मकर संक्रान्ति, फिर बने राष्ट्र विमर्श का नदी पर्व

मकर सक्रान्ति पर विशेष

 


मकर सक्रान्ति ही वह दिन है, जब सूर्य उत्तरायण होना शुरू करता है और एक महीने, मकर राशि में रहता है; तत्पश्चात सूर्य, अगले पाँच माह कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन राशि में रहता है। एक दिन का हेरफेर हो जाये, तो अलग बात है, अन्यथा मकर सक्रान्ति का यह शुभ दिन, हर वर्ष अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से 14 जनवरी को आता है।

पंचांग के मुताबिक, इस वर्ष सूर्य 14 जनवरी की आधी रात के बाद प्रातः एक बजकर, 26 मिनट पर मकर राशि में प्रवेश करेगा।

अब चूँकि मकर राशि में प्रवेश के बाद का कुछ समय संक्रमण काल माना जाता है; अतः सूर्योदय के सात घंटे, 21 मिनट के बाद यानी दिन में एक बजकर, 45 मिनट से संक्रान्ति का पुण्यदायी समय शुरू होगा। इस नाते इस वर्ष मकर सक्रान्ति स्नान 15 जनवरी को होगा।

 

दिशा-दशा बदलाव का सूचक पर्व


इससे पूर्व 16 जुलाई को सूर्य, कर्क राशि में प्रवेश करने के बाद करीब छह माह के दौरान सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक और धनु राशि में रहता है। छह माह की यह अवस्था, सूर्य की दक्षिणायन अवस्था कहलाती है। दक्षिणायन अवस्था में सूर्य का तेज कम और चन्द्र का प्रभाव अधिक रहता है।

दक्षिणायन में दिन छोटे होने लगते हैं और रातें लम्बी होती है। यह अवस्था वनस्पतियों की उत्पत्ति में सहायक मानी गई है। उत्तरायण होते ही सूर्य तेजवान हो उठता है। दिन लम्बे होने लगते हैं और रातें छोटी।

इस तरह मकर संक्रान्ति एक तरह से सूर्य की दिशा और मौसम की दशा बदलने का सूचक पर्व भी है। उत्तरायण में शरीर छूटे, तो दक्षिणायन की तुलना में उत्तम माना गया है। अब इसका विज्ञान क्या है? कभी जानना चाहिए।

 

सूर्य स्वागत पर्व


सामान्यतया स्नान, दान, तप, श्राद्ध और तर्पण आदि मकर संक्रान्ति के महत्त्वपूर्ण कार्य माने गए हैं। चूड़ा, दही और तिलकुट - मकर संक्रान्ति के दिन दान के भी पदार्थ और स्वयं ग्रहण करने के भी। स्नान करें, पर्व कर्म करें और सूर्य का आशीष लें; किन्तु जयपुर, राजस्थान में आप मकर संक्रान्ति को पतंग उड़ाने की उमंग के पर्व के रूप में पाएँगे।

आकाश, पतंगों और डोर के संजाल से पटा होगा और छतें, हर उम्र के लोगों से। जैसे रंग-बिरंगी छतरी बनाकर सभी सूर्य का स्वागत करने निकल आये हों।

 

प्रयाग पर्व


“माघ मकर गति जब रवि होई। तीरथपति आवहू सब कोई।।’’

अर्थात माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करे, तो सभी लोग तीर्थों के राजा यानी तीर्थराज प्रयाग में पधारिए। प्रयाग यानी संगम।

संगम सिर्फ नदियों का ही नहीं, विज्ञान और धर्म, विचार और कर्म, सन्यासी और गृहस्थ तथा धर्मसत्ता, राजसत्ता और समाजसत्ता का संगम। कभी ऐसा ही संगम पर्व रहा है, मकर संक्रान्ति। कोई न्योता देने की जरूरत नहीं। सभी को पता है कि हर वर्ष, मकर संक्रान्ति को प्रयाग किनारे जुटना है।

 

प्रयाग किनारे ही क्यों?


उत्तर में जानकार कहते हैं कि खासकर, इलाहाबाद प्रयाग की एक विशेष भौगोलिक स्थिति है। मकर संक्रान्ति तथा अन्य स्नान तिथियों को प्रयाग, आकाशीय नक्षत्रों से निकलने वाली तरंगों का विशेष प्रभाव केन्द्र होता है। इसलिये इन तिथियों में प्रयाग में जुटकर निर्धारित कार्य करने का विशेष महत्त्व है। इसी तरह ऊपर उत्तराखण्ड में स्थित पंच प्रयागों की स्थिति भी हो सकती है।

 

स्नान पर्व


जहाँ गंगा, समुद्र से संगम करती है, वह स्थान गंगासागर कहलाता है। इसी स्थान पर कपिल मुनि द्वारा राजा सगर के 60 हजार पुत्रों के भस्म करने की कथा है। राजा भगीरथ के तप से धरा पर आई माँ गंगा द्वारा इसी स्थान पर सगर पुत्रों के उद्धार का कथानक है।

सम्भवतः इसीलिये मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगासागर में जैसा स्नान पर्व होता है, कहीं नहीं होता। क्या उत्तर, क्या दक्षिण और क्या पूर्व, क्या पश्चिम... पूरे भारतवर्ष से लोग गंगासागर पहुँचते हैं कहते हुए - “सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार।’’ कपिल मुनि का आश्रम, आज भी गंगासागर के तीर्थ यात्रियों के लिये विशेष आकर्षण का पूज्य स्थान है। आखिरकार, कपिल मुनि का दिया शाप न होता, तो भगीरथ प्रयास क्यों होता और गंगा, गंगासागर तक क्यों आती?

इस वर्ष 23 अप्रैल से सिंहस्थ कुम्भ है। हरिद्वार का अर्धकुंभ शुरू हो चुका है। अर्धकुम्भ, 22 अप्रैल तक चलेगा। इलाहाबाद में प्रयाग का माघ मेला, वार्षिक आयोजन है। 144 वर्ष बाद आता है, महाकुंभ। वर्ष 2025 में इलाहाबाद का प्रयाग, महाकुंभ का स्थान बनेगा। सभी स्नान, दान और ध्यान के अद्भुत मौके होंगे।

 

मंथन पर्व


गौर कीजिए कि आज हम मकर संक्रान्ति को माघ मेले और अर्धकुम्भ का प्रथम स्नान पर्व के रूप में ज्यादा भले ही जानते हों, किन्तु असल में मकर संक्रान्ति, एक मंथन पर्व है। माघ मेले के दौरान समाज, राज और प्रकृति को लेकर किये अनुसन्धानों का प्रदर्शन, उन पर मंथन, नीति निर्माण, रायशुमारी, समस्याओं के समाधान और अगले वर्ष के लिये निर्देश - इन सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों की कार्यशालाओं का संगम जैसा हो जाता था प्रयाग।

ऋषियों के किये अनुसन्धानों पर राज और धर्मगुरू चिन्तन कर निर्णय करते थे। नदी-प्रकृति के साथ व्यवहार हेतु तय पूर्व नीति का आकलन और तद्नुसार नव नीति का निर्धारण का मौका भी थे, माघ मेले और कुम्भ। जो कुछ तय होता था धर्मगुरू, अपने गृहस्थ शिष्यों के जरिए उन अनुसन्धानों/नीतियों/प्रावधानों को समाज तक पहुँचाते थे।

माघ मेला और कुम्भ में कल्पवास का प्रावधान है ही इसलिये। कल्पवासी, प्रयाग में आज भी जुटते हैं। आमतौर पर कल्पवासी, उम्रदराज होते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे गुरू परिवार से मिलते हैं। उनके मिलने के स्थान तय होते हैं। गुरु सानिध्य में कल्पवासी, बेहतर गृहस्थ जीवन का ज्ञान पाते हैं।

यही चलन है। पौष माह के 11वें दिन से शुरू होकर माघ माह के 12वें दिन तक कल्पवास करने का प्रावधान है। आगे के कालखण्ड में माघ मेला और कुम्भ, कारीगरों की कला-प्रदर्शनी का भी माध्यम बन गया और 1960 के दशक के बाद दिखावट और सजावट का।

 

फिर बने राष्ट्र विमर्श का नदी पर्व


आइए, मकर सक्रान्ति को फिर से विमर्श का संगम पर्व बनाएँ; जिन नदियों के किनारे जुटते हैं, उनकी अविरलता-निर्मलता सुनिश्चित करने का पर्व। राज, समाज और प्रकृति का प्रतिनिधित्त्व करने वाले ऋषियों के बीच राष्ट्र और प्रकृति के प्रति जन-जन के कर्म संवाद की अविरलता और निर्मलता सुनिश्चित किये बगैर यह सम्भव नहीं। आइए, यह सुनिश्चित करें।

 

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Post By: RuralWater
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