अब मिट्टी की मूर्तियाँ ही हमारे पर्यावरण और नदियों को बचा सकती है। बीते सालों में प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों ने जिस तरह से हमारी नदियों के पानी को दूषित ही नहीं बल्कि उसे जहरीला तक किया है, उसने अब सरकारों को भी चिन्ता में डाल दिया है। अब तक पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले लोग ही इसमें चिन्ता कर रहे थे लेकिन अब कुछ सरकारों ने भी इससे चिन्तित होकर लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों में गणेशोत्सव और नवरात्री के दौरान विसर्जन के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस की जगह मिट्टी से बनी प्रतिमाएँ ही उपयोग करें। आमतौर पर देखा जाता है कि हर साल इन त्योहारों पर लोग अपने घरों में गणेश और दुर्गा प्रतिमाओं को स्थापित कर उनकी पूजा अर्चना करते हैं।
इन्हीं प्रतिमाओं को बाद में जल स्रोतों में विसर्जन कर देते हैं। मिट्टी से बनी प्रतिमाएँ तो आसानी से जल स्रोतों में घुल जाती हैं लेकिन प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी प्रतिमाएँ देर तक पानी में घुलती नहीं है, इतना ही नहीं इन्हें सुंदर और आकर्षक बनाने के लिए प्रतिमाएँ बनाने वाले कलाकार इन्हें रासायनिक रंगों से पेंट करते हैं। यह रसायन हमारे पर्यावरण के लिए बहुत ही नुकसानदायक होता है। इससे नदियों का पानी दूषित हो जाता है और इसका हानिकारक प्रभाव भी पानी में घुल जाता है। इतना ही नहीं इसका असर पानी के स्रोत और खासतौर पर नदियों में रहने वाले जलीय जीव–जन्तुओं पर भी पड़ता है। कई बार तो इनका जीवन ही खतरे में पड जाता है। अनजाने में ही सही पर हमारी आस्था कई जीव–जन्तुओं की जिन्दगी पर भारी पड़ती है।
मध्यप्रदेश में विभिन्न जिला मुख्यालयों पर अब इस बात के प्रयास किये जा रहे हैं कि इस बार लोग इन त्योहारों पर अपने घरों में मिट्टी की प्रतिमाएँ ही बिठाएँ ताकि नदियों और अन्य जल स्रोतों में उनके विसर्जन पर वहाँ के पर्यावरण को इससे कोई नुकसान नहीं हो सके। बीते कुछ सालों से पूरे प्रदेश में मिट्टी की प्रतिमाएँ बनना ही बंद हो चली थी। इनकी जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाओं ने ले लिया था जो अपेक्षाकृत बनाने में आसान, सस्ती, सुंदर, टिकाऊ होती है और एक साथ बड़ी तादाद में सांचे से बनाई जा सकती है। प्रशासन ने लोगों को इसके लिए जागरूक बनाने के किए कवायद शुरू कर दी है। त्योहारों से पहले इन दिनों बैठकें की जा रही है।
इनमें पंडितों से इस बात की पुष्टि कराई जा रही है कि भारतीय संस्कृति में ऐसे अवसरों पर पार्थिव पूजा यानी मिट्टी की प्रतिमाओं की पूजा की जाती रही है और प्लास्टर ऑफ पेरिस का कहीं कोई प्रावधान नहीं है। वहीं सार्वजनिक उत्सव समितियों से भी आग्रह किया जा रहा है कि वे इस बार सार्वजनिक मंचों पर ही मिट्टी से बनी प्रतिमाएँ ही उपयोग करें ताकि हमारे जल स्रोत साफ–सुथरे रह सकें। कहीं–कहीं विसर्जन स्थल भी बदले गए हैं तो कहीं–कहीं प्रतिबन्धात्मक कार्रवाइयों को भी अंजाम दिया गया है। कुछ जगह प्रशासन के अधिकारीयों ने प्लास्टर ऑफ पेरिस से प्रतिमाएँ बनाने वाले कलाकारों की ही बैठक बुलाकर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि वे अब मिट्टी की ही प्रतिमाएँ बनाएँगे। हालाँकि यह इतना आसान नहीं होगा लेकिन एक पहल तो शुरू हुई है। धीरे–धीरे ही सही लोगों ने इस दिशा में सोचना और कुछ बदलना तो शुरू किया ही है। फिलहाल बदलाव के यह संकेत भी सुखद ही लग रहे हैं। इसके लिए प्रशासन केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के निर्देशों का हवाला दे रहा है।
धर्म ग्रन्थों और खासतौर पर शिवमहापुराण में भी दरअसल मिट्टी की प्रतिमाओं की पूजा–अर्चना का ही विधान बताया गया है। उज्जैन में वैदिक कर्मकांड करवाने वाले शास्त्री भी बताते हैं कि धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह बात साफ हो जाती है कि हर जगह मिट्टी से बनी छोटी प्रतिमाओं की स्थापना का ही उल्लेख है। इसे पार्थिव पूजा का नाम दिया गया है, पार्थिव यानी मिट्टी से बनी। विसर्जित करने वाली कोई भी प्रतिमा मिट्टी के अलावा किसी अन्य धातु या रसायन से निर्मित नहीं हो सकती। पंडित सत्यनारायण शर्मा बताते हैं कि पार्थिव प्रतिमा पूजा का ही विधान है। शिवमहापुराण के विश्वेश्वर संहिता में स्पष्ट लिखा है कि पार्थिव पूजा ही की जानी चाहिए। इसमें पार्थिव पूजा और इसके जलाशयों में विसर्जन पर विस्तार से लिखा गया है।
देवास के एसडीएम धीरज श्रीवास्तव बताते हैं कि प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियाँ जलाशयों या नदियों में विसर्जित करने पर लम्बे समय तक गलती नहीं है, गल भी जाए तो उसके रंगों में मिला रसायन उस पानी को प्रदूषित करते हैं। इससे जलीय जन्तुओं को काफी नुकसान भी होता है। हमने शासन के निर्देश पर मूर्ती बनाने वाले कलाकारों को हिदायत दी है, इसके बावजूद बनाई गई या बाजार में प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाएँ मिली तो सख्ती के साथ बंद करायेंगे। हमने सामाजिक संगठनों के साथ भी बैठक कर उन्हें इस आशय से अवगत कराया है।
प्रतिमाओं का निर्माण करने वाले प्रखर दास बताते हैं कि मिट्टी की प्रतिमाएँ बनाना बहुत महँगा और श्रम साध्य है। बाजारों में सस्ती प्रतिमाएँ ज्यादा चलती है, प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियाँ दिखती भी सुंदर है और आसानी से बनती है। यह सस्ती पड़ती है और मुनाफा भी ठीक–ठीक मिल जाता है। हमें प्रदूषण के बारे में पता नहीं। हम तो सालों से इसी तरह बनाते और बेचते रहे हैं। मूर्तियों के बहाने कुछ पैसा हम गरीबों को मिल जाया करता है। उन्होंने बताया कि सवा सौ रूपये की कीमत में 20 किलो प्लास्टर ऑफ पेरिस की बोरी आती है और इससे 40 मूर्तियाँ तक बन जाती है जबकि 20 किलो मिट्टी में 20 मूर्तियाँ ही बन सकती हैं। मिट्टी की मूर्ति में अन्य सामान भी मिलाना पड़ता है। इनके बनाने और सूखने में काफी समय लगता है। अब त्यौहार में समय कम बचा है, कैसे करें?
नदियों को प्रदूषण से बचाने की इस मुहिम का पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले जन संगठनों तथा पर्यावरणविदों ने भी स्वागत किया है। पर्यावरणविद बताते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक हर साल त्योहारों के दौरान एक औसत शहर से लगे जलाशयों में करीब 10 हजार से ज्यादा छोटी–बड़ी प्रतिमाएँ विसर्जित की जाती हैं। इनसे अघुलनशील और रासायनिक पदार्थों के कारण पानी में प्रदूषण की मात्रा बढ़ जाती है। पर्यावरण मन्त्रालय की रिपोर्ट कहती है कि केवल चम्बल नदी में ही इसके रोके जाने से तीन सालों में ही टीडीएस 350 मिलीग्राम प्रतिलीटर घटा है जबकि पीएच मान भी करीब 01 प्रति ग्राम तक कम हुआ है। इससे जलीय जीवन को भी बहुत मदद मिली है। मध्यप्रदेश में अब और भी कुछ नदियों तथा जलाशयों में मूर्ति विसर्जन रोका जाएगा।
संस्कृति के पैरोकार भी मानते हैं कि भारतीय संस्कृति में नदियों की पवित्रता पर बहुत जोर दिया गया है। विभिन्न धर्म ग्रन्थों में नदियों की अर्चना और उनके पानी को अमृत तुल्य माना गया है। हिन्दू जीवन दर्शन में तो एक व्यक्ति के जीवन में पड़ने वाले उत्सव और संस्कार भी नदियों के किनारे ही किये जाते रहे हैं। अब भी विभिन्न अंचलों में नदियों को माँ का दर्जा देकर उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है, मन्नत माँगी जाती है। नदी के आस-पास रहने वाले ही नहीं बल्कि दूर रहने वाले भी लोग हर सुख-दुःख में नदियों की शरण में जाते हैं। हमारे यहाँ तीर्थ यात्राएँ भी अधिकतर नदियों के लिए ही की जाती हैं।
तीर्थ यात्राएँ हमें नदियों से जोड़ती है। चार धाम तीर्थ की अवधारणा दरअसल प्रकारांतर से नदियों की यात्राएँ ही हैं। उत्तर में गंगा के उद्गम से उसका पानी घर तक लाने की परम्परा रही है। नदियों के किनारे ही बारह सालों में एक बार भरने वाला सिंहस्थ का मेला भी भरता है। इसका अपना महत्व है और अपनी धार्मिक मान्यताएँ पर सच यही है कि हमारा जन–जीवन हमेशा से नदियों से जुड़ा रहा है और यह सिलसिला सदियों से इसी तरह चलता रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा लेकिन अब इसमें सबसे बड़ी परेशानी यह आ रही है कि हमारी जीवन रेखा मानी जाने वाली नदियाँ ही अब बीमार रहने लगी है बल्कि कहें कि गम्भीर बीमारी के दौर से गुजर रही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
आश्चर्य की बात यह है कि हम इन नदियों की सेहत को चुस्त–दुरुस्त करने की जगह उसके घावों को और हरा कर रहे हैं। हम सेहत सुधारने के प्रयास की जगह और ज्यादा बिगाड़ने पर तुले हुए हैं। यह कोई एक नदी या एक शहर की बात नहीं है हमारे देश की अधिकांश नदियाँ आज इसी दौर से गुजर रही है। तो आइये, आप और हम मिलकर संकल्प लें कि नदियों और जलाशयों को इससे मुक्त करेंगे।
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