केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मनरेगा के तहत किये जा रहे भ्रष्टाचार का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार पर सवाल उठाया है। जयराम रमेश ने कथित भ्रष्टाचार के लिए सोनभद्र जिले के जिस ग्राम सचिव राजेश चौबे का जिक्र किया है उस ग्राम सचिव ने मनरेगा में भ्रष्टाचार को अंजाम देने के िलए अधिकारियों के अलावा पत्रकारों का जमकर इस्तेमाल किया और करोड़ों रूपये की धोखाधड़ी कर दी। सोनभद्र से आवेश तिवारी की रिपोर्ट बता रही है कि मनरेगा के नर्क में किस तरह से पत्रकार और मीडिया घराने शामिल हैं।
भूखे नंगे उत्तर प्रदेश में मनरेगा में हुए भ्रष्टाचार में नौकरशाहों और बाबुओं के साथ -साथ मीडिया भी शामिल रही है। पत्रकारों ने जहाँ अधिकारियों पर दबाव बनाकर अपने भाई -भतीजों को मनरेगा के ठेके दिलवाए, वही अखबारों ने मुंह बंद रखने की कीमत करोड़ों रुपयों के विज्ञापन छापकर वसूल किये। मीडिया के इस काले - कारनामे में न सिर्फ बड़े अखबारऔर उनके प्रतिनिधि बल्कि संपादक तक शामिल रहे हैं। मीडिया द्वारा मनारेगा के पैसे में खाई गई दलाली का तकाजा ये रहा कि एक तरफ प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली जनपदों में मजदूरी भुगतान और कार्यों में घोर अनियमितता के बावजूद किसी भी अखबार द्वारा एक सिंगल कालम खबर नहीं छापी गयी और अब जबकि जयराम रमेश के मायावती को लिखे गए पत्र से मनरेगा के सच से पर्दा उठने लगा है, मीडिया भी अपनी भूमिका महाबलियों सी प्रस्तुत कर रहा है।
हमारे पास विशेष जानकारी है कि खुद को नंबर वन बताने वाले दैनिक जागरण ने पूर्वांचल में जिन जिलों में भी योजना चल रही थी उन जिलों में मनरेगा के धन -आवंटन के सापेक्ष अपनी हिस्सेदारी तय कर ली थी। जागरण समेत सभी अखबारों ने अधिकारियों की तस्वीरों के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनरेगा की तथाकथित उपलब्धियों का लगातार गुणगान किया जबकि इस योजना में भारी अनियमितता की वजह से त्राहि -त्राहि मची हुई थी। भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा सबूत ये है कि जिन अखबारों ने भी भ्रष्टाचार में आरोपित जिलों के विकास खण्डों के विज्ञापनों को प्रकाशित किया, उन सभी को भुगतान नगद किया गया जिसकी जांच कभी भी की जा सकती है। सिर्फ इतना ही नहीं पत्रकारों और अखबारों ने ग्राम पंचायत के सचिवों और ग्राम प्रधानों से भी जम कर वसूली की। ऐसा नहीं था कि मनरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार और इसमें मीडिया की संलिप्तता की जानकारी मुख्यमंत्री मायावती और उनके सहयोगियों को नहीं थी, लेकिन जानकारी के बावजूद सच पर पर्दा डालने की कोशिश की गयी। स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक ने जब प्रदेश के गृह सचिव फ़तेह बहादुर के रिश्तेदार और सोनभद्र के पूर्व मुख्य विकास अधिकारी जो कि मीडिया मे अपने संबंधों को लेकर बेहद चर्चित रहे हैं, के भ्रष्ट आचरण के समबन्ध में खबर छापी तो अखबार के प्रबंध निदेशक का सामान ही घर से बाहर उठाकर फेंक दिया गया। गौरतलब है कि उस पूर्व मुख्य विकास अधिकारी ने इसी वर्ष अपनी बेटी की शादी बिल्कुल शाही अंदाज में की। उस विवाह में प्रदेश के तमाम नौकशाहों के साथ साथ प्रदेश के सभी छोटे -बड़े पत्रकार मौजूद थे।
मनरेगा मीडिया के लिए भी मुरब्बा साबित हुआ है। अगर आप कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जनपदों में जायेंगे तो आपको वहाँ या तो माफिया नजर आयेंगे या फिर मीडिया। जयराम रमेश ने जिन अधिकारियों और कर्मचारियों का नाम अपने पत्र में लिए है दरअसल वो सारे अधिकारी और कर्मचारी मीडिया के भी अत्यंत प्रिय थे। सरकार द्वारा मनरेगा के पैसों में हिस्सेदारी तय करने के लिए जिन अधिकारियों को इन गरीब जिलों में भेजा गया, उन अधिकारियों ने सबसे पहले मीडिया में बैठे अपनी कारिंदों को इस पूरे खेल में शामिल कर लिया और न सिर्फ मनरेगा में अनियमितता से सम्बन्धित ख़बरों को ठेकों और विज्ञापनों की आड़ में सेंसर करा दिया गया, बल्कि पत्रकारों की मदद से मनरेगा के कार्यों की निगरानी में लगायी गयी एजेंसियों को भी बरगलाने की कोशिश की गयी। सोनभद्र में तो एक ऊँची रसूख वाले स्वतंत्र पत्रकार के साले और एक मासिक पत्रिका के प्रबंधन में शामिल एक व्यक्ति को लगभग २५० कार्यों के ठेके दे दिए गए, राजेश चौबे नाम का एक ग्राम सचिव जिसने पानी पत्नी के नाम एक करोड़ रूपए खाते में जमा कराये थे जिसका जिक्र जयराम रमेश ने अपने पत्र में किया है, दरअसल पत्रकारों का चेहता था। पत्रकारों ने मिल बाँट कर खाने की नियत से अधिकारियों को कह कर उसे ज्यादा से ज्यादा काम दिलवा दिया और अपने-अपने लोगों को उसके साथ ठेकेदारी में लगा दिया जिसका नतीजा ये हुआ कि इन सभी कार्यों में न सिर्फ निर्माण सामग्री की आपूर्ति का काम पत्रकारों के चहेतों को दिया गया बल्कि मनरेगा के कार्यों में श्रम का हिस्सा भी इन्ही पत्रकारों को सौंप दिया। शर्मनाक ये रहा कि पत्रकारों और उनके चहेतों द्वारा जो भी निर्माण कार्य कराये गए वो सभी पहली बरसात में ही ढह गए। ये बात अजीब जरुर है मगर सच है कि पूर्वांचल के जिन जिलों के नाम मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले आये हैं। उन सभी जिलों में लगभग सभी विकास खण्डों में पत्रकार ,प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर मनरेगा की ठेकेदारी में शामिल रहे हैं। नाम न छापने की शर्त पर सोनभद्र के एक खंड विकास अधिकारी स्वीकार करते हैं कि उन्हें जनपद के एक पूर्व मुख्य विकास अधिकारी के ड़ी राम द्वारा एक मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार और उनके एक मित्र को ठेका देने का आग्रह किया गया था, लेकिन जब हमने इससे इनकार कर दिया तो हमारे खिलाफ ही मुहिम चलाई जाने लगी। अन्य जिन अखबारों और चैनलों के प्रतिनिधियों के नाम मनरेगा के ठेके के बंटवारे में आये हैं, उनमे कई क्षेत्रीय चैनलों और अख़बारों के भी संवाददाताओं के का नाम शामिल है। कमोवेश यही हाल मिर्जापुर और चंदौली का भी है।
जहाँ तक विज्ञापनों का सवाल है, मनरेगा का धन अखबारों के लिए बड़ी कमाई का जरिया बन गया, दैनिक जागरण जैसे अखबार ने जिसके एक एक पेज के विज्ञापन का मूल्य लाखों में है हर एक अवसर -बेअवसर पर विज्ञापनों का प्रकाशन किया, जिनका भुगतान मनरेगा में हुई काली कमाई से किया गया। अन्य अखबारों ने भी समान रूप से बहती गंगा में अपना हाँथ धोया। सोनभद्र में तो मनरेगा के प्रचार -प्रसार के लिए एक स्थानीय पत्रकार को जो कि एक पत्रिका का संपादक भी है बेवजह होर्डिंग बनाने का काम सौंप दिया गया और उसने पलक झपकते ही कुछ एक हजार के काम में लाखों वसूल लिए ,वो भी तब जबकि मनरेगा के धन का ऐसा किसी भी प्रकार का दुरुपयोग करने की सख्त मनाही है। ये मनरेगा का ही कमाल था कि दैनिक जागरण ने बेहद गरीब कहे जाने वाले सोनभद्र जनपद में अपने विज्ञापन की लक्ष्य राशि सालाना एक करोड़ रूपए कर दी। जो कि ५ वर्ष पूर्व महज २५ से ३० लाख थी, वही अन्य अखबारों ने भी मजदूरों के पैसों पर अधिकारियों की मिलीभगत से जम कर डाका डाला। इस लूट -खसोट का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन बड़े अखबारों के परिशिष्टों में ७० फीसदी से ज्यादा विज्ञापन का स्पेस ग्राम प्रधानों, उपखंड विकास अधिकारियों और विकास अधिकारियों के विज्ञापनों से भरा रहा। ये सीधे तौर पर भ्रष्टाचार से आये धन के बंटवारे जैसा था। एक तरफ जहाँ मनरेगा के मजदूर अपनी मजदूरी के लिए, तो कहीं कहीं काम न मिलने की वजह से हताश थे उस वक्त जागरण ने खबर छापी नरेगा साबित हुई वरदान।
सोनभद्र में मनरेगा के धन के दुरूपयोग का एक एक बड़ा मामला'सोन महोत्सव 'से जुड़ा है। यमुना एक्सप्रेसवे इंडस्ट्रियल अथारिटी के वर्तमान सीइओ और बसपा सांसद डी पी यादव के दामाद जो कि माया सरकार के गठन होने के बाद रिकार्ड तोड़ चार सालों तक सोनभद्र के जिलाधिकारी रहे, के कार्यकाल में करोड़ों रूपए खर्च करके सोन महोत्सव का आयोजन किया गया। बताया जाता है कि सोन महोत्सव का सारा पैसा मनरेगा से ही आया था और इस कार्यक्रम के आयोजन के पीछे भी पूरी तरह उन पत्रकारों का दिमाग काम कर रहा था जो मनरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार में शामिल थे। जानकारी है कि पत्रकारों के कहने पर इस आयोजन के लिए जनपद के सभी खंड विकास अधिकारियों को धन इकठ्ठा करने के विशेष आदेश दिए थे। सरकारी धन का एक बड़ा हिस्सा पत्रकारों ने नामी -गिरामी नृत्यांगनाओं और गायक-गायिकाओं में खर्च कर दिया। याद रखें ये वही समय था जब सोन के तटवर्ती इलाकों में अकाल मौतें दिल्ली और देश के अन्य राज्यों के अखबारों और वेब पोर्टलों की सुर्खियाँ बनी हुई थी। यहाँ ये बताना भी जरुरी है कि इन तीनों अति नक्सल प्रभावित जनपदों में अधिकारियों में मनरेगा के सभी कार्यों में २८ फीसदी कमीशन निर्धारित किया गया है, जिसका बंटवारा जिलाधिकारी कार्यालय से लेकर परियोजना निदेशक , मुख्य विकास अधिकारी और खंड विकास अधिकारी के स्तर तक होता है, लेकिन पत्रकारों या अखबारों को जो राशि दी जा रही है वो इस २८ फीसदी से पूरी तरह अलग है। ऐसे में इन जनपदों में मनरेगा के लिए आवंटित किये जाने वाले कुल धन का बमुश्किल ५० फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है और इन गरीब जनपदों के मजदूर आदिवासी मनरेगा के इस महाभ्रष्टाचार से हारकर या तो पत्थर तोड़ने वाले पत्थरतोड़वा मजदूर बन जाते हैं या फिर काम की तलाश में अन्य राज्यों की और पलायन कर जाते हैं। कफ़नखसोटी का ये खेल अभी भी जारी है। उत्तर प्रदेश में मनरेगा में हुए भ्रष्टाचार की किसी भी कीजांच तब तक बेईमानी है जब तक उसमे मीडिया को शामिल न कर दिया जाए।
भूखे नंगे उत्तर प्रदेश में मनरेगा में हुए भ्रष्टाचार में नौकरशाहों और बाबुओं के साथ -साथ मीडिया भी शामिल रही है। पत्रकारों ने जहाँ अधिकारियों पर दबाव बनाकर अपने भाई -भतीजों को मनरेगा के ठेके दिलवाए, वही अखबारों ने मुंह बंद रखने की कीमत करोड़ों रुपयों के विज्ञापन छापकर वसूल किये। मीडिया के इस काले - कारनामे में न सिर्फ बड़े अखबारऔर उनके प्रतिनिधि बल्कि संपादक तक शामिल रहे हैं। मीडिया द्वारा मनारेगा के पैसे में खाई गई दलाली का तकाजा ये रहा कि एक तरफ प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली जनपदों में मजदूरी भुगतान और कार्यों में घोर अनियमितता के बावजूद किसी भी अखबार द्वारा एक सिंगल कालम खबर नहीं छापी गयी और अब जबकि जयराम रमेश के मायावती को लिखे गए पत्र से मनरेगा के सच से पर्दा उठने लगा है, मीडिया भी अपनी भूमिका महाबलियों सी प्रस्तुत कर रहा है।
हमारे पास विशेष जानकारी है कि खुद को नंबर वन बताने वाले दैनिक जागरण ने पूर्वांचल में जिन जिलों में भी योजना चल रही थी उन जिलों में मनरेगा के धन -आवंटन के सापेक्ष अपनी हिस्सेदारी तय कर ली थी। जागरण समेत सभी अखबारों ने अधिकारियों की तस्वीरों के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनरेगा की तथाकथित उपलब्धियों का लगातार गुणगान किया जबकि इस योजना में भारी अनियमितता की वजह से त्राहि -त्राहि मची हुई थी। भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा सबूत ये है कि जिन अखबारों ने भी भ्रष्टाचार में आरोपित जिलों के विकास खण्डों के विज्ञापनों को प्रकाशित किया, उन सभी को भुगतान नगद किया गया जिसकी जांच कभी भी की जा सकती है। सिर्फ इतना ही नहीं पत्रकारों और अखबारों ने ग्राम पंचायत के सचिवों और ग्राम प्रधानों से भी जम कर वसूली की। ऐसा नहीं था कि मनरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार और इसमें मीडिया की संलिप्तता की जानकारी मुख्यमंत्री मायावती और उनके सहयोगियों को नहीं थी, लेकिन जानकारी के बावजूद सच पर पर्दा डालने की कोशिश की गयी। स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक ने जब प्रदेश के गृह सचिव फ़तेह बहादुर के रिश्तेदार और सोनभद्र के पूर्व मुख्य विकास अधिकारी जो कि मीडिया मे अपने संबंधों को लेकर बेहद चर्चित रहे हैं, के भ्रष्ट आचरण के समबन्ध में खबर छापी तो अखबार के प्रबंध निदेशक का सामान ही घर से बाहर उठाकर फेंक दिया गया। गौरतलब है कि उस पूर्व मुख्य विकास अधिकारी ने इसी वर्ष अपनी बेटी की शादी बिल्कुल शाही अंदाज में की। उस विवाह में प्रदेश के तमाम नौकशाहों के साथ साथ प्रदेश के सभी छोटे -बड़े पत्रकार मौजूद थे।
मनरेगा मीडिया के लिए भी मुरब्बा साबित हुआ है। अगर आप कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जनपदों में जायेंगे तो आपको वहाँ या तो माफिया नजर आयेंगे या फिर मीडिया। जयराम रमेश ने जिन अधिकारियों और कर्मचारियों का नाम अपने पत्र में लिए है दरअसल वो सारे अधिकारी और कर्मचारी मीडिया के भी अत्यंत प्रिय थे। सरकार द्वारा मनरेगा के पैसों में हिस्सेदारी तय करने के लिए जिन अधिकारियों को इन गरीब जिलों में भेजा गया, उन अधिकारियों ने सबसे पहले मीडिया में बैठे अपनी कारिंदों को इस पूरे खेल में शामिल कर लिया और न सिर्फ मनरेगा में अनियमितता से सम्बन्धित ख़बरों को ठेकों और विज्ञापनों की आड़ में सेंसर करा दिया गया, बल्कि पत्रकारों की मदद से मनरेगा के कार्यों की निगरानी में लगायी गयी एजेंसियों को भी बरगलाने की कोशिश की गयी। सोनभद्र में तो एक ऊँची रसूख वाले स्वतंत्र पत्रकार के साले और एक मासिक पत्रिका के प्रबंधन में शामिल एक व्यक्ति को लगभग २५० कार्यों के ठेके दे दिए गए, राजेश चौबे नाम का एक ग्राम सचिव जिसने पानी पत्नी के नाम एक करोड़ रूपए खाते में जमा कराये थे जिसका जिक्र जयराम रमेश ने अपने पत्र में किया है, दरअसल पत्रकारों का चेहता था। पत्रकारों ने मिल बाँट कर खाने की नियत से अधिकारियों को कह कर उसे ज्यादा से ज्यादा काम दिलवा दिया और अपने-अपने लोगों को उसके साथ ठेकेदारी में लगा दिया जिसका नतीजा ये हुआ कि इन सभी कार्यों में न सिर्फ निर्माण सामग्री की आपूर्ति का काम पत्रकारों के चहेतों को दिया गया बल्कि मनरेगा के कार्यों में श्रम का हिस्सा भी इन्ही पत्रकारों को सौंप दिया। शर्मनाक ये रहा कि पत्रकारों और उनके चहेतों द्वारा जो भी निर्माण कार्य कराये गए वो सभी पहली बरसात में ही ढह गए। ये बात अजीब जरुर है मगर सच है कि पूर्वांचल के जिन जिलों के नाम मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले आये हैं। उन सभी जिलों में लगभग सभी विकास खण्डों में पत्रकार ,प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर मनरेगा की ठेकेदारी में शामिल रहे हैं। नाम न छापने की शर्त पर सोनभद्र के एक खंड विकास अधिकारी स्वीकार करते हैं कि उन्हें जनपद के एक पूर्व मुख्य विकास अधिकारी के ड़ी राम द्वारा एक मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार और उनके एक मित्र को ठेका देने का आग्रह किया गया था, लेकिन जब हमने इससे इनकार कर दिया तो हमारे खिलाफ ही मुहिम चलाई जाने लगी। अन्य जिन अखबारों और चैनलों के प्रतिनिधियों के नाम मनरेगा के ठेके के बंटवारे में आये हैं, उनमे कई क्षेत्रीय चैनलों और अख़बारों के भी संवाददाताओं के का नाम शामिल है। कमोवेश यही हाल मिर्जापुर और चंदौली का भी है।
जहाँ तक विज्ञापनों का सवाल है, मनरेगा का धन अखबारों के लिए बड़ी कमाई का जरिया बन गया, दैनिक जागरण जैसे अखबार ने जिसके एक एक पेज के विज्ञापन का मूल्य लाखों में है हर एक अवसर -बेअवसर पर विज्ञापनों का प्रकाशन किया, जिनका भुगतान मनरेगा में हुई काली कमाई से किया गया। अन्य अखबारों ने भी समान रूप से बहती गंगा में अपना हाँथ धोया। सोनभद्र में तो मनरेगा के प्रचार -प्रसार के लिए एक स्थानीय पत्रकार को जो कि एक पत्रिका का संपादक भी है बेवजह होर्डिंग बनाने का काम सौंप दिया गया और उसने पलक झपकते ही कुछ एक हजार के काम में लाखों वसूल लिए ,वो भी तब जबकि मनरेगा के धन का ऐसा किसी भी प्रकार का दुरुपयोग करने की सख्त मनाही है। ये मनरेगा का ही कमाल था कि दैनिक जागरण ने बेहद गरीब कहे जाने वाले सोनभद्र जनपद में अपने विज्ञापन की लक्ष्य राशि सालाना एक करोड़ रूपए कर दी। जो कि ५ वर्ष पूर्व महज २५ से ३० लाख थी, वही अन्य अखबारों ने भी मजदूरों के पैसों पर अधिकारियों की मिलीभगत से जम कर डाका डाला। इस लूट -खसोट का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन बड़े अखबारों के परिशिष्टों में ७० फीसदी से ज्यादा विज्ञापन का स्पेस ग्राम प्रधानों, उपखंड विकास अधिकारियों और विकास अधिकारियों के विज्ञापनों से भरा रहा। ये सीधे तौर पर भ्रष्टाचार से आये धन के बंटवारे जैसा था। एक तरफ जहाँ मनरेगा के मजदूर अपनी मजदूरी के लिए, तो कहीं कहीं काम न मिलने की वजह से हताश थे उस वक्त जागरण ने खबर छापी नरेगा साबित हुई वरदान।
सोनभद्र में मनरेगा के धन के दुरूपयोग का एक एक बड़ा मामला'सोन महोत्सव 'से जुड़ा है। यमुना एक्सप्रेसवे इंडस्ट्रियल अथारिटी के वर्तमान सीइओ और बसपा सांसद डी पी यादव के दामाद जो कि माया सरकार के गठन होने के बाद रिकार्ड तोड़ चार सालों तक सोनभद्र के जिलाधिकारी रहे, के कार्यकाल में करोड़ों रूपए खर्च करके सोन महोत्सव का आयोजन किया गया। बताया जाता है कि सोन महोत्सव का सारा पैसा मनरेगा से ही आया था और इस कार्यक्रम के आयोजन के पीछे भी पूरी तरह उन पत्रकारों का दिमाग काम कर रहा था जो मनरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार में शामिल थे। जानकारी है कि पत्रकारों के कहने पर इस आयोजन के लिए जनपद के सभी खंड विकास अधिकारियों को धन इकठ्ठा करने के विशेष आदेश दिए थे। सरकारी धन का एक बड़ा हिस्सा पत्रकारों ने नामी -गिरामी नृत्यांगनाओं और गायक-गायिकाओं में खर्च कर दिया। याद रखें ये वही समय था जब सोन के तटवर्ती इलाकों में अकाल मौतें दिल्ली और देश के अन्य राज्यों के अखबारों और वेब पोर्टलों की सुर्खियाँ बनी हुई थी। यहाँ ये बताना भी जरुरी है कि इन तीनों अति नक्सल प्रभावित जनपदों में अधिकारियों में मनरेगा के सभी कार्यों में २८ फीसदी कमीशन निर्धारित किया गया है, जिसका बंटवारा जिलाधिकारी कार्यालय से लेकर परियोजना निदेशक , मुख्य विकास अधिकारी और खंड विकास अधिकारी के स्तर तक होता है, लेकिन पत्रकारों या अखबारों को जो राशि दी जा रही है वो इस २८ फीसदी से पूरी तरह अलग है। ऐसे में इन जनपदों में मनरेगा के लिए आवंटित किये जाने वाले कुल धन का बमुश्किल ५० फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है और इन गरीब जनपदों के मजदूर आदिवासी मनरेगा के इस महाभ्रष्टाचार से हारकर या तो पत्थर तोड़ने वाले पत्थरतोड़वा मजदूर बन जाते हैं या फिर काम की तलाश में अन्य राज्यों की और पलायन कर जाते हैं। कफ़नखसोटी का ये खेल अभी भी जारी है। उत्तर प्रदेश में मनरेगा में हुए भ्रष्टाचार की किसी भी कीजांच तब तक बेईमानी है जब तक उसमे मीडिया को शामिल न कर दिया जाए।
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