महात्मा गांधी नेशनल रूरल इंप्लॉयमेंट गारंटी योजना में सौ मानव श्रम दिवसों की सीलिंग में बदलाव किए जाने का फैसला दूरगामी असर वाला होगा और इसके कई फायदे हो सकते हैं। मज़दूरों को यदि यह लगे कि गांव में रहकर भी रोज़गार के अवसर मिल सकते हैं तो उन्हें इसके लिए शहर जाने की ज़रूरत कम महसूस होगी। इससे गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन पर लगाम लगेगी तो शहरों की आधारभूत संरचनाओं और सुविधाओं पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आएगी। शहरों में रहने वाले मज़दूरों के लिए रोज़गार के अवसरों में वृद्धि होगी। शहरों में रोज़गार के लिए मची धमाचौकड़ी में कमी आएगी तो इससे शहरी मज़दूरों को मिलने वाली मज़दूरी के स्तर में भी सुधार होगा। यदि एक बार ऐसा हो गया तो सरकार को शायद शहरी मज़दूरों के लिए इंप्लॉयमेंट गारंटी प्रोग्राम जैसी योजना चलाने की ज़रूरत ही न रहे।
मनरेगा का उद्देश्य केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराकर गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन पर रोक लगाना ही नहीं है, बल्कि दूरदराज के क्षेत्रों में परिसंपत्ति का निर्माण करना भी है। इस नज़रिये से देखें तो सरकार को बाज़ार के अनुरूप न्यूनतम मज़दूरी में लगातार बदलाव करना होगा। इससे ग्रामीण मज़दूर शहरों में उपलब्ध ज़्यादा मज़दूरी वाले रोज़गार के अवसरों की ओर कम आकर्षित होंगे। यदि ऐसा नहीं होता है तो लोग गांव में रहकर मनरेगा के लिए काम करने को तैयार नहीं होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत संरचना के निर्माण एवं विकास की हमारी हसरत भी धरी की धरी रह जाएगी। कई लोगों का मानना है कि चूंकि मनरेगा एक मांग केंद्रित योजना है, लोगों को मज़दूरी की सरकारी दरों पर काम करने के लिए तैयार होना चाहिए। इनका मानना है कि मज़दूरी की उक्त दर यह ध्यान में रखकर निर्धारित की गई है कि इससे एक घर की रोज़ाना की आर्थिक ज़रूरतें पूरी हो सकें। फिर भी यदि मज़दूरों को ऊंची दरों पर रोज़गार के अवसर मिल रहे हैं तो उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। इससे सरकारी धन की बचत होगी, जिसे मनरेगा जैसी दूसरी जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है।
बारिश या खेती के लिहाज़ से व्यस्त मौसम में ग्रामीण इलाक़ों में भी ऊंची मज़दूरी वाले रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो जाते हैं।
इससे मनरेगा के अंतर्गत काम करने के लिए उपलब्ध मज़दूरों की संख्या में कमी आती है और सरकारी धन का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता। फिर भी हमें यह ज़रूर मानना चाहिए कि मनरेगा की सफलता या विफलता का पैमाना सरकारी धन का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। योजना के अंतर्गत आवंटित राशि के कम इस्तेमाल का यह कारण भी तो हो सकता है कि उस इलाक़े में रोज़गार के ऐसे अवसरों की मांग कम हो। यह वास्तव में विकास के बढ़ते स्तर का एक सूचक भी है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि लोगों को कहीं और बेहतर मज़दूरी वाले रोज़गार के अवसर मिल रहे हैं और जीवनयापन के लिए सरकारी योजनाओं पर उनकी निर्भरता भी कम है। हैरानी तब होती है, जब ऐसे इलाक़ों में भी मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने वाले लोगों की संख्या कम देखने को मिलती है, जहां ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या अपेक्षाकृत ज़्यादा।
इससे भी ज़्यादा आश्चर्य तब होता है, जब ऐसे लोग घरों में निठल्ले बैठे रहते हैं, जबकि मनरेगा के अंतर्गत उनके लिए काम उपलब्ध रहता है, जिससे वे न केवल कमाई कर सकते हैं, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में आधारिक संरचना का निर्माण भी संभव हो सकता है और दूरदराज के इलाक़ों में लोगों के जीवन स्तर में सुधार आ सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखें तो स्पष्ट हो जाता है कि ज़मीनी स्तर पर योजना के बारे में जागरूकता फैलाने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं। ऐसा महसूस किया गया है कि ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश लोगों को अभी भी यह नहीं पता कि मनरेगा के अंतर्गत काम की मांग करना उनका अधिकार है। उन्हें यह भी नहीं पता कि काम मांगे जाने के पंद्रह दिनों के भीतर यदि क्रियान्वयन के लिए ज़िम्मेदार एजेंसी उन्हें रोज़गार के अवसर उपलब्ध नहीं करा पाती है तो वे बेरोज़गारी भत्ता पाने के हक़दार हैं। निराशाजनक बात तो यह है कि योजना के अंतर्गत सूचना, शिक्षा एवं जागरूकता जैसे कार्यक्रमों के लिए आवंटित राशि का इस्तेमाल भी विरले ही हो पाता है।
देश के किसी भी इलाक़े में बेरोज़गारी भत्ते के मद में अदा की गई राशि योजना मद में ़खर्च की गई कुल राशि की तुलना में नगण्य ही है। इसका मतलब यह है कि क्रियान्वयन एजेंसियां लोगों को पंद्रह दिन की समय सीमा के अंदर रोज़गार के अवसर उपलब्ध करा रही हैं, लेकिन यह सच्चाई नहीं है। वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियां काम की मांग करने पर लोगों को हस्ताक्षरित रसीद नहीं देतीं। इससे एक तो तय समय सीमा के अंदर रोज़गार के अवसर उपलब्ध न करा पाने की उनकी नाकामी छुपी रह जाती है और फिर बेरोज़गारी भत्ता भी नहीं देना पड़ता। वैसे भी बेरोजगारी भत्ते के भुगतान के लिए राज्य सरकार ज़िम्मेदार होती है। यह विफलता सामने आने पर संबद्ध अधिकारियों से जवाब-तलब किया जा सकता है और उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। इसीलिए क्रियान्वयन एजेंसियां बेरोज़गारी भत्ते के भुगतान से बचने की कोशिश में लगी रहती हैं। कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं, जब एजेंसियां पंद्रह दिनों के अंदर रोज़गार के अवसर उपलब्ध करा पाने में नाकाम रही हैं, जबकि यह मनरेगा के आधारभूत लक्ष्यों में शामिल है। इतना ही नहीं, अब तक किसी भी ज़िम्मेदार अधिकारी के खिलाफ इस विफलता के लिए कार्रवाई नहीं की गई है, जबकि योजना के अंतर्गत इसके लिए स्पष्ट प्रावधान मौजूद हैं।
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