कभी गांव वालों को विश्वास था कि इस नदी में स्नान करने से उम्र लंबी होती है, लेकिन वर्तमान में तो इसके विपरीत ही दिख रहा है। छोटे-छोटे बच्चे कैंसर एवं अन्य घातक बीमारियों के शिकार होकर छोटी-सी उम्र में ही काल-कवलित हो रहे हैं।
अलीगढ़ की काली नदी कभी सुंदर मछलियों के लिए प्रसिद्ध थी, लेकिन आज इसकी बदहाली हमारे नागरिक समाज की काली तस्वीर ही पेश करती है। आज से लगभग 20 वर्ष पहले काली नदी को गंगा के समान माना जाता था। कुछ लोगों को यकीन था कि इस नदी में नहाने से उम्र लंबी होती है। तब इस नदी का प्रवाह इतना सुहावना था कि इसके दर्शन के लिए प्रातः काल से ही लोग तट पर जुट जाते थे।
एक समय अलीगढ़ में मुख्य रूप से आठ नदियों का संगम हुआ करता था। इसमें काली, करवन, सैगुर, चोया, गंगा, यमुना, नीम नदी व बुढ़गंगा प्रमुख हैं। गंगा और यमुना को छोड़कर बाकी नदियों का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो चुका है और काली नदी का अस्तित्व एक गंदे नाले की तरह रह गया है।
कभी काली नदी के तट पर बच्चे बालू के ढेर से घरौंदे बनाकर खेला करते थे। कुछ लोग मछलियों को दाना खिलाने के लिए सुबह ही नदी की ओर निकल पड़ते थे। आसपास के गांव वालों का मानना है कि उस समय खुशहाली थी, लेकिन जब से काली नदी नाले में तब्दील हो गई है, खुशी और समृद्धि भी जैसे विदा हो गई है। भले ही कभी गांव वालों को विश्वास था कि इस नदी में स्नान करने से उम्र लंबी होती है, लेकिन वर्तमान में तो इसके विपरीत ही दिख रहा है। छोटे-छोटे बच्चे कैंसर एवं अन्य घातक बीमारियों के शिकार होकर छोटी-सी उम्र में ही काल-कवलित हो रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि इस नदी के तट पर दयाशंकर सरस्वती समेत कई महान हस्तियों ने वर्षों तक तपस्या की है। इसके अलावा महान हिंदू विचारक जटाशंकर जोशी ने भी धार्मिक पत्रिका कल्याण में ‘काली नदी’ का विस्तार से वर्णन करते हुए उसकी महिमा का गुणगान किया है। इस नदी का निकास सहारनपुर से है, जो अलीगढ़ जनपद होते हुए इटावा स्थित यमुना नदी में मिल जाती है। लेकिन दुखद तथ्य यह है कि सहारनपुर एवं इटावा के बीच के सभी नगरों का तमाम कचरा इसी नदी में गिराया जाता है, जिसमें मरे हुए जानवरों के शव, मल-मूत्र आदि होते हैं। इन कचरों ने नदी के पानी को जहर की तरह विषाक्त ही नहीं बनाया, बल्कि छूने लायक भी नहीं रहने दिया।
प्रदूषण की मार ने जहां काली नदी के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है, वहीं मंत्रमुग्ध करने वाली मछलियों को भी विलुप्तप्राय बना दिया है। इसमें स्नान करने वाले लोगों को कई किस्म के चर्म रोग होने लगे हैं। जाहिर है कि हमारी गलतियां केवल पेड़, पशु-पक्षी एवं नदियों को ही नुकसान नहीं पहुंचातीं, बल्कि हमारे लिए भी घातक हैं।
/articles/maithaka-bana-gai-kaalai-nadai