हम मिट्टी को यों ही हलके में लेते रहेंगे, तो यह तसवीर नहीं बदलने वाली। इसका खामियाजा आखिरकार हमें ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि मिट्टी हमारा साथ छोड़ रही है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आने वाले दिनों में हमें न खाने को अन्न मिलेगा, न सोने को घर। मिट्टी का निर्माण चूंकि हजारों वर्षों में होता है, ऐसे में आने वाली कई पीढ़ियां भुखमरी झेलेंगी और मिट्टी ही हमें मिट्टी में मिला देगी।
जीवन के मूल संसाधनों को लेकर कही गई पुरानी कहावतें आज के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सही लगती हैं। मिट्टी भी उनमें से एक है। माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदें मोय, इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूगी तोय। यह दोहा आज सटीक बैठ रहा है। मिट्टी के मोल अब पुराने नहीं रहे। यह भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तरह विलुप्त होती जा रही है। यह संकट बड़ा है, क्योंकि मिट्टी से जुड़े पेट और छत के सवाल हैं। दोनों के कष्ट का मतलब है, हमारे अस्तित्व पर खतरा। मिट्टी की पहली पहचान खेती में रही है। मिट्टी से घर-मकान बनाने का काम बहुत बाद में शुरू हुआ हो, मगर खेती तो मिट्टी पर ही निर्भर रही है। लेकिन आज हालत बुरी है। ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में स्थिति और भी खराब है, जहां पहले ही भुखमरी फैल रही है। वहां जनसंख्या दबाव, पानी की अस्थिरता, भू-क्षरण व वन रहित क्षेत्र ज्यादा हैं। भारत में ही करीब 18 करोड़ हेक्टेयर भूमि मिट्टी संकट से गुजर रही है।
मिट्टी के खतरे के पीछे वनों के हालात, अति चराई, वन भूमि का खेती में परिवर्तन, सीमांत भूमि का अति उपयोग आदि रहे हैं। पानी के साथ बह जाने के कारण दुनिया भर में दो अरब हेक्टेयर मिट्टी खराब हो चुकी है। दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की मांग जिस तरह बढ़ रही है, उसी गति से मिट्टी के हालात खराब होते जा रहे हैं। दुनिया की आबादी 2030 में 8.5 अरब और 2050 में 10 अरब हो जाएगी और इसका बड़ा हिस्सा अफ्रीका और एशिया में होगा। भारत की आबादी बढ़ रही है, जबकि कृषि उत्पादन लगभग स्थिर है। अब भी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का 66 वां स्थान है। सच्चाई यह है कि अपने देश में जितनी जमीन पर खेती होती है, उसके आधे से अधिक की मिट्टी खराब है। ऐसे में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि 2050 में हमारी बढ़ी हुई आबादी का भूख मिटाने का इंतजाम कैसे हो पाएगा।
मिट्टी प्रबंधन आज हमारे लिए बड़ी चुनौती है, जिसे दुर्भाग्य से हम समझ नहीं रहे। हमने कभी इस मुद्दे को गंभीरता से लिया ही नहीं। लिहाजा जरूरी है कि एक बार पूरे देश की मिट्टी की मौजूदा हालत की व्यापक जांच करा ली जाए। अपने देश में 5,334 टन मिट्टी हर वर्ष खत्म होती जा रही है। इसमें से लगभग 30 प्रतिशत मिट्टी तो सीधे समुद्र में चली जाती है और 61 फीसदी मिट्टी इधर-उधर स्थानांतरित हो जाती है। सबसे ज्यादा संवेदनशील काली मिट्टी का इलाका है, जबकि दूसरा स्थान हिमालय के शिवालिक का है। हिमालय के मैदानी इलाके और दून घाटी में यह क्षरण 20 टन प्रति हेक्टेयर है।
राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग ब्यूरो, नागपुर और केंद्रीय मृदा एवं जल प्रशिक्षण शोध संस्थान, देहरादून के संयुक्त प्रयास द्वारा देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के मिट्टी क्षरण का अध्ययन किया गया। इस शोध के बाद पाया गया कि नागालैंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में मिट्टी का सर्वाधिक क्षरण हो रहा है, जबकि हरियाणा और पंजाब में यह कम है। मिट्टी के क्षरण से धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, गन्ना आदि के उत्पादन पर प्रतिकूल और नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसमें भी सर्वाधिक असर गन्ना और सरसों के उत्पादन पर पड़ा है।
दरअसल रीयल स्टेट सेक्टर के दिनोंदिन बढ़ते जाने का भी मिट्टी पर असर पड़ा है, क्योंकि तमाम निर्माण कार्यों में ईंटों का इस्तेमाल होता है और ईंटें मिट्टी से बनती हैं। एक ईंट में लगभग दो किलो मिट्टी लगती है, और इस कार्य के लिए सबसे अच्छी मिट्टी का उपयोग किया जाता है। जाहिर है, हम मिट्टी को यों ही हलके में लेते रहेंगे, तो यह तसवीर नहीं बदलने वाली। इसका खामियाजा आखिरकार हमें ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि मिट्टी हमारा साथ छोड़ रही है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आने वाले दिनों में हमें न खाने को अन्न मिलेगा, न सोने को घर। मिट्टी का निर्माण चूंकि हजारों वर्षों में होता है, ऐसे में आने वाली कई पीढ़ियां भुखमरी झेलेंगी और मिट्टी ही हमें मिट्टी में मिला देगी।
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