मंचर की जीवन-विभूति

जिसने पानी को जीवन कहा, वह कवि था या समाजशास्त्री? मुझे लगता है वह दोनों था। बिना पानी के न तो वनस्पति जी सकती है, न पशु-पक्षी ही जी सकते हैं। तब फिर दोनों का आश्रित मनुष्य तो बिना पानी के टिक ही कैसे सकता है, ईश्वर ने पृथ्वी के पृष्ठभाग पर तीन भाग पानी और एक भाग जमीन बनाकर यह बात सिद्ध की है कि पानी ही जीवन है। बेहोश आदमी आंखों को पानी की एक ठंडी बूंद लगने से भी होश में आ जाता है, तो फिर अनंत बूंदों से छलकते हुए सरोवर को देखकर जीवन कृतार्थ होने जैसा आनन्द यदि वह अनुभव करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

अनंत सागर और उसकी अनंत तरंगों को देखने पर मनुष्य को उन्माद होना स्वाभाविक है। पर जिसके सामने के किनारे की थोड़ी झांकी ही हो सकती है, और इस कारण आंखों को जिसके विशाल विस्तार का माप पाने का आनंद मिल सकता है। ऐसे शांत सरोवर का दर्शन मित्र-दर्शन के समान आह्लादक होता है। सागर अज्ञात में कूद पड़ने के लिए हमें बुलाता है, जब कि सरोवर अपनी दर्पण जैसी शीतल पारदर्शक शांति द्वारा मनुष्य को आत्म-परिचय पाने के लिए प्रोत्साहन देता है। सरोवर में हमें जीवन की प्रसन्नता का दर्शन होता है, जब कि सागर में जीवन की प्रक्षुब्ध विराटता का साक्षात्कार होता है। सागर का तांडव-नृत्य देखकर जो मनुष्य कहेगाः

दिशो न जाने लभे च शर्म।
वहीं मनुष्य विशाल सरोवर के किनारे पहुंचते ही ‘हाश करके गायेगाः

इदानीं अस्मि संवृतः, सचेताः प्रकृतिं गतः।
इस प्रकार सागर और सरोवर जीवन की दो प्रधान और भिन्न विभूतियां हैं। मैं जानता था-कभी का जानता था कि जीवन-विभूति का ऐसा एक सुभग दर्शन सिंध के सदा के लिए फैला हुआ है। किन्तु उसे देखने के सौभाग्य का उदय अभी तक नहीं हो पाया था। जब मेरे लोक सेवक संस्कार-संपन्न रसिक मित्र श्री नारायण मलकानी ने मुझे इस बार सिंध में घूमने का आमंत्रण दिया, तब मैंने उनसे यह शर्त की कि अबकी बार यदि जीवन और मरण दोनों का साक्षात्कार कराने के लिए आप तैयार हों तो ही मैं आऊंगा। इस तरह की गूढ़ वाणी की उलझन में मित्र को लम्बे समय तक डालना मैंने पसन्द नहीं किया। मैंने उनको लिखा, जहां एक-एक करके तीन युग दबे पड़े हैं, और जहां मृत्यु ने अपना सबसे बड़ा म्यूजियम खोला है, वह ‘मोहन-जो-दड़ो’ मुझे फिर से देखना है। उसी तरह जहां कमल कंद की जड़ में से पैदा होने वाले असंख्य कमल, इन कमलों के बीच नाचनेवाली छोटी-बड़ी मछलियां, इन मछलियों पर गुजर करने वाले रंग बिरंगे पक्षी और कमलकंद से लेकर पक्षियों तक सबको बिना किसी पक्षपात के अपने उदर में स्थान देने वाले सर्व भक्षी मनुष्यों की निश्चिंतता के साथ जहां वृद्धि होती है, उस जीवन-राशि मंचर सरोवर का भी मुझे दर्शन करना है। नारायण की स्थिति तो ‘जो दिल-पसन्द था वहीं वैद्य ने खाने को कहा’ जैसी हुई होगी। उन्होंने सिंध के सूफी दर्शन का पालन करके प्रथम लारकाना के रास्ते से मौत के टीले का दर्शन कराया और उसके पश्चात ही जीवन की इस राशि की ओर वे हमें ले गये!

सिन्धु के पश्चिम तट पर जहां पंजाब का गेहूं कराची तक पहुंचा देने वाली रेलवे दौड़ती है, दादू और कोटरी के बीच बूबक स्टेशन आता है। बगैर पूछे आदमी को कैसे पता चले कि अबूबकर नाम के दोनों छोर के अक्षर कम करके बूबक नाम का सर्जन हुआ है? स्टेशन से पश्चिम की ओर चार मील का धूल-भरा रास्ता पार करके हम बूबक पहुंचे। वहां के लोग बाजे, शहनाई और थोड़ी-बहुत दक्षिणा लेकर हमें लेने आये। उनके साथ सारा गांव घूमकर, गली-कूंचों को देखकर, हम अपने मेज़बान श्री गोधूमलजी के घर पहुंचे। उनके आतिथ्य को स्वीकार करके खाया-पिया, दस-पंद्रह मिनट तक स्वपनसृष्टि पर राज्य किया और वहां के गालीचों तथा रंगाई-काम की कद्र करके हम मंचर के दर्शन करने निकले।

दो मील का धूल-भरा रास्ता हमें फिर तय करना पड़ा। उसके बाद ही खेतों के बीच अंट-संट बाते करने वाली और गड़रियों की कुटियों की मुलाकात लेनेवाली एक नहर आई। जहां से वह शुरू होती थी, वहीं नई-पुरानी किश्तियों का एक झुंड कीचड़ में पड़ा था। उनमें से एक बड़ी किश्ती हमने पसंद की और उसमें सवार हुए। (‘सवार’ या ‘असवार’ यानी अश्वारोही; हम तो नौकारोही हुए थे।) इस प्रकार हमने और दो मील की प्रगति की । दोनों ओर पानी के साथ क्रीड़ा करने वाली रहट घुमाने का पुण्य प्राप्त करने वाले ऊंट हमने देखे। खुले वायुमंडल में ही अपना जीवन, अपना विनोद और अपना उद्योग चलाने वाले किसान भी हमने वहां देखे। और जमीन तथा पानी के बीच आवा-जाई करने वाले बनजारे पक्षी भी देखे।

हमारे काफिले के बीसों जन आनंद के उपासक बने थे। कुछ ने ‘चल-चल रे नौजवान-रुकना तेरा काम नहीं, चलना तेरी शान’ वाला कूचगीत छेड़ा। इसमें हंसने कती बात तो इतनी ही थी कि नौकारोही हम लोग पैदल कूच नहीं कर रहे थे, मगर लंबे-लंबे बांसों से कीचड़ को कोचतें-कोंचते आगे बढ़ रहे थे। हमारे पैर कोई हलचल किए बिना अजगरों की उपासना कर रहे थे। पर जब सभी खुशमिजाज होते हैं, तब बातों तथा गीतों में औचित्य के व्याकरण की कोई परवाह नहीं करता।

जब चि. रैहानाबहन को ‘बेनवा फकीर’ की मुरली के सुर छेड़ने का निमंत्रण दिया गया तभी सच्चा रंग जमा; ठीक इसी समय हमारी नहर ने अपना मुंह चौड़ा करके हमारी किश्ती को सरोवर में ढकेल दिया। फिर तो पूछना ही क्या? जहां देखो वहां जीवन ही जीवन फैला हुआ था! पंद्रह से बीस मील लंबा और दस मील चौड़ा जीवन का काव्यमय विस्तार!! पानी की विस्तृत जलराशि की क्रांति और बीच-बीच में हरे घास के टापुओं की शांति! प्रकृति को इतना काव्य कैसे सूझा होगा? मैंने गोधूमलजी से कहा, ‘यहां तो मेरा हृदय द्रवित होता जा रहा है।’ उन्होंने उतनी ही रसिकता के साथ जवाब दियाः ‘यदि आप नवंबर में यहां आते तो यहां के लाखों कमलों में दब जाते। आपको यदि यह उल्लास देखना हो तो अपने विष्णुशर्मा को किसी भी साल लिखकर सूचना कर दीजिये। वे मुझे लिखेंगे और मैं आपके लिए सब तैयारी कर रखूंगा। हमारा प्रदेश इतना अलग पड़ गया है कि आपके जैसे लोग शायद ही यहां आते हैं। जहां तक मुझे याद आता है, इसके पहले यहां एक ही महाराष्ट्रीय प्रोफेसर आये थे और वे भी आपकी ही तरह आनन्द विभोर हो गये थे। हां, हर साल कुछ गोरे फौजी अफसर यहां मछलियां मारने या शिकार खेलने जरूर आते हैं। मगर उससे हमें क्या लाभ हो सकता है?’

दूरी पर एक किश्ती दिखाई दी। देहात का कोई कुटुंम्ब स्थलांतर करता होगा। उनकी नारंगी रंग की ओढ़नी तथा नीले रंग के पायजामे का प्रतिबिंब पानी में कितना सुशोभित हो रहा था-मानों ग्रामीण काव्य ही आनन्द में आकर जल विहार कर रहा हो! दूर-दूर काले जल-कुक्कुट पानी की सतह पर तैरते हुए उदर पूजन कर रहे थे। हम में से कुछ लोगों को किश्ती के किनारे बैठकर पानी में पांव धोने की सूझी। उन्होंने रिपोर्ट दी कि कहीं पानी बिलकुल ठंडा है और कहीं कुनकुना। इसका कारण क्या है, यह तो लोग मुझसे ही पूछेंगे न? ऐसी लहरी टोली में मैं हमेशा सर्वज्ञ होता हूं। मैंने फौरन कारण ढूंढ़ निकाल और सबको शास्त्रीय उपपत्ति का संतोष प्रदान किया।

‘वे सामने जो टेकरियां दिखाई देती है, उनका क्या नाम है?’ मैंने आसपास के लोगों से पूछा। उन्हें मेरे प्रश्न से आश्चर्य हुआ। मानों उन्हें मालूम ही नहीं था कि स्वदेशी टेकरियों के नाम भी होते हैं। और इधर प्रत्येक रूप के साथ यदि नाम न जुड़ा हो तो मेरी दार्शनिक आत्मा संतुष्ट नहीं होती। हमारी टोली में बूबक का एक छोटा, नाजूक और शर्मीले स्वभाव का लड़का एक कोने में बैठा था। मैंने उसे ‘ईस्सरदास’ कहकर पुकारा। पाठशाला में पढ़ा हुआ भूगोल उसके काम आया उसने तुरन्त कहा, ‘सामने की टेकिरियों को खिरथर कहते हैं।’ मैं हंस पड़ा और मेरे मुंह से उद्गार निकल पड़ाः ‘धन्य है करतार!’ छुटपन में हाला और सुलेमान पर्वत के नाम हमने रटे थे। आगे जाकर हाला पर्वत ने करतार का नाम धारण किया था। उसका कारण इतना ही था कि अंग्रेजों ने खिरथर की स्पेलंगि की थी Kirthar । विदेशी लिपिक के कारण हमारे यहां कई अनर्थ हुए हैं। यह उनमें से ही एक था। खिरथर की टेकरियां इस किनारे से दस बारह मील दूर हैं। वहां सिंध पूरा होकर बलूचिस्तान शुरू होता है।

अब सूरज थककर खिरथर आश्रय लेने की सोच रहा था। हमने भी सोचा कि अब लौटकर घर जाना चाहिये और सात बजने से पहले जठराग्नि को आहुति देना चाहिए! नाव ने दिशा बदली और हम पूर्व की ओर की शोभा देखने लगे ‘वSSह सामने दूर जो नाव दिखाई दे रही है वह इस समय पश्चिम की ओर कहां जाती होगी?’ मैंने भाई गोधूमलजी से पूछा। उन्होंने बताया, ‘उस किनारे खिरथर की बगल में एक गांव है। वहां महाशिवरात्रि का एक मेला लगता है। उस दिन हिन्दू लोग महाशिवरात्रि के कारण वहां इकट्ठा होते हैं। मुसलमान भी उस दिन हिन्दू लोग महाशिवरात्रि के कारण वहां इकट्ठा होते हैं। मुसलमान भी उस दिन वहीं अपने किसी पीर के नाम पर इकट्ठा होते हैं। बहुत बड़ा मेला लगता है। ये लोग शायद मेले के लिए ही जा रहे होंगे।’ हम गये उस दिन फरवरी की 21 तारीख थी। महाशिवरात्रि बिलकुल पास यानी 24 तारीख को थी हमारे कार्यक्रम में फेरबदल किया ही नहीं जा सकता था। ‘आज यदि 24 तारीख होती तो मैं जल्दी निकलकर उस गांव में जरूर जाता। मैं महाशिवरात्रि का व्रत रखता हूं। हिन्दू और मुसलमानो को एक हृदय होकर एक ही ईश्वर की भक्ति करने के लिए हजारों की तादाद में एक ही जगह इकट्ठा हुए देखकर अपने हृदय को पवित्र करने का मौका मैं न छोड़ता। शिवरात्रि के दिन जिस वृत्ति से हिन्दु और मुसलमान प्रेम से इकट्ठा होते हैं, वहीं वृत्ति यदि हिन्दुस्तान में सर्वत्र फैल जाय तो हमारा बेड़ा पार! वह दिन हिन्दुस्तान के लिए सुदिन तथा शिवदिन हो जाय।’

इतना कहकर मैं खामोश हो गया। अब किसी के साथ बातें करने में मेरी दिलचस्पी न रही। मैं दूर-दूर तक देखने लगा। पृथ्वी पर या आकाश में नही, बल्कि काल के उदर में देखने लगा। कोलंबस जिस प्रकार श्रद्धापूर्वक अमरीका का रास्ता खोजता था, उसी प्रकार शिवरात्रि का कब शिवदिन होगा इसकी मैं श्रद्धा की दृष्टि से खोज करने लगा।

‘वह सामने जो हरे-हरे खेत दीख पड़ते हैं उनके पीछे तमाकू या भांग की खेती होती है।’ बूबक के एक साथी ने मेरा ध्यान भंग किया। हमने सरोवर में से नहर में प्रवेश किया था। नहर के किनारे, बांस की कमानी पर, पैरों को बांधकर खड़े हुए बगुले मछलियों का ध्यान कर रहे थे। झोंपड़ियों से चूल्हें का धुआं निकलने लगा था। आंखें बूबक के ऊंचे-ऊचे चौरस मकानों के स्थापत्य को निहारने लगीं। इन मकानों के कुछ ‘मंघ’ बगुलों की तरह सिर ऊंचा करके वायु सेवन के पैंतरे में खड़े थे। हमने तमाकू और भांग के खेत भी पार किये। भांग के विषय में सरकारी नीति का इतिहास सुना। और घर लौटकर समय पर भोजन करने बैठे।

किन्तु मेरा मन तो मंचर के ‘ढंढ’ (बांध) पर महाशिवरात्रि का आनन्द ले रहा था।

मार्च; 1941

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