनी,
गुप्त गोदावरी नाम्नां ख्याता पुण्य विवर्धिनी।


-वाल्मीकि

मनुष्य गोदावरी नदी में स्नान करके और यथा विधि संध्या करके महान पुण्य को प्राप्त करता है। तथा वह अपने पूरे कुल का उद्धार करता है। सिंह राशि के सूर्य एवं सिंह राशि के बृहस्पति में गुप्त गोदावरी में स्नान करने से हजारों गुना पुण्य एवं अभीष्ट फल प्राप्त होता है। यहाँ और भी कुछ पुरानी प्राकृतिक गुफाएँ हैं। गुप्त गोदावरी का जल प्रवाह कुछ दूरी के बाद लुप्त (गुप्त) हो जाता है।

चित्रकूट में मंदाकिनी के किनारे प्रत्येक अमावस्या एवं दीपावली को मेला लगता है। जहाँ लाखों श्रद्धालु चित्रकूट के विभिन्न मठों, मंदिरों के अतिरिक्त मन्दाकिनी के अलग-अलग पवित्र घाटों में स्नान एवं कामदगिरि की परिक्रमा के साथ ही दीपदान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि चित्रकूट में आकर मन्दाकिनी में दीपदान करने वाला पापी व्यक्ति भी सुख, शांति, समृद्धि, सद्प्रवृतित्, वैभव और सद्गति को प्राप्त होता है। इसी मान्यता और मनोकामना की पूर्ति के लिए लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष चित्रकूट पहुँचते हैं।

पाठा के भित्ति चित्र


चित्रकूट के पाठा क्षेत्र में मंदाकिनी के किनारे एवं आस-पास स्थित कई स्थानों जैसे-सरभंग आश्रम, अत्रि-अनुसुइया आश्रम, सिंहपुर, विराध कुण्ड, हनुमान धारा और मुखी पहाड़ी आदि में लगभग 30 हजार पुराने शैल चित्र हैं। यह दुर्लभ पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक धरोहर आदिम सभ्यता का प्रतीक मानी जाती है। इनका निर्माण चटक लाल रंगों से हुआ है। जिनका अस्तित्व आज भी मौजूद है। रंगों में मलीनता नहीं आई। इन चित्रों में तलवार सहित घोड़े पर सवार सैनिक आते हैं, नृत्यरत समूह, धार्मिक कार्य में व्यस्त व्यक्ति आदि प्रागैतिहासिक काल के शैल चित्र यहाँ पाये गये हैं। चित्रकूट के अलावा बाँदा, मलवा, बदौसा, मानिकपुर के रूहौहा के पास लालपुर, पत्थर खदानें, वाल्मीकि आश्रम की पहाड़ी, फतेहगंज की पहाड़ियाँ, उल्कन, कालिंजर एवं मटौंध आदि स्थानों पर भित्ति चित्र मौजूद हैं। अकबर के नवरत्नों में एक महाकवि अब्दुल रहीम खानखाना ने जहाँगीर के क्रोध के कारण यहाँ शरण ली थी। उन्होंने कहा था-

चित्रकूट में रम रहे, रहिमन अवध नरेश,
जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देश।


पयस्वनी (मंदाकिनी) का प्रदूषित वातावरण हेतु-

गंगा पुण्यजलां प्राप्तं त्रयोदश मलघर्षणम्।।
गात्रं संवाहनं क्रीड़ां प्रतिग्रहमयो रतिम्।
अन्यतीर्थ रति चैव अन्यतीर्थ प्रशंसनपम्।
वस्त्रत्याग्मषचातं संतारंच विशेषत।।


-ब्रह्माण्ड पुराण

अर्थात् गंगा को स्वच्छ और पवित्र बनाये रखने के लिए उसमें शौच करना, आचमन करना, गंदा पानी फेंकना, पूजा के बासी फूल फेंकना, गंदे वस्त्र धोना, केश धोना, उपद्रव करना, दान ग्रहण करना, अश्लील क्रियायें करना, अवांछनीय प्रशंसा करना अथवा अशुद्ध मंत्रोच्चार, गंदे वस्त्र फेंकना, मार पिटाई करना तथा नदी के आर-पार तैरना मना है।

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