मिनरल,मटका और म्युनिसिपलिटी चुनाव

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चुनाव कर्मचारियों को पानी पिलाने में जायेंगे सात करोड़ !!


इस दृष्टि से मटके व सुराही में रखा पानी.. फ्रिज, आरओ से शोधित व बाजार में बिकने वाले बोतल बंद पानी की तुलना में एक मायने में ज्यादा अनुकूल होता है। किंतु बोतल गर्व है, पैसा है, बाजार है। अतः चुनाव आयुक्त महोदय ने भी उसे ही तरजीह दी है। अच्छा तो यह हो कि लोग अपने पानी का इंतजाम खुद करें और जनता का पैसा बचायें। और कुछ नहीं तो चुनकर आनेवाले पार्षद ही आनेवाली गर्मी में जनता की गाढी कमाई से खरीदे गये इन मटकों को भरकर पानी का प्याऊ लगायें। ..... तब शायद अफसरों द्वारा किए इस खर्च का प्रायश्चित हो जाये। क्या कोई करेगा ??

12 हजार बूथ, 80 हजार कर्मचारी, 24 हजार मटके और 48 हजार ग्लास। अखबारी सूत्रों की मानें तो अंदाजन प्रति कर्मचारी 10 रुपये के हिसाब से लगभग 80 लाख रुपये का ही मिनरल वाटर, करीब एक करोड़ के ग्लास, 5 करोड़ के मटके। इसमें मटके पर रखने का ढक्कन व नीचे टिकाने के लिए प्रयोग आने वाली ढेबरी की कीमत भी शामिल है। अब इसमें मटकों में भरे जाने वाले लाखों लीटर पानी की कीमत तथा लाने-लेजाने में लगने वाले ईंधन, गाड़ी और कर्मचारियों पर खर्च और जोड़ लें, तो इस बार दिल्ली म्युनिसिपलिटी के चुनाव में करीब सात करोड़ खर्च कर पानी पिलाने की योजना है। यह खर्च सिर्फ चुनाव की ड्यूटी में लगने वाले कर्मचारियों को पानी पिलाने के लिए है। इसमें मतदाताओं को पानी पिलाने के बारे में कोई विचार नहीं हैं। हो भी तो क्यूं, मतदाता तो पानी के बिल में जबरदस्त बढोत्तरी कर राजनेताओं द्वारा पिलाये पानी से पहले ही अजीज आ चुका है !

बच सकते हैं सात करोड़ – खैर ! 10 मार्च, दिन-शनिवार को दिल्ली के सभी प्रमुख अखबारों ने यह खबर इस गौरव के साथ छापी कि राज्य चुनाव आयोग इस बार चुनाव कर्मचारियों को मिनरल वाटर पिलायेगा। गौरतलब है कि पीने की पानी की व्यवस्था करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी में आता है। चिंता यह है कि किसी अखबार ने इसके खर्च पर सवाल नहीं उठाया। नौ की लकड़ी नब्बे खर्च। जब कि इस सात करोड़ को इतने मात्र से ही बचाया जा सकता है कि कर्मचारी अपने घरों से पीने के पानी का इंतजाम खुद करके जायें। दिल्ली के इस चुनाव में ड्यूटी में लगने वाले कर्मचारी यह काम सहजता से कर सकते हैं, क्योंकि वे बहुत दूर से नहीं आते और नहीं तो चुनाव बूथ बने स्कूलों के चौकीदारों को कहिए तो वे ही पानी पिला कर जनता की गाढी कमाई का सात करोड़ बचा देंगे। लेकिन यह बात सुनने की फुर्सत किसे है ! यह सुनना शायद अफसरों के लिए घाटे की बात हो। ......

क्या गंदा पानी पीते हैं हमारे विद्यार्थी ? - उक्त एक बात से निकला एक बड़ा सवाल यह है कि क्या देश की राजधानी के स्कूलों में पीने योग्य पानी मुहैया नहीं है ? क्या राजधानी के विद्यार्थी जो पानी पीते हैं, वह अस्वच्छ है ? यदि ऐसा है, तो और भी गड़बड़ है। उल्लेखनीय है कि स्कूलों में ही वोटिंग बूथ बनाये गये हैं। इनमें भी ज्यादातर बूथ म्युनिसिपलिटी और महानगरपालिका के स्कूलों में ही है। प्रश्न यह भी है कि भारत का भविष्य कहे जाने वाली पीढी को जो पानी हम पिलाते हैं, वह पानी चुनाव कर्मचारी क्यों नहीं पी सकते ? उनके लिए पानी की अलग व्यवस्था के नाम पर जनता के पैसे की बर्बादी क्यों ?

दूसरी बात मटकों में पानी भरने और उसे बूथ तक पहुंचाने को समस्या बताने तथा मटके के पानी की शुद्धता पर म्युनिसिपलिटी के अफसरों द्वारा उठाये गये सवाल की है। इसी शुद्धता के नाम पर चुनाव आयुक्त राकेश मेहता ने चुनाव कर्मचारियों के पीने हेतु मिनरलवाटर मुहैया कराने के निर्देश दे दिए हैं। जिसकी लागत प्रतिव्यक्ति 10 रुपये बताई गई है। .... तो फिर 5 करोड़ के मटके और उसमें भरे जाने वाले पानी का क्या होगा ? जवाब आया है कि अब खरीद लिए तो खरीद लिए, मटके का पानी हाथ धोने के काम आयेगा। यह दर्शाता है कि हमारे तंत्र को न लोकविज्ञान की समझ है और न लोकधन की परवाह।

मटके का लोकविज्ञान भी भूला चुनाव आयोग - वे भूल गये कि सुराही – मटके का पानी सदियों से भारत देश की सेहत और संस्कृति में योगदान करता रहा है। लोक विज्ञान यह है कि मिट्टी जब पानी के संपर्क में आती है, तो जैव-रासायनिक क्रिया शुरु हो जाती है। इस प्राकृतिक क्रिया के परिणाम स्वरुप प्रदूषित पानी के भीतर से नाइट्रेट बाहर आ जाते हैं। मटके में रखे पानी रखने का यही लाभ होता है। पानी से बाहर आये नाइट्रेट नीचे बैठ जाते हैं। जब मटके को भीतर से धोया जाता है, तो फेंके गये पानी के साथ वे बाहर चले जाते हैं। यह क्रिया प्राकृतिक तौर पर फ्रिज, प्यूरिफायर या आरओ में नहीं होती। मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले बाजारू पानी की गुणवत्ता भी इस नाइट्रेट मुक्ति की गारंटी नहीं देती। अलबत्ता उनमें मौजूद कीटनाशक व प्रीजर्वेटर यानी उसे कुछ समय तक खराब न होने देने के लिए डाले गये रसायन लगा तार उपयोग करने पर लीवर, किडनी व अन्य अंगों के बीमार होने की गारंटी जरूर देते हैं।

बोतलों का खतरा कोई इन्हें याद दिलाये – वर्ष - 2003 में विज्ञान पर्यावरण केंद्र की उस रिपोर्ट को हम इतनी जल्दी क्यों भूल जाते हैं, जिसमें सर्व श्रेष्ठ मानी जाने वाले एक कंपनी के नमूनों में भी कीटनाशकों की मात्रा तय मानक से 60-70 गुना अधिक पाई गई थी। उसी रिपोर्ट में बताया गया था कि दिल्ली और आसपास बेची जा रही 70 प्रतिशत बोतलों व कैनों में बंद पानी धरती से निकाला जाता है।

गौरतलब है कि दिल्ली के स्थानीय भूजल की गुणवत्ता पेयजल की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। बावजूद इसके नजफगढ., पूर्वी दिल्ली, साहिबाबाद व आसपास के इलाकों में 250 से ज्यादा बॉटलिंग संयंत्र हैं। देश में 20 हजार से अधिक बॉटलिंग संयंत्र व बाजार में 100 से अधिक जाने-पहचाने ब्रांड होने का अनुमान है। 400 से अधिक लोकल ब्रांड बोतलें व पाउच धड़ल्ले से बिक रहे हैं। रेलवे लाइनों के किनारे पुरानी बोतलों में भर कर बेच रहे ठंडे पानी की बिक्री हो रही है, सो अलग। होटलों में ही बड़े पैमाने पर हजारों कैनों की प्रतिदिन आपूर्ति है। पैक्ड पानी आज भारत में 3000 करोड़ से अधिक का करोबार है। सालाना औसत वृद्धि आश्चर्यजनक रूप से 50 से 60 फीसदी है। गरीब देश कहे जाने के बावजूद भारत आज पैक्ड पानी उपयोग करनेवालों की पहले 10 की सूची में लगातार ऊपर जा रहा है।

बायोसैनिटाइजर पर काम करने वाले मुंबई के विशेषज्ञ जनक दफ्तरी बताते हैं कि ये नाइट्रेट ही है जो शरीर में जाकर खुद तो जम ही जाते हैं; अपने संपर्क में आनेवाले दूसरे रसायन व कोशिकाओं को भी चिपका लेते हैं। परिणामस्वरुप उस स्थान की मोटाई बढने, वहां ट्यूमर जैसा बनने आदि के मामले सामने आते हैं। कैंसर के उद्भव में भी यह तत्व सहायक होता है। इस दृष्टि से मटके व सुराही में रखा पानी.. फ्रिज, आरओ से शोधित व बाजार में बिकने वाले बोतल बंद पानी की तुलना में एक मायने में ज्यादा अनुकूल होता है। किंतु बोतल गर्व है, पैसा है, बाजार है। अतः चुनाव आयुक्त महोदय ने भी उसे ही तरजीह दी है। अच्छा तो यह हो कि लोग अपने पानी का इंतजाम खुद करें और जनता का पैसा बचायें। और कुछ नहीं तो चुनकर आनेवाले पार्षद ही आनेवाली गर्मी में जनता की गाढी कमाई से खरीदे गये इन मटकों को भरकर पानी का प्याऊ लगायें। ..... तब शायद अफसरों द्वारा किए इस खर्च का प्रायश्चित हो जाये। क्या कोई करेगा ??...

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