मिट्टी का क्षरण रोकने और उपजाऊपन बहाल करने के अगर प्रभावी उपाय न किए गए तो हरित क्रान्ति से हुए लाभों पर बुरा असर पड़ सकता है। इसके लिए एक सफल परियोजना तैयार की गई जिसके सुखद परिणाम किसानों को महसूस होने लगे हैं।
मिट्टी के क्षरण में वृद्धि हो रही है और यह उर्वरकों के असन्तुलित इस्तेमाल का नतीजा है। साथ ही सिंचाई के लिए ज्यादा पानी का प्रयोग बढ़ रहा है जो कृषि वैज्ञानिकों के लिए चिन्ता का विषय बन रहा है। हाल ही में लखनऊ में राष्ट्रीय कृषि विज्ञान कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें ये चिन्ता साफ दिखी और वैज्ञानिकों ने कहा कि मिट्टी के स्वास्थ्य में क्षरण के कारण उपजाऊपन में कमी आई है और उगने वाले पौधे कमजोर दिखाई देते हैं जिसका साफ असर मानव और पशुओं के स्वास्थ्य पर दिखता है। अगर मिट्टी उत्पादकता की बहाली के निरन्तर उपाय न किए गए तो हरित क्रान्ति से हुए लाभों पर बुरा असर पड़ सकता है।
विशेषज्ञों की एक टीम ने इस सम्बन्ध में किसानों में जागरुकता बढ़ाने के प्रयास किए। उन्होंने जैविक खेती, अजैविक तथा जैविक संसाधनों के जरिये खेती करने को प्रोत्साहित किया जिसके अच्छे परिणाम दिखाई दिए। इससे यह भी उम्मीद जगी कि जैविक तरीकों के इस्तेमाल से मिट्टी की उपजाऊपन का क्षरण रोका जा सकेगा।
विशेषज्ञों की एक टीम ने किसानों में जैविक खेती के प्रति जागरुकता बढ़ाने की कोशिशें की। उन्हें जैविक और जैव संसाधनों का इस्तेमाल सिखाया गया जिसके आशातीत परिणाम दिखाई दिएइस सिलसिले में लखनऊ विश्वविद्यालय के ग्राम विकास संस्थान के सोशल वर्क विभाग ने एक परियोजना चलाई जिसके परिणामस्वरूप किसानों को अधिक उपज मिली और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आया। इण्टीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेण्ट नाम की इस परियोजना के एक भाग के रूप में एक इण्टीग्रेटेड न्यूट्रिशन मैनेजमेण्ट कार्यक्रम चलाया गया जिसके अन्तर्गत किसानों को जैविक सब्जियाँ उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और यहीं असाधारण सफलता मिली। रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी को जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करने के लिए जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है और कुछ पोषक तत्वों के सिवाय अन्य रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल मना है। कई फसल चक्र अपनाए जाते हैं जिससे मिट्टी को रसायनों से मुक्त किया जाता है और नुकसान की भरपाई के लिए जैविक उर्वरक और जैविक नियन्त्रण उपाय किए जाते हैं। जैविक खेती में उन्नत और जीएम किस्म के बीजों का इस्तेमाल मना है। किसान को सुनिश्चित करना होता है कि वो खुद अपने खेतों में ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करें और अपने आसपास के किसानों को भी ऐसा करने को कहें ताकि सिंचाई का पानी रसायन मुक्त रह सके। एजेंसियाँ इन उपायों के लागू करने पर कड़ाई से नजर रखती हैं और ये एजेंसियाँ ऐसी खेती एवं उसकी उपज को प्रमाणित करती हैं तथा उनके प्रमाणन को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है।
जैविक अनाजों के इस्तेमाल पर बराबर जोर दिया जा रहा है। इस प्रकार के अनाज रसायन मुक्त, सुरक्षित और स्वास्थ्यप्रद होते हैं। जैविक खेती से मिट्टी की उत्पादकता बहाल होती है। उसमें ताजगी आती है और किसानों एवं उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है। जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश के किसान लघु किसानों के वर्ग में आते हैं, उनके संसाधन सीमित हैं अतः उनके लिए जैविक खेती की शर्तों का कड़ाई से पालन करना मुश्किल पड़ता हैं।
समेकित कीटनाशक प्रबन्धन परियोजना में हानिकारक कीटों की संख्या सीमित रखी जाती है और अनेक तकनीकों का इस्तेमाल करके इनकी संख्या वृद्धि पर नजर रखी जाती है। कीट नियन्त्रण के अनेक तरीके अपनाए जाते हैं। कीट नियन्त्रण के लिए रसायनों का इस्तेमाल सिर्फ गिने-चुने अवसरों पर किया जाता है और तब बिल्कुल नहीं किया जाता जब फसलों में फूल और फल आने शुरू हो जाते हैं। इससे उपज रसायन मुक्त, सुरक्षित और स्वास्थ्यप्रद रहती है।
समेकित पोषण प्रबन्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत नियमित रूप से मिट्टी का परीक्षण किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि फसलों को समुचित पोषक तत्व मिलते रहें। इसके लिए रासायनिक, जैविक उर्वरकों की वृद्धि में सहायक जीवाणुओं का मिला-जुला तरीका अपनाया जाता है। नीम से तैयार यूरिया का इस्तेमाल करके यूरिया पर निर्भरता कम की जाती है और विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की सहायता से मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाता है। इस प्रकार के तरीके लम्बे समय तक अपनाए जाने से धीरे-धीरे रासायनिक उर्वरकों की जरूरत कम हो जाती है और आगे चल कर किसान बिना रसायनों के इस्तेमाल के सब्जियों की फसलें लेने लगते हैं।
इस परियोजना के प्रमुख अन्वेषक प्रोफेसर आरबीएस वर्मा थे, जो सोशल वर्क के प्रोफेसर हैं। वनस्पतिशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर पीएन शर्मा ने सह-प्रधानाचार्य का काम किया। सोशल वर्क डिमार्टमेण्ट के प्रोजेक्ट ऑफिसर डॉ. गुरनाम सिंह और वनस्पतिशास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर, डॉ. रश्मि राय भी इस परियोजना से सम्बद्ध थीं।
जहाँ तक मिट्टी में सुधार का प्रश्न है, शुरू-शुरू में खेतों में परीक्षण से जाहिर हुआ कि छोटे और मझोले किसानों के खेतों की मिट्टी में पोषक तत्व सबसे कम थे जबकि सीमान्त किसानों के खेतों में उपजाऊपन ज्यादा पाया गया। ध्यान देने की बात है कि छोटे किसान डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी), यूरिया और कुछ कम्पोस्ट खादों का इस्तेमाल करते हैं जबकि औसत दर्जे के किसान प्रायः यूरिया, डीएपी, जिंक, एनपीके जैसे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते रहते हैं। वे कम्पोस्ट खाद का भी इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर मार्जिनल फार्मर्स इस प्रकार के उर्वरक नहीं जुटा पाते, अतः वे पर्याप्त मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं कर पाते।
हर वर्ग के किसानों के खेतों की मिट्टी में फास्फेट की कमी पाई गई हालाँकि सभी किसान नियमित रूप से डीएपी का प्रयोग करते हैं। इसका मतलब यह है कि फास्फेट मिट्टी के कणों से चिपक जाता है और पौधे उसे प्राप्त नहीं कर पाते। अगर फास्फेट गलाने वाले बैक्टीरिया का भी इस्तेमाल किया जाए तो इस स्थिति में सुधार आ सकता है और पौधों को पोषण मिल सकता है। छोटे किसानों के खेतों में नाइट्रोजन की कमी पाई गई हालाँकि अनाज उपजाने के लिए वे यूरिया का इस्तेमाल करते हैं। इस कमी की भरपाई नीम के यूरिया से की जा सकती है। अगर घटिया प्रकार की कम्पोस्ट खाद का इस्तेमाल किया जाता है तो उससे मिट्टी का उपजाऊपन बरकरार नहीं रह पाता। सुझाव दिया गया कि किसानों को बेहतर मूल्यवर्धित खाद उपलब्ध कराई जाए ताकि मिट्टी का उपजाऊपन बरकरार रखा जा सके।
अधिकांश मामलों में अगली फसल उगाने की सिफारिश नहीं की गई हालाँकि किसान इस सलाह पर नहीं चल पाए और उन्होंने यूरिया और डीएपी का भी इस्तेमाल किया। भले ही यह इस्तेमाल नाकाफी था और मिट्टी की उत्पादकता में उपजाई जाने वाली हर फसल के साथ कमी आती रही। यह भी स्पष्ट दिखा कि कुछ तरह के जैविक उर्वरकों के नियमित प्रयोग से मिट्टी में पोषक तत्व बढ़ गए जो एक सकारात्मक बात थी।
मिट्टी की उत्पादकता बनाए रखने के लिए सुधारात्मक उपाय किए गए और किसानों को जीवाणुओं वाली खाद और नीम की यूरिया स्थानीय संसाधनों से जुटाकर इस्तेमाल करने की प्रशिक्षण दी गई। इसके परिणामस्वरूप मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ गई जिससे फसलों की उत्पादकता बढ़ी।
किसानों को सामान्य और ज्यादा कीमत वाली फसलें उगाने का प्रशिक्षण दिया गया। कुल मिलाकर लखनऊ जिले के विभिन्न गाँवों में 482 लाभार्थी थे। इन गाँवों में भीखमपुर, भौली, परवतपुर और मानपुर शामिल हैं। इन किसानों को कई मूल्यवर्धित फसलों की खेती का प्रशिक्षण दिया गया जिनकी बाजार में अच्छी माँग है और जिन्हें बेचकर वे अच्छा लाभ कमा लेते हैं। उन्हें ब्रोकोली, लाल बन्दगोभी, चेरी, टमाटर, मक्के और अन्य प्रकार की सब्जियों, भिण्डी, लौकी, बैंगन और ककड़ी की फसलें जैव नियन्त्रण तरीके से उगाने का प्रशिक्षण दिया गया। इसके अलावा कुछ किसानों ने औषधीय पौधों की भी खेती शुरू कर दी। इनमें हल्दी और घीकुआर की खेती शामिल है। किसानों को इन फसलों को प्रसंस्कृत करके बेचने का भी प्रशिक्षण दिया गया, जो किसान साधारण मक्के की खेती करने में सक्षम थे, उन्हें विदेशी मक्के की किस्में उगाने को प्रोत्साहित किया गया। इस प्रकार से उगाई फसलों को बेचकर किसानों में 300 प्रतिशत से ज्यादा लाभ कमाया। अनेक किसानों ने आगामी फसल-चक्र के दौरान ऐसी ही फसलें उगाने की इच्छा जाहिर की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ई-मेल : ratanmlal@gmail.com
मिट्टी के क्षरण में वृद्धि हो रही है और यह उर्वरकों के असन्तुलित इस्तेमाल का नतीजा है। साथ ही सिंचाई के लिए ज्यादा पानी का प्रयोग बढ़ रहा है जो कृषि वैज्ञानिकों के लिए चिन्ता का विषय बन रहा है। हाल ही में लखनऊ में राष्ट्रीय कृषि विज्ञान कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें ये चिन्ता साफ दिखी और वैज्ञानिकों ने कहा कि मिट्टी के स्वास्थ्य में क्षरण के कारण उपजाऊपन में कमी आई है और उगने वाले पौधे कमजोर दिखाई देते हैं जिसका साफ असर मानव और पशुओं के स्वास्थ्य पर दिखता है। अगर मिट्टी उत्पादकता की बहाली के निरन्तर उपाय न किए गए तो हरित क्रान्ति से हुए लाभों पर बुरा असर पड़ सकता है।
विशेषज्ञों की एक टीम ने इस सम्बन्ध में किसानों में जागरुकता बढ़ाने के प्रयास किए। उन्होंने जैविक खेती, अजैविक तथा जैविक संसाधनों के जरिये खेती करने को प्रोत्साहित किया जिसके अच्छे परिणाम दिखाई दिए। इससे यह भी उम्मीद जगी कि जैविक तरीकों के इस्तेमाल से मिट्टी की उपजाऊपन का क्षरण रोका जा सकेगा।
विशेषज्ञों की एक टीम ने किसानों में जैविक खेती के प्रति जागरुकता बढ़ाने की कोशिशें की। उन्हें जैविक और जैव संसाधनों का इस्तेमाल सिखाया गया जिसके आशातीत परिणाम दिखाई दिएइस सिलसिले में लखनऊ विश्वविद्यालय के ग्राम विकास संस्थान के सोशल वर्क विभाग ने एक परियोजना चलाई जिसके परिणामस्वरूप किसानों को अधिक उपज मिली और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आया। इण्टीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेण्ट नाम की इस परियोजना के एक भाग के रूप में एक इण्टीग्रेटेड न्यूट्रिशन मैनेजमेण्ट कार्यक्रम चलाया गया जिसके अन्तर्गत किसानों को जैविक सब्जियाँ उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और यहीं असाधारण सफलता मिली। रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी को जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करने के लिए जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है और कुछ पोषक तत्वों के सिवाय अन्य रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल मना है। कई फसल चक्र अपनाए जाते हैं जिससे मिट्टी को रसायनों से मुक्त किया जाता है और नुकसान की भरपाई के लिए जैविक उर्वरक और जैविक नियन्त्रण उपाय किए जाते हैं। जैविक खेती में उन्नत और जीएम किस्म के बीजों का इस्तेमाल मना है। किसान को सुनिश्चित करना होता है कि वो खुद अपने खेतों में ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करें और अपने आसपास के किसानों को भी ऐसा करने को कहें ताकि सिंचाई का पानी रसायन मुक्त रह सके। एजेंसियाँ इन उपायों के लागू करने पर कड़ाई से नजर रखती हैं और ये एजेंसियाँ ऐसी खेती एवं उसकी उपज को प्रमाणित करती हैं तथा उनके प्रमाणन को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है।
जैविक अनाजों के इस्तेमाल पर बराबर जोर दिया जा रहा है। इस प्रकार के अनाज रसायन मुक्त, सुरक्षित और स्वास्थ्यप्रद होते हैं। जैविक खेती से मिट्टी की उत्पादकता बहाल होती है। उसमें ताजगी आती है और किसानों एवं उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है। जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश के किसान लघु किसानों के वर्ग में आते हैं, उनके संसाधन सीमित हैं अतः उनके लिए जैविक खेती की शर्तों का कड़ाई से पालन करना मुश्किल पड़ता हैं।
समेकित कीटनाशक प्रबन्धन परियोजना में हानिकारक कीटों की संख्या सीमित रखी जाती है और अनेक तकनीकों का इस्तेमाल करके इनकी संख्या वृद्धि पर नजर रखी जाती है। कीट नियन्त्रण के अनेक तरीके अपनाए जाते हैं। कीट नियन्त्रण के लिए रसायनों का इस्तेमाल सिर्फ गिने-चुने अवसरों पर किया जाता है और तब बिल्कुल नहीं किया जाता जब फसलों में फूल और फल आने शुरू हो जाते हैं। इससे उपज रसायन मुक्त, सुरक्षित और स्वास्थ्यप्रद रहती है।
समेकित पोषण प्रबन्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत नियमित रूप से मिट्टी का परीक्षण किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि फसलों को समुचित पोषक तत्व मिलते रहें। इसके लिए रासायनिक, जैविक उर्वरकों की वृद्धि में सहायक जीवाणुओं का मिला-जुला तरीका अपनाया जाता है। नीम से तैयार यूरिया का इस्तेमाल करके यूरिया पर निर्भरता कम की जाती है और विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की सहायता से मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाता है। इस प्रकार के तरीके लम्बे समय तक अपनाए जाने से धीरे-धीरे रासायनिक उर्वरकों की जरूरत कम हो जाती है और आगे चल कर किसान बिना रसायनों के इस्तेमाल के सब्जियों की फसलें लेने लगते हैं।
इस परियोजना के प्रमुख अन्वेषक प्रोफेसर आरबीएस वर्मा थे, जो सोशल वर्क के प्रोफेसर हैं। वनस्पतिशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर पीएन शर्मा ने सह-प्रधानाचार्य का काम किया। सोशल वर्क डिमार्टमेण्ट के प्रोजेक्ट ऑफिसर डॉ. गुरनाम सिंह और वनस्पतिशास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर, डॉ. रश्मि राय भी इस परियोजना से सम्बद्ध थीं।
जहाँ तक मिट्टी में सुधार का प्रश्न है, शुरू-शुरू में खेतों में परीक्षण से जाहिर हुआ कि छोटे और मझोले किसानों के खेतों की मिट्टी में पोषक तत्व सबसे कम थे जबकि सीमान्त किसानों के खेतों में उपजाऊपन ज्यादा पाया गया। ध्यान देने की बात है कि छोटे किसान डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी), यूरिया और कुछ कम्पोस्ट खादों का इस्तेमाल करते हैं जबकि औसत दर्जे के किसान प्रायः यूरिया, डीएपी, जिंक, एनपीके जैसे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते रहते हैं। वे कम्पोस्ट खाद का भी इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर मार्जिनल फार्मर्स इस प्रकार के उर्वरक नहीं जुटा पाते, अतः वे पर्याप्त मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं कर पाते।
हर वर्ग के किसानों के खेतों की मिट्टी में फास्फेट की कमी पाई गई हालाँकि सभी किसान नियमित रूप से डीएपी का प्रयोग करते हैं। इसका मतलब यह है कि फास्फेट मिट्टी के कणों से चिपक जाता है और पौधे उसे प्राप्त नहीं कर पाते। अगर फास्फेट गलाने वाले बैक्टीरिया का भी इस्तेमाल किया जाए तो इस स्थिति में सुधार आ सकता है और पौधों को पोषण मिल सकता है। छोटे किसानों के खेतों में नाइट्रोजन की कमी पाई गई हालाँकि अनाज उपजाने के लिए वे यूरिया का इस्तेमाल करते हैं। इस कमी की भरपाई नीम के यूरिया से की जा सकती है। अगर घटिया प्रकार की कम्पोस्ट खाद का इस्तेमाल किया जाता है तो उससे मिट्टी का उपजाऊपन बरकरार नहीं रह पाता। सुझाव दिया गया कि किसानों को बेहतर मूल्यवर्धित खाद उपलब्ध कराई जाए ताकि मिट्टी का उपजाऊपन बरकरार रखा जा सके।
अधिकांश मामलों में अगली फसल उगाने की सिफारिश नहीं की गई हालाँकि किसान इस सलाह पर नहीं चल पाए और उन्होंने यूरिया और डीएपी का भी इस्तेमाल किया। भले ही यह इस्तेमाल नाकाफी था और मिट्टी की उत्पादकता में उपजाई जाने वाली हर फसल के साथ कमी आती रही। यह भी स्पष्ट दिखा कि कुछ तरह के जैविक उर्वरकों के नियमित प्रयोग से मिट्टी में पोषक तत्व बढ़ गए जो एक सकारात्मक बात थी।
मिट्टी की उत्पादकता बनाए रखने के लिए सुधारात्मक उपाय किए गए और किसानों को जीवाणुओं वाली खाद और नीम की यूरिया स्थानीय संसाधनों से जुटाकर इस्तेमाल करने की प्रशिक्षण दी गई। इसके परिणामस्वरूप मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ गई जिससे फसलों की उत्पादकता बढ़ी।
किसानों को सामान्य और ज्यादा कीमत वाली फसलें उगाने का प्रशिक्षण दिया गया। कुल मिलाकर लखनऊ जिले के विभिन्न गाँवों में 482 लाभार्थी थे। इन गाँवों में भीखमपुर, भौली, परवतपुर और मानपुर शामिल हैं। इन किसानों को कई मूल्यवर्धित फसलों की खेती का प्रशिक्षण दिया गया जिनकी बाजार में अच्छी माँग है और जिन्हें बेचकर वे अच्छा लाभ कमा लेते हैं। उन्हें ब्रोकोली, लाल बन्दगोभी, चेरी, टमाटर, मक्के और अन्य प्रकार की सब्जियों, भिण्डी, लौकी, बैंगन और ककड़ी की फसलें जैव नियन्त्रण तरीके से उगाने का प्रशिक्षण दिया गया। इसके अलावा कुछ किसानों ने औषधीय पौधों की भी खेती शुरू कर दी। इनमें हल्दी और घीकुआर की खेती शामिल है। किसानों को इन फसलों को प्रसंस्कृत करके बेचने का भी प्रशिक्षण दिया गया, जो किसान साधारण मक्के की खेती करने में सक्षम थे, उन्हें विदेशी मक्के की किस्में उगाने को प्रोत्साहित किया गया। इस प्रकार से उगाई फसलों को बेचकर किसानों में 300 प्रतिशत से ज्यादा लाभ कमाया। अनेक किसानों ने आगामी फसल-चक्र के दौरान ऐसी ही फसलें उगाने की इच्छा जाहिर की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ई-मेल : ratanmlal@gmail.com
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Post By: birendrakrgupta