हरिद्वार और गंगा जैसे एक दूसरे के पर्याय हैं। श्रद्धालु वहां मुक्ति की आस में जाते हैं, तो सैलानी सौंदर्य खोजने। लेकिन कभी-कभी यह यात्रा भीतर की यात्रा भी बन जाती है। ऐसी ही एक यात्रा के बारे में बता रहे हैं राजेश कुमार व्यास।
अनंत का यात्री है मन। घर पर होते हैं तो कहां इस मन यात्री को जान पाते हैं। जितना घर से बाहर निकलते हैं, मन को भी और अधिक जानने लगते हैं। माने घर से बाहर की हर यात्रा मन की यात्रा है। बाहर न जाएं तो खुद अपने मन में झांकने का अवकाश ही न मिले। इसीलिए कहीं, जब अपने स्थान को छोड़ दूर कहीं होते हैं तो वह स्थान की ही यात्रा नहीं होती, मन की भी होती है।… अभी इसी मार्ग पर हूं। शोर करता नदी का वेग मन को जैसे झकझोरता है। बाहर झांकता हूं तो पाता हूं, घाटों पर तीर्थ की पुण्य बटोरने की होड़ मच रही है। दूर तक नजर जाती है तो बहती नदी के किनारों पर अपार जनसमूह। कोई डुबकी लगा रहा है, कोई पितरों का तर्पण कर रहा है तो कोई स्नान के बाद सूर्य के ताप में बदन सुखा रहा है। गंगा बह रही है अविरल!
औचक गंगा पर कुबेरनाथ राय के लिखे की स्मृति कौंधती है, ‘गं-गं गच्छति सा गंगा’। लगता है, मंत्रों की साम वाणी बज रही है। यह उस पढ़े का ध्यान ही है कि कुछ देर पहले की शोर करती गंगा का प्रवाह मन को अब सुकून देने लगा है। मन यात्री जैसे जागता है। यह सोचते हुए, नदी की यात्रा का ध्येय है सागर में समाना और गंगा तो भागीरथी के रूप में सगर के साठ हजार पुत्रों की ही उद्धारक नहीं, इस समय हम सबके पितरों की मोक्षदायनी है। तर्पणी! सप्तपुरियों में से एक हरिद्वार में ही यह पहाड़ों की गोद से उतरती है। हरिद्वार इसीलिए ‘गंगद्वार’ भी तो है! यों हरिद्वार न भी कहें, हरद्वार से काम चल सकता है। हरद्वार में अपनापा है। आत्मीयता का भाव है। हरद्वार माने हर का द्वार। भगवान शिव का घर।
पहले भी कई बार यहां आया हूं। बद्रीनाथ और सीमांत गांव माणा, गंगोत्री की यात्राओं की धुंधली स्मृतियां अब भी है। पर, यात्रा का प्रयोजन ऐसा भी होगा, कहां सोचा था। सुबह स्टेशन पर जब उतरा था तो पंडों ने घेर लिया। गोत्र जाति और स्थान के बारे में जानकारी प्राप्ति के बाद पंडों की भीड़ स्वमेव छंट गई। पंडों ने ही हमारे ठावे पंडित मोहनलाल शर्मा का ठिकाना बता दिया और बाकायदा एक तांगे वाले को वहां पहुंचाने की हिदायत भी दे दी थी। पहुंचने पर बीकानेर से आया जान कर वह अपनी कोठरी में बैठने को कहते हैं। छोटा-सा कमरा। गद्धा बिछा हुआ। कमरे में ही बनी अलमारी खोलते हैं। निवाड़ में गूंथी हुई बहियां। एक नहीं अनेक। पता चलता है, ये वंशावलियां हैं।
अचरज! हमसे पहले जितने भी हमारे पूर्वज हरिद्वार आए हैं, उन सभी का रिकॉर्ड इनमें है। रिकॉर्ड के साथ पूर्वजों की हस्तलिपि भी। कब वे आए, और कौन-कौन साथ थे, के साथ पूरे के पूरे परिवारजनों के नाम तक। जन्म से मरण, तीर्थ प्रयोजन से हुई पूर्वजों की तमाम यात्राओं का विवरण। स्मृति पर जोर देता हूं… परदादा के पिता का तो नाम ही नहीं जानता! जिज्ञासा जगती है, पंडितजी की बही में परदादा-परदादी, उनके भी दादा-दादी। विवाह, जन्म और मृत्युओं का विस्तृत हस्तलिखित विवरण और साथ आए लोगों की साक्षी है।… और अब हमारा विवरण इसमें लिखा जा रहा है।
वंशावली पंजिका पूर्ति के बाद पंडितजी के साथ ही गंगा तट की ओर चल पड़े थे। पंडितजी हमें हर की पैड़ी का रास्ता बताते हुए पूजा-अनुष्ठान की सामग्री लेने हमसे अलग हो गए थे। गंगा तट नजदीक ही था। साथ में पत्नी अरुणा, पुत्र निहार और भतीजा हिमांशु भी हैं, पर लगा यही कि अकेला हूं। अभागा! वह मिनख अभागा जिस पर पिता की छत्रछाया न रहे। मन में विचार आने लगे, पहले पहल कभी उनके साथ ही यहां आया था।… सोचा न था, एक दिन इस तरह से उन्हें मुझे लाना होगा। संदेह न सही, पर वह साथ तो थे ही! मोहासिक्त मन को नींद भी तो कहां आई थी! बार-बार यही लग रहा था, वे साथ हैं। उनके होने को पूरे सफर में अनुभव करता रहा। रात में भी चौंक कर उठ बैठता। पापा आप ठीक तो हो! पापा अब कहां? उनकी नश्वर देह तो राख हो चुकी !
गंगा के रास्ते में भीड़ थी, पर मैं निपट अकेलेपन से घिर गया था। पिता का होना क्या होता है, यह जैसे समझ आ रहा था।
मृत्यु ध्रुव सत्य है! इसे जान कर भी मन संभलता कहां है!
‘अरे आगे नहीं। यहीं। हमें यहीं रुकना है।’ बेटे निहार ने ‘अस्थि विसर्जन घाट’ का बोर्ड पढ़ते हुए कहा, तो मैं जैसे विचारों के सागर से बाहर निकला था। देखता हूं, मोक्ष प्रदायिनी गंगा बह रही है। जन्म-मरण के अटूट सत्य से साक्षात कराती।
पंडितजी के साथ मां गंगा में अस्थि प्रवाह कर्म में ही जुटा हुआ था कि औचक एक महाशय फोटो खींचने लगे। लगा, कोई ऐसे ही तीर्थाटन पर आया छायाछवि ले रहा होगा। जब तक कुछ और समझ पाता, वह लपक कर हमारे पास ही आ धमका। बैग से निकाल कर अलबम दिखाने लगा। अलबम में अस्थि प्रवाह के लिए आए लोगों के छायाचित्र। पितृतर्पण का भी छायांकन! मन कुंद हो उठा। डांट कर उसे भगा देता हूं। हम यहां पिता की अस्थियां विसर्जन के लिए आए हैं और यह जनाब अपने धंधे में जुटे हैं!
‘तीर्थम्तरित पापादिकं यस्मात्’ माने जिसकी यात्रा से पाप आदि से तर जाएं, वह तीर्थ है। पर तीर्थ भी बाजार बन गए हैं पर्यटन की विकृतियां ने तीर्थों को कहां छोड़ा है। हरिद्वार के घाटों पर भी तो होटल खुल गए हैं। बेढब ढाबे पितृतर्पण के लिए गरीबों को भोजन कराने की दुकानें बन गई हैं। अस्थिप्रवाह कर्म से जैसे ही व्यक्ति मुक्त होता है, घाट पर खुले ढाबों के नुमाइंदे टूट पड़ते हैं - ‘आइए, गरीबों को भोजन करा दें। इतने लोगों को भोजन के लिए मात्र इतने रुपए।’
यहां गंगा तट पर आकर लग रहा है, संसार वृक्ष के बीज मन को गंगा ने उजास दिया है। लगा था, पिता के मोक्ष की कामना की यात्रा हरिद्वार में उनकी अस्थियां विसर्जन के बाद समाप्त हो जाएगी। पर अब लग रहा है, यह तो अथ है। देह से साथ छोड़ गए पिताजी जीवनरूपी संसार की यात्रा का बचा भार जैसे मुझे सौंप गए हैं। ठंडे जल में फिर से उतरते कंपकंपी छूट रही है। कुछ देर जल उछालते अपना सिर पानी में डूबो लेता हूं।
ओह! हिम में जैसे जम ही जाऊंगा। हिमवान को पुत्री ही तो है गंगा। मनोरमा की बेटी। उमा की बड़ी बहन। यहां पानी में गोमुख की हिमधारा यानी ग्लेशियर से प्रकट होती गंगा का देखा स्वरूप याद आने लगा है। गोमुख ही तो उद्गम है गंगा का। सैकड़ों किलोमीटर तक हिमालय को चीरती देव प्रयाग में अलकनंदा को साथ लेकर ऋषिकेश पहुँचती है और फिर वहां हरिद्वार आती है। वैदिक ऋचाओं में इंद्र द्वारा नदियों को निर्बंध या बंधन रहित किए जाने का उल्लेख है और फिर गंगा को ही लें। वह तो शुरू से निर्बंध रही है। कब कहां बंधी? उसके तीव्रतम वेग को कौन सहता, सो शिव ने जटाओं में धारण किया। शिव जटा से मुक्ति, विष्णु पद से छूटने का अर्थ ही तो है - बंधन मुक्ति।
बंधे हुए जल में पितरों का तर्पण नहीं हो सकता। वह बहते हुए जल में ही हो सकता है। इसीलिए बंधनमुक्त नदियों में ही पितरों के तर्पण का विधान है। घाटों पर बनी चौकियों में पंडों को यह विधान कराते देख कहीं पढ़ा याद आने लगा है। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि हरिद्वार में बांध बने। तीर्थ पुरोहितों ने इसका विरोध किया, वे सब महामना मालवीयजी के पास पहुंचे। मालवीयजी ने ही तब देश को गंगा की रक्षा के लिए जगाया। ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और फिर आदेश जारी हुआ कि हर की पैड़ी में गंगा स्वाभाविक बहती रहेगी। सोचता हूं, प्रवाह है तभी तक पानी नदी है। थम गया तो पोखर या तालाब नहीं हो जाएगा।
हरिद्वार में अपनों से बिछोह के दर्द का भार यहां मां गंगे खुद अपने पर ले लेती है। नदी नहीं सभ्यता और संस्कृति की भव्यता है गंगा। वेद, पुराण, उपनिषद इतिहास और काव्य का स्रोत, श्लोक और मंत्र। सोच ही रहा हूं कि गंगा की तेज लहरें उद्यत हैं अपने साथ बहा ले जाने के लिए। घाट से बंधी सांकल न पकड़ी ही तो अपने साथ बहा ही ले जाएं। देखता हूं, बहती लहरों का प्रवाह अपने साथ बहा ले जा रहा है - अस्थियों के साथ आई राख, पूजा सामग्री, गेंदे का फूल और तमाम दूसरी चीजें। नश्वर देह को भी धकेल रहा है, अपने साथ ले जाने के लिए। सांकल पर पकड़ और तेज हो जाती है… बुदबुदाता हूं, ‘हर हर गंगे, नमामि गंगे, देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे।’
देर तक गंगा स्नान के बाद बाहर आया तो सूर्य का तेज भला-भला लगा। बदन पोंछते मन किया कि कहीं न जाऊं, यही गंगा घाट पर बैठा रहूं। गंगा की लहरों पर पड़ती सूर्य की किरणें अद्भुत उजास की जैसे संवाहक बन रही हैं। घाटों पर लोगों की आवाजाही वैसे ही बनी हुई है। कुछ देर वहीं ठहर कर घाटों पर विचरते हैं। दोपहर से कब सांझ हो जाती है, पता ही नहीं चलता। इस बार हर की पैड़ी के पास बने पुल को पार कर गंगा की दूसरी बहती धारा के पास है। यहां छीड़ (कम भीड़) है। तट पर भी बहुत अधिक लोग नहीं हं। अभी गंगा आरती में घंटा भर शेष है, सो वहीं गंगा किनारे टहलते हैं।
गंगा का पानी अमृत है। हम भी घाट पर खरीदी हुई बोतलों में इसे भर लेते हैं, घर ले जाने के लिए गंगा आरती का समय हो गया है। हर की पैड़ी पर आरती का हिस्सा बनते हैं। घाटों पर घंटियों का निनाद। मन स्वामी रामतीर्थ के शब्द याद कर रहा है, ‘गंगा माई तेरी बलि जाऊं। हाड़-मांस का फूल बताशा, तुझको अर्पित कर जाऊं।’ गहन होती सांझ। धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे अंधकार को पानी में प्रवाहित नन्हें-नन्हें दीप कर रहे हैं। हम भी करते हैं दीपदान! बांस की पट्टी पर, पलाश के पत्तल या केले के पत्तों पर जले घी के दीप बहते प्रवाह में क्षण में ओझल हो जाते हैं। लहरों के थपेड़े सहते दूर तक जाते, पल में बुझते। आस्था के प्रवाह का यही तो है उजास। दीपदान करके हम लौट रहे हैं। मां गंगे को नमन करते हुए। यात्रा का अंत ही यात्रा का प्रारंभ है।
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अनंत का यात्री है मन। घर पर होते हैं तो कहां इस मन यात्री को जान पाते हैं। जितना घर से बाहर निकलते हैं, मन को भी और अधिक जानने लगते हैं। माने घर से बाहर की हर यात्रा मन की यात्रा है। बाहर न जाएं तो खुद अपने मन में झांकने का अवकाश ही न मिले। इसीलिए कहीं, जब अपने स्थान को छोड़ दूर कहीं होते हैं तो वह स्थान की ही यात्रा नहीं होती, मन की भी होती है।… अभी इसी मार्ग पर हूं। शोर करता नदी का वेग मन को जैसे झकझोरता है। बाहर झांकता हूं तो पाता हूं, घाटों पर तीर्थ की पुण्य बटोरने की होड़ मच रही है। दूर तक नजर जाती है तो बहती नदी के किनारों पर अपार जनसमूह। कोई डुबकी लगा रहा है, कोई पितरों का तर्पण कर रहा है तो कोई स्नान के बाद सूर्य के ताप में बदन सुखा रहा है। गंगा बह रही है अविरल!
औचक गंगा पर कुबेरनाथ राय के लिखे की स्मृति कौंधती है, ‘गं-गं गच्छति सा गंगा’। लगता है, मंत्रों की साम वाणी बज रही है। यह उस पढ़े का ध्यान ही है कि कुछ देर पहले की शोर करती गंगा का प्रवाह मन को अब सुकून देने लगा है। मन यात्री जैसे जागता है। यह सोचते हुए, नदी की यात्रा का ध्येय है सागर में समाना और गंगा तो भागीरथी के रूप में सगर के साठ हजार पुत्रों की ही उद्धारक नहीं, इस समय हम सबके पितरों की मोक्षदायनी है। तर्पणी! सप्तपुरियों में से एक हरिद्वार में ही यह पहाड़ों की गोद से उतरती है। हरिद्वार इसीलिए ‘गंगद्वार’ भी तो है! यों हरिद्वार न भी कहें, हरद्वार से काम चल सकता है। हरद्वार में अपनापा है। आत्मीयता का भाव है। हरद्वार माने हर का द्वार। भगवान शिव का घर।
पहले भी कई बार यहां आया हूं। बद्रीनाथ और सीमांत गांव माणा, गंगोत्री की यात्राओं की धुंधली स्मृतियां अब भी है। पर, यात्रा का प्रयोजन ऐसा भी होगा, कहां सोचा था। सुबह स्टेशन पर जब उतरा था तो पंडों ने घेर लिया। गोत्र जाति और स्थान के बारे में जानकारी प्राप्ति के बाद पंडों की भीड़ स्वमेव छंट गई। पंडों ने ही हमारे ठावे पंडित मोहनलाल शर्मा का ठिकाना बता दिया और बाकायदा एक तांगे वाले को वहां पहुंचाने की हिदायत भी दे दी थी। पहुंचने पर बीकानेर से आया जान कर वह अपनी कोठरी में बैठने को कहते हैं। छोटा-सा कमरा। गद्धा बिछा हुआ। कमरे में ही बनी अलमारी खोलते हैं। निवाड़ में गूंथी हुई बहियां। एक नहीं अनेक। पता चलता है, ये वंशावलियां हैं।
अचरज! हमसे पहले जितने भी हमारे पूर्वज हरिद्वार आए हैं, उन सभी का रिकॉर्ड इनमें है। रिकॉर्ड के साथ पूर्वजों की हस्तलिपि भी। कब वे आए, और कौन-कौन साथ थे, के साथ पूरे के पूरे परिवारजनों के नाम तक। जन्म से मरण, तीर्थ प्रयोजन से हुई पूर्वजों की तमाम यात्राओं का विवरण। स्मृति पर जोर देता हूं… परदादा के पिता का तो नाम ही नहीं जानता! जिज्ञासा जगती है, पंडितजी की बही में परदादा-परदादी, उनके भी दादा-दादी। विवाह, जन्म और मृत्युओं का विस्तृत हस्तलिखित विवरण और साथ आए लोगों की साक्षी है।… और अब हमारा विवरण इसमें लिखा जा रहा है।
वंशावली पंजिका पूर्ति के बाद पंडितजी के साथ ही गंगा तट की ओर चल पड़े थे। पंडितजी हमें हर की पैड़ी का रास्ता बताते हुए पूजा-अनुष्ठान की सामग्री लेने हमसे अलग हो गए थे। गंगा तट नजदीक ही था। साथ में पत्नी अरुणा, पुत्र निहार और भतीजा हिमांशु भी हैं, पर लगा यही कि अकेला हूं। अभागा! वह मिनख अभागा जिस पर पिता की छत्रछाया न रहे। मन में विचार आने लगे, पहले पहल कभी उनके साथ ही यहां आया था।… सोचा न था, एक दिन इस तरह से उन्हें मुझे लाना होगा। संदेह न सही, पर वह साथ तो थे ही! मोहासिक्त मन को नींद भी तो कहां आई थी! बार-बार यही लग रहा था, वे साथ हैं। उनके होने को पूरे सफर में अनुभव करता रहा। रात में भी चौंक कर उठ बैठता। पापा आप ठीक तो हो! पापा अब कहां? उनकी नश्वर देह तो राख हो चुकी !
गंगा के रास्ते में भीड़ थी, पर मैं निपट अकेलेपन से घिर गया था। पिता का होना क्या होता है, यह जैसे समझ आ रहा था।
मृत्यु ध्रुव सत्य है! इसे जान कर भी मन संभलता कहां है!
‘अरे आगे नहीं। यहीं। हमें यहीं रुकना है।’ बेटे निहार ने ‘अस्थि विसर्जन घाट’ का बोर्ड पढ़ते हुए कहा, तो मैं जैसे विचारों के सागर से बाहर निकला था। देखता हूं, मोक्ष प्रदायिनी गंगा बह रही है। जन्म-मरण के अटूट सत्य से साक्षात कराती।
पंडितजी के साथ मां गंगा में अस्थि प्रवाह कर्म में ही जुटा हुआ था कि औचक एक महाशय फोटो खींचने लगे। लगा, कोई ऐसे ही तीर्थाटन पर आया छायाछवि ले रहा होगा। जब तक कुछ और समझ पाता, वह लपक कर हमारे पास ही आ धमका। बैग से निकाल कर अलबम दिखाने लगा। अलबम में अस्थि प्रवाह के लिए आए लोगों के छायाचित्र। पितृतर्पण का भी छायांकन! मन कुंद हो उठा। डांट कर उसे भगा देता हूं। हम यहां पिता की अस्थियां विसर्जन के लिए आए हैं और यह जनाब अपने धंधे में जुटे हैं!
‘तीर्थम्तरित पापादिकं यस्मात्’ माने जिसकी यात्रा से पाप आदि से तर जाएं, वह तीर्थ है। पर तीर्थ भी बाजार बन गए हैं पर्यटन की विकृतियां ने तीर्थों को कहां छोड़ा है। हरिद्वार के घाटों पर भी तो होटल खुल गए हैं। बेढब ढाबे पितृतर्पण के लिए गरीबों को भोजन कराने की दुकानें बन गई हैं। अस्थिप्रवाह कर्म से जैसे ही व्यक्ति मुक्त होता है, घाट पर खुले ढाबों के नुमाइंदे टूट पड़ते हैं - ‘आइए, गरीबों को भोजन करा दें। इतने लोगों को भोजन के लिए मात्र इतने रुपए।’
यहां गंगा तट पर आकर लग रहा है, संसार वृक्ष के बीज मन को गंगा ने उजास दिया है। लगा था, पिता के मोक्ष की कामना की यात्रा हरिद्वार में उनकी अस्थियां विसर्जन के बाद समाप्त हो जाएगी। पर अब लग रहा है, यह तो अथ है। देह से साथ छोड़ गए पिताजी जीवनरूपी संसार की यात्रा का बचा भार जैसे मुझे सौंप गए हैं। ठंडे जल में फिर से उतरते कंपकंपी छूट रही है। कुछ देर जल उछालते अपना सिर पानी में डूबो लेता हूं।
ओह! हिम में जैसे जम ही जाऊंगा। हिमवान को पुत्री ही तो है गंगा। मनोरमा की बेटी। उमा की बड़ी बहन। यहां पानी में गोमुख की हिमधारा यानी ग्लेशियर से प्रकट होती गंगा का देखा स्वरूप याद आने लगा है। गोमुख ही तो उद्गम है गंगा का। सैकड़ों किलोमीटर तक हिमालय को चीरती देव प्रयाग में अलकनंदा को साथ लेकर ऋषिकेश पहुँचती है और फिर वहां हरिद्वार आती है। वैदिक ऋचाओं में इंद्र द्वारा नदियों को निर्बंध या बंधन रहित किए जाने का उल्लेख है और फिर गंगा को ही लें। वह तो शुरू से निर्बंध रही है। कब कहां बंधी? उसके तीव्रतम वेग को कौन सहता, सो शिव ने जटाओं में धारण किया। शिव जटा से मुक्ति, विष्णु पद से छूटने का अर्थ ही तो है - बंधन मुक्ति।
बंधे हुए जल में पितरों का तर्पण नहीं हो सकता। वह बहते हुए जल में ही हो सकता है। इसीलिए बंधनमुक्त नदियों में ही पितरों के तर्पण का विधान है। घाटों पर बनी चौकियों में पंडों को यह विधान कराते देख कहीं पढ़ा याद आने लगा है। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि हरिद्वार में बांध बने। तीर्थ पुरोहितों ने इसका विरोध किया, वे सब महामना मालवीयजी के पास पहुंचे। मालवीयजी ने ही तब देश को गंगा की रक्षा के लिए जगाया। ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और फिर आदेश जारी हुआ कि हर की पैड़ी में गंगा स्वाभाविक बहती रहेगी। सोचता हूं, प्रवाह है तभी तक पानी नदी है। थम गया तो पोखर या तालाब नहीं हो जाएगा।
हरिद्वार में अपनों से बिछोह के दर्द का भार यहां मां गंगे खुद अपने पर ले लेती है। नदी नहीं सभ्यता और संस्कृति की भव्यता है गंगा। वेद, पुराण, उपनिषद इतिहास और काव्य का स्रोत, श्लोक और मंत्र। सोच ही रहा हूं कि गंगा की तेज लहरें उद्यत हैं अपने साथ बहा ले जाने के लिए। घाट से बंधी सांकल न पकड़ी ही तो अपने साथ बहा ही ले जाएं। देखता हूं, बहती लहरों का प्रवाह अपने साथ बहा ले जा रहा है - अस्थियों के साथ आई राख, पूजा सामग्री, गेंदे का फूल और तमाम दूसरी चीजें। नश्वर देह को भी धकेल रहा है, अपने साथ ले जाने के लिए। सांकल पर पकड़ और तेज हो जाती है… बुदबुदाता हूं, ‘हर हर गंगे, नमामि गंगे, देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे।’
देर तक गंगा स्नान के बाद बाहर आया तो सूर्य का तेज भला-भला लगा। बदन पोंछते मन किया कि कहीं न जाऊं, यही गंगा घाट पर बैठा रहूं। गंगा की लहरों पर पड़ती सूर्य की किरणें अद्भुत उजास की जैसे संवाहक बन रही हैं। घाटों पर लोगों की आवाजाही वैसे ही बनी हुई है। कुछ देर वहीं ठहर कर घाटों पर विचरते हैं। दोपहर से कब सांझ हो जाती है, पता ही नहीं चलता। इस बार हर की पैड़ी के पास बने पुल को पार कर गंगा की दूसरी बहती धारा के पास है। यहां छीड़ (कम भीड़) है। तट पर भी बहुत अधिक लोग नहीं हं। अभी गंगा आरती में घंटा भर शेष है, सो वहीं गंगा किनारे टहलते हैं।
गंगा का पानी अमृत है। हम भी घाट पर खरीदी हुई बोतलों में इसे भर लेते हैं, घर ले जाने के लिए गंगा आरती का समय हो गया है। हर की पैड़ी पर आरती का हिस्सा बनते हैं। घाटों पर घंटियों का निनाद। मन स्वामी रामतीर्थ के शब्द याद कर रहा है, ‘गंगा माई तेरी बलि जाऊं। हाड़-मांस का फूल बताशा, तुझको अर्पित कर जाऊं।’ गहन होती सांझ। धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे अंधकार को पानी में प्रवाहित नन्हें-नन्हें दीप कर रहे हैं। हम भी करते हैं दीपदान! बांस की पट्टी पर, पलाश के पत्तल या केले के पत्तों पर जले घी के दीप बहते प्रवाह में क्षण में ओझल हो जाते हैं। लहरों के थपेड़े सहते दूर तक जाते, पल में बुझते। आस्था के प्रवाह का यही तो है उजास। दीपदान करके हम लौट रहे हैं। मां गंगे को नमन करते हुए। यात्रा का अंत ही यात्रा का प्रारंभ है।
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