मनरेगा की पांच साल की यात्रा

गरीबी, बेरोजगारी और पलायन से त्रस्त ग्रामीण भारत में राहत का संदेश लेकर आए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) ने पांच साल पूरे तो कर लिए हैं, पर सरकार मनरेगा में पारदर्शिता एवं इसकी खामियों को अब तक दूर नहीं कर सकी है और इस पर चिंतित दिखती है।

हालांकि सरकार इस कानून के पांच साल पूरे होने पर यह कहकर अपनी पीठ भी ठोक रही है कि वह सालाना चार करोड़ से ज्यादा परिवारों को रोजगार दे रही है। पर 40 करोड़ की मोटी रकम वाले इस रोजगार कानून के लिए सरकार ने अब तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं कराया है जिससे पता चल सके कि इस योजना से गांव में लोगों की माली हालत कितनी बदली है।

यह सत्य है कि इस काम के लिए सरकार द्वारा भारतीय प्रबंध संस्था (आईआईएम), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्था (आईआईटी) और कृषि विश्वविद्यालयों का प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट नेटवर्क (पिन) बनाया गया था। किन्तु इसने अभी तक ऐसा कुछ खास करके नहीं दिया है जिसका सरकार बखान कर सके। इस मामले में अहम सवाल यह है कि जिस मनरेगा का योगदान यूपीए सरकार को दोबारा सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने में अहम रहा है, उसी महत्वपूर्ण कानून की उपेक्षा करने का जोखिम क्या सरकार उठा सकती है। इस कानून के तहत पांच करोड़ लोगों को 2009-10 में काम मुहैया कराने का प्रावधान सरकार द्वारा किया गया इसके बावजूद अपवादस्वरूप तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश को छोड़कर यह सुचारू रूप से पूरे देश भर में लागू नहीं हो पा रहा है।

भले ही यूपीए सरकार अब तक देश के सामने इस योजना की उपलब्धियां गिनाती रही है पर कहीं वह इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित भी दिखती है। कांग्रेस अध्यक्ष ने मनरेगा में जारी घपलेबाजी पर चिंता जताई है। मनरेगा के पांच साल पूरे होने के मौके पर रखे गए कार्यक्रम में उन्होंने फर्जी जॉब कार्ड जैसी समस्या पर चिंता जतायी। इतना ही कांग्रेस अध्यक्ष ने मनरेगा में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए कार्यस्थल पर उन्हें बुनियादी सुविधाएं न दिया जाना एक बड़ा कारण बताया। उन्होंने कहा कि सोशल ऑडिट समेत इन सभी विषयों पर राज्य सरकारों को गौर ही नहीं करना चाहिए बल्कि समस्या को अविलंब दूर भी करना चाहिए। इस विषय पर प्रधानंमत्री ने भी चिंता जताते हुए कहा कि मनरेगा के 'डिलीवरी सिस्टम' को दुरुस्त करने की जरूरत है। क्योंकि इस योजना को लेकर कुछ आकांक्षाए अब भी बरकरार है, जिन पर विशेष रूप से गौर किया जाना बहुत जरूरी है।

निश्चित ही मनरेगा के पांच साल की यह यात्रा इसके लिए बहुत उतार-चढ़ाव वाली रही है। अक्सर इसके क्रियान्वयन को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं। इतना ही नहीं, अब तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के मुताबिक मनरेगा को लेकर जो अध्ययन और सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें कई खामियां देखने को मिली हैं। मसलन कहीं जॉब कार्ड बन जाने पर भी काम न मिलने की शिकायत है तो कहीं पूरे सौ दिन काम न मिलने की और कहीं हाजिरी रजिस्टर में हेराफेरी की। इसके अतिरिक्त कागजों में फर्जी मस्टररोल और फर्जी मशीनों का उपयोग दिखाकर फर्जी बिल बनाये जाने के मामले भी सामने आये हैं। यानी यह योजना कई कमजोरियों का शिकार है।

नए अध्ययनों का सार भी यही है कि इसमें जारी भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इस योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार की खबरें पहले भी आई है लेकिन बीते साल मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को सौ रुपये की जगह एक रुपया मजदूरी दिये जाने का मामला तक सामने आया। यह घटना राजस्थान के टोंक जिले के गुरलिया की है। जहां कुछ मजदूरी को सौ रुपये की जगह एक रुपये मजदूरी दी गई। यह कैसी विडंबना है कि मजदूरों को न समय पर पूरी मजदूरी मिल रही है और न सौ दिन का रोजगार।

इस योजना में कहने के लिए सोशल ऑडिट की व्यवस्था है मगर पारदर्शिता कहीं नहीं दिखती। सोशल ऑडिट के नाम पर खानापूर्ति हो रही है। क्योंकि सरकार के पास 1.08 लाख करोड़ रुपये की विशाल राशि का कोई लेखा-जोखा नहीं है। यह तथ्य हाल ही में सीएजी द्वारा 68 जिलों में मनरेगा की राशि के लेखा परीक्षण के दौरान सामने आया है। सीएजी का मानना है कि सरकार ने अब तक मनरेगा पर केवल 11 करोड़ रुपये ही खर्च किये है। क्योंकि बचे हुए बाकी पैसों का सरकार के पास कोई हिसाब-किताब नहीं है। अत: बीते पांच सालों से मनरेगा की जो आलोचना हो रही है, या उसके क्रियान्वयन को लेकर समय-समय पर जो सवाल खड़े हुए, वह काफी हद तक जायज हैं।

यह योजना गरीब ग्रामीणों को राहत देने के लिए चलाया गया कार्यक्रम है और अब तक हुई गड़बड़ियों को सुधारते हुए और उनसे सबक लेते हुए अभी भी ईमानदारी से काम किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी को कम करने और वहां के विकास का बहुत बड़ा साधन बन सकता है। यह ठीक है कि मनरेगा के लागू करने में कई गड़बडि़या हैं इसके बावजूद यह एक सफल कार्यक्रम माना जाता है।मनरेगा वास्तव में गरीबों के हक में पहला प्रतिबद्धता वाला कार्यक्रम है, जिसमें वे अपनी गरिमा पर आंच आए बिना जीविकोपार्जन की उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन बीती अवधि में इसे अनेक प्रक्रियाजन्य खामियों से जूझना पड़ा है। हालांकि नरेगा के मार्ग निर्देश काफी सटीक है। अधिनियम की धारा 15 के तहत जिलाधीश की जिम्मेदारी है कि वह सोशल ऑडिट कराए और वेबसाइट पर सूचना दे कि किन-किन लोगों को जॉब कार्ड दिए गए है, उन्हें कितना-कितना भुगतान हुआ है और यह भुगतान वाकई उन तक पहुंचा भी है या नहीं। इसके बावजूद राजनीतिक पक्षपात और भ्रष्टाचार के चलते कई राज्यों में गरीब परिवारों की उम्मीदी नाउम्मीदी में बदल गई है। अत: जरूरत है इस सुविधा को सही तरीके से लागू कर गरीबों को उनका हक दिलाने की। मनरेगा अगर ठीक से लागू हो जाए तो देश का कायाकल्प निश्चित है। पर अफसोस इस बात का है कि इस योजना के प्रति अभी भी जागरूकता का घोर अभाव है। कई सांसद तक इस बारे में पूरी जानकारी नहीं रखते जबकि वे जिला स्तरीय निगरानी के मुखिया होते हैं।

यह गंभीर एवं चिंता का विषय है कि देश में गरीबों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और बड़ी मुश्किलों के बाद वे सौ दिन के रोजगार के हकदार बने किन्तु यह विंडबना ही है कि तब भी वे गरीबी रेखा से ऊपर नहीं आ सके हैं। यह बातें नरेगा की अवधारणा के पीछे रही हैं। जरूरी है कि इस महत्वाकांक्षी योजना के उचित क्रियान्यवन पर फिर से विचार किया जाये। मजदूरी दर में सुधार के साथ काम के सौ दिनों की संख्या बढ़ाने की भी आवश्यकता है। ताकि इस देश से वास्तव में गरीबी और बेरोजगारी खत्म की जा सके। अन्यथा इस पर सवाल खड़े होते ही रहेंगे।
 

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