कुछ लोग खुद को सुविधा-संपन्न बनाने में जुटे रहते हैं तो कुछ लोग पूरे समाज की फिक्र करते हैं और अपने आसपास रहने वालों को रोजी-रोटी से जोड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों को समाज का भी भरपूर प्यार मिलता है। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है सर्वहितकारी शिक्षा प्रसार समिति ने। इस समिति ने न सिर्फ लोगों में शिक्षा के प्रति ललक पैदा की बल्कि उन्हें गांव में रहते हुए रोजगार से जुड़ने की ट्रेनिंग दी। इस संस्था के सहयोग से उत्तर प्रदेश के मथुरा के दर्जनभर से अधिक गांवों के युवक रोजगार से जुड़ गए हैं। उन्हें रोजी-रोटी के लिए शहर नहीं जाना पड़ता है बल्कि वे अपने गांव में ही रहकर बेहतर जिंदगी जी रहे हैं। इस संस्था ने बालिका शिक्षा के क्षेत्र में भी बेहतर काम किया है।अब गांवों में भी शहरों जैसी सुविधाओं का विकास हो रहा है । सरकार गांवों को अधिक से अधिक सुविधा संपन्न बनाना चाहती है ताकि ग्रामीणों को किसी भी जरूरत के लिए शहरों का चक्कर न काटना पड़े। सरकार के इस प्रयास में कुछ स्वयंसेवी संगठनों की ओर से भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा रही है। ये संगठन गांवों के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने के नए-नए साधन बता रहे हैं। सरकारी योजनाओं और संगठनों की ओर से जागरूकता के लिए किए जा रहे प्रयासों का ही परिणाम है कि अब ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन थमता नजर आ रहा है। उत्तर प्रदेश के मथुरा की सर्वहितकारी शिक्षा प्रसार समिति ऐसी ही संस्थाओं में शामिल है जिसके प्रयासों के चलते गांवों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं।
इस संस्था के सदस्यों ने घर-घर जाकर अभिभावकों को बालिका शिक्षा के फायदे बताए, उन्हें समझाया कि उनकी बेटियों के पढ़ी-लिखी होने से क्या फायदे होंगे। इस दौरान जिन अभिभावकों ने खुद की रोजी-रोटी की बात की, उन्हें रोजगार के रास्ते भी दिखाए। गांव में रहते हुए किस तरह स्वरोजगार से जुड़ा जा सकता है, यह राह भी दिखाई। किसानों को किसान क्लब के जरिए एकत्रित कर व्यावसायिक खेती के प्रति जागरूक किया। संस्था के प्रयास से करीब दो दर्जन से अधिक गांवों के लोग आज स्वरोजगार से जुड़े हैं। इस संस्था को किस तरह से नाबार्ड से प्रोत्साहन मिला और इसने लोगों को रास्ता दिखाया, यह जानते हैं सर्वहितकारी शिक्षा प्रसार समिति के सचिव मुकेश कुमार सिंह से उन्हीं की जुबानी।
प्रश्न- मुकेश जी आपने परास्नातक तक की शिक्षा ग्रहण की। आप चाहते तो शहर जाकर नौकरी कर सकते थे। फिर नौकरी करने के बजाय गांव से कैसे जुड़ गए?
उत्तर- मैंने गांव के लोगों का दर्द बचपन से देखा है। मैं चाहता हूं कि गांव में रहने वाला हर व्यक्ति गांव में ही रहकर रोजगार हासिल करे। उसे रोजी-रोटी के लिए शहरों पर आश्रित न होना पड़े। इसके लिए स्वरोजगार का रास्ता अपनाया जा सकता है। हमने समाजशास्त्र में परास्नातक की शिक्षा ग्रहण की, लेकिन नौकरी नहीं की। अब हम लोगों को गांव में रहकर रोजगार से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। साथ ही गांव-गांव के अभिभावकों से यह अपील कर रहे हैं कि वह अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाएं क्योंकि शिक्षा से ही समाज का विकास होगा और समाज के विकास से ही देश का विकास संभव है। इसके साथ ही संस्था के जरिए बेरोजगारों को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण भी दे रहे हैं ताकि लोग गांव में ही रहकर जीविकोपार्जन कर सकें।
प्रश्न- आपने इस संस्था की शुरुआत कैसे की?
उत्तर- सामाजिक कार्यों को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। पहले हमारे बड़े भाई देवराज सिंह नेहरु युवा केंद्र से जुड़े थे। उनके नेतृत्व में हम सभी लोग विभिन्न कार्यों में हिस्सा लेते थे। कभी खेलकूद और कभी प्रशिक्षण शिविर का आयोजन होता था। कुछ समय के बाद उनकी नौकरी शिक्षा विभाग में लग गई और वह गांव से दूर चले गए। चूंकि मैं पहले से ही इस क्षेत्र में काफी रुचि लेता था, इसलिए उनके जाने के बाद अपने आप को पूरी तरह से सक्रिय कर लिया। संस्था के सभी सदस्यों का भरपूर सहयोग मिला। सभी के सहयोग से हम संस्था के माध्यम से सामाजिक कार्य कर रहे हैं। बेरोजगारों को स्वरोजगार की शिक्षा दे रहे हैं। एड्स, पल्स पोलियो सहित सरकार की ओर से चलने वाले विभिन्न अभियानों में संस्था के सदस्य पूरी भागीदारी निभा रहे हैं।
प्रश्न- आपने संस्था के कार्यों की शुरुआत कैसे की? अपने अनुभव के बारे में बताएं?
उत्तर- पहले हम अपने गांव तक ही सीमित थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों का सहयोग मिला। वर्ष 1992 में हमने चार गांवों में स्वयंसहायता समूह की स्थापना की। ग्राम पंचायत कराहरी, इसौली, जुन्नार, टैटी आदि में स्वयंसहायता समूह से जुड़े लोगों को ऋण दिलाया। समूह से जुड़े लोग धागे व अन्य वस्त्रों के कारोबार से जुड़ गए। वे गांव-गांव जाकर सामान बेचते और कमाई करने लगे। यह देखकर आसपास के गांवों के लोगों में भी जागरूकता आई और कुछ ही दिनों में स्वयंसहायता समूह की संख्या 50 से अधिक हो गई, लेकिन इसी दौरान यह झटका भी लगा। समूह से जुड़े कुछ लोग डिफाल्टर भी हो गए।
प्रश्न- समूह से जुड़े लोगों के डिफाल्टर होने के पीछे क्या कारण था?
उत्तर- दरअसल काम कोई भी हो, यदि वह मन लगाकर और योजनाबद्ध तरीके से न किया जाए तो उसमें सफलता मिलना संभव नहीं होता है। सभी समूहों को एक साथ प्रशिक्षण दिया गया था। यह प्रशिक्षण किसी तरह का तकनीकी नहीं था बल्कि संस्था से जुड़े लोगों की ओर से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया गया था। संस्था ने सभी को निस्वार्थ भाव से एक रास्ता दिखाया था, ताकि वे रोजगार के लिए शहरों पर आश्रित न हो सकें। जहां तक लोगों के डिफाल्टर होने का सवाल है तो हर गांव में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनकी सोच खराब होती है, जो बैंक से लिए गए पैसे को समयबद्ध तरीके से वापस नहीं करना चाहते। वे बैंक से मिले पैसे को अपना पैसा समझ लेते हैं। यही सबसे बड़ी चूक होती है। बैंक से लिए हर ऋण को उधारी का पैसा समझना चाहिए और ऋण लेने से पहले यह तय कर लेना चाहिए कि उसे ब्याज सहित लौटाना है। डिफाल्टर होने वालों के पीछे यही मानसिकता थी कि उन्होंने पैसा लौटाने में कोताही बरती। एक और बड़ी समस्या थी - वह थी मशीनीकरण का बढ़ता प्रभाव।
प्रश्न- बदलते परिवेश में मशीनीकरण को तो बेहतर माना जाता है। मशीनीकरण का समूहों पर किस तरह से प्रभाव पड़ा?
उत्तर- मैं मशीनीकरण के विरोध की बात नहीं करता और न ही यह कह रहा हूं कि मशीनीकरण का विकास गलत बात है, लेकिन मशीनों का जितना फायदा मिला है कुछ क्षेत्रों में, उतना ही नुकसान भी हुआ है। कोई भी उपलब्धि हो तो उसका कुछ नुकसान तो उठाना ही पड़ता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो समूह से जुड़े तमाम लोग पहले हथकरघे का काम करते थे। इससे उन्हें रोजगार मिला हुआ था, लेकिन राया, मथुरा कस्बे में इलेक्ट्रॉनिक खड्डी लग गई। ऐसे में समूह के हथकरघे बंद हो गए। क्योंकि इलैक्ट्रिक हथकरघे में कम समय में ज्यादा सूत काता जाता था। हां, इतना जरूर हुआ कि इलैक्ट्रिक हथकरघे का चलन बढ़ने के बाद जो लोग दूसरे काम में जुट गए, वे आज भी अच्छी आमदनी कर रहे हैं। जो लोग भाग्य के भरोसे बैठ गए, वे बेरोजगार हो गए। मेरा सिर्फ यही कहना है कि मशीनीकरण की वजह से यदि किसी का रोजगार छिन जाता है तो उसे भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए बल्कि उसे अपनी सुविधा के अनुरूप दूसरे कारोबार की तलाश करनी चाहिए।
प्रश्न- जो समूह चलते रहे, उन्हें गांव में रहते हुए किस तरह से रोजगार से जोड़ा गया?
उत्तर- जिन लोगों ने काम के प्रति रुचि दिखाई, वे विभिन्न तरह से कुटीर कामधंधे से जुड़े। किसी ने परचून की दुकान खोल ली तो किसी ने साइकिल की दुकान और किसी ने वाशरमैन की। इस तरह समूह से जुड़े लोगों को जगह-जगह जरूरत के हिसाब से दुकानें खुलवाई गईं। ये लोग अभी भी अपनी दुकानें चला रहे हैं। गांव में ही रहकर जीविकोपार्जन कर रहे हैं।
प्रश्न- आपने किसानों के लिए भी काफी कुछ किया है। किसानों के बीच काम करते हुए कैसा अनुभव रहा?
उत्तर- किसानों के बीच काम करने का पूरा श्रेय नाबार्ड के तत्कालीन सहायक महाप्रबंधक डॉ. ओमप्रकाश जी को जाता है। उस समय अखबार में अक्सर नाबार्ड की ओर से चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों की खबरें आती थी। उनकी सक्रियता देख हमने उनसे मुलाकात की और किसानों के बीच काम करने की अपनी इच्छा जाहिर की। डॉ. ओमप्रकाश जी से जुड़ने के बाद मैं गांव-गांव जाकर किसानों को किसान क्लब बनाने के लिए प्रेरित करने लगा। किसान तरह-तरह के सवाल करते। जिन सवालों का जवाब मैं नहीं दे पाता, उसे बाद में डॉ. ओमप्रकाश जी से पूछता और फिर किसानों के बीच जाकर उन्हें समझाता। इस तरह किसान हमारी बात समझने लगे। किसान क्लब बना। गांव में किसानों के बीच शिविर का आयोजन होने लगा। किसान क्लब बनने के बाद दूसरे विभाग भी सक्रिय हुए। कृषि विभाग, बागवानी, पशुपालन सभी विभागों के अफसर किसान क्लबों के संपर्क में रहने लगे। इस तरह किसान क्लब को सरकार की ओर से चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का लाभ मिलने लगा। पहले दो गांवों में किसान क्लब गठित हुए और फिर आसपास के दर्जनभर से अधिक गांवों में किसान क्लब गठित हो गए।
प्रश्न- किसान क्लब से जुड़े लोगों को किस तरह से कारोबार से जोड़ा गया? किस तरह से उन्हें अधिक मुनाफा दिलाया गया?
उत्तर- हमारे इलाके में ज्यादातर लोग परंपरागत कारोबार से जुड़े थे। किसान क्लब गठित होने के बाद नाबार्ड के तत्कालीन सहायक महाप्रबंधक डॉ. ओमप्रकाश किसानों से व्यक्तिगत रूप से मिले। उन्हें समझाया कि किस तरह से औषधीय एवं औद्योगिक खेती से जुड़ सकते हैं। इसके बाद संस्था के सदस्यों ने भी इसमें पूरी तरह से सहयोग किया। गांव-गांव प्रशिक्षण शिविर आयोजित होने लगे। किसानों में जागरूकता आई। फिर किसान परंपरागत खेती के अलावा फूलों की खेती, आलू की खेती व बहुफसलीय खेती से जुड़ गए। ऐसे में लोग खेत से अनाज के साथ ही पैसा भी निकालने लगे। जब आमदनी बढ़ी तो खेती के प्रति और ललक पैदा हुई। कुछ किसानों ने औषधीय खेती की ओर रुख किया और मुनाफा कमाया।
प्रश्न- आप लोगों ने परंपरागत खेती करने वाले किसानों को औषधीय खेती के अलावा और किस चीज से जोड़ा, जिससे उनकी आमदनी बढ़ी।
उत्तर- किसानों को यह बताया गया कि वे खेती के साथ ही पशुपालन कर सकते हैं। पशुपालन से फायदा यह होगा कि उन्हें एक तरफ दूध बेच कर आमदनी मिलेगी तो दूसरी तरफ गोबर की खाद भी मिलेगी यानी दोहरा फायदा। इससे खेत में अधिक रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं करना पड़ेगा। इसी तरह मधुमक्खी पालन भी शुरू करवाया गया। आज हमारे इलाके में तमाम लोग मधुमक्खी पालन भी कर रहे हैं और अब तो जैविक खेती की ओर भी अग्रसर हो गए हैं।
प्रश्न- यह तो रही खेती की बात, संस्था का झुकाव शिक्षा की ओर कैसे हुआ? शिक्षा के क्षेत्र में आप लोगों ने किस तरह से काम किया?
उत्तर- जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि नाबार्ड के डॉ. ओमप्रकाश जी से मिलने के बाद खेती और किसानों के लिए काम करना शुरू किया। इसी दौरान डॉ. ओमप्रकाश जी की पत्नी डॉ. सरिता से भी मुलाकात हुई। बातचीत के दौरान वह अक्सर कहती कि जब तक बालिकाओं को शिक्षा नहीं मिलेगी तब तक समाज व देश का विकास नहीं हो सकता है। हम लोगों ने प्रेरक के रूप में उन्हें अपने साथ जोड़ा। फिर गांवों में जाते और अभिभावकों को समझाते कि शिक्षा के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है। डॉ. सरिता ने महिलाओं को समझाया कि बेटे-बेटी में अंतर करना छोड़ो। बेटियों को शिक्षित करने से क्या फायदा होगा, इसके बारे में विस्तार से समझाया। जब लोगों ने अपनी आमदनी का रोना रोया तो उन्हें यह समझाया कि बच्चे के स्कूल जाने पर छात्रवृत्ति मिलेगी, उन्हें ड्रेस मिलेगा और किताबें भी मुफ्त में मिलेंगी। बस बच्चों को घर के काम से हटाकर स्कूल भेजना है। यह बात धीरे-धीरे अभिभावकों को समझ में आने लगी और लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। इस अभियान का असर इतना व्यापक हुआ कि दूसरे साल गांवों की शत-प्रतिशत बालिकाएं स्कूल जाने लगीं।
प्रश्न- आपने संस्था के जरिए किसानों के लिए काम किया। ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार दिलाया। शिक्षा का प्रसार किया। अब आपका व्यापक स्तर पर कौन-सा काम चल रहा है?
उत्तर- संस्था के सभी सदस्य सरकार की ओर से चलाए जाने वाले विभिन्न अभियानों में अपनी भागीदारी निभाते हैं। एड्स के प्रति चलने वाले जागरूकता अभियान में संस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। सरकार की ओर से शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए चलने वाले प्रोजेक्ट में भी भागीदारी निभाई है। ग्रामीण स्तर पर जो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, उन्हें शिक्षा से जोड़ा गया। इसके अलावा घुमंतू जाति के बच्चों को खासतौर से शिक्षा से जोड़ने का कार्य किया गया। इसी तरह गांव-गांव में स्वास्थ्य जागरूकता शिविर का आयोजन किया जा रहा है। ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए कताई-बुनाई, सिलाई एवं मोमबत्ती उद्योग सहित विभिन्न तरह के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं। संस्था का प्रयास है कि महिलाओं को भी स्वरोजगार से जोड़ा जाए। इसके लिए महिला स्वयंसहायता समूह का गठन कर उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
प्रश्न- आप ग्रामीणों के बीच कई सालों से काम कर रहे हैं। ग्रामीणों का शहरों की ओर हो रहे पलायन को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर- गांव में रहने वाला कोई भी व्यक्ति शहर में नहीं जाना चाहता। अगर कोई जाता भी है तो सिर्फ रोजगार की तलाश में। यदि गांवों के लोगों को गांव में ही रोजगार मिलने लगे तो उनका शहरों की ओर पलायन नहीं होगा। हालांकि इस दिशा में व्यापक काम हुआ है। पहले जहां गांव में रोजगार के साधन सीमित थे। वहीं अब गांव में व्यापक स्तर पर रोजगार के साधन हैं। जिन लोगों के पास खेतीबाड़ी नहीं है वे भी छोटे-छोटे रोजगार के जरिए जीविकोपार्जन कर सकते हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जो ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराती हैं। हां, इतना जरूर है कि अभी इन योजनाओं के बारे में ग्रामीणों में जागरूकता का अभाव है। सरकार को योजनाएं लागू करने के साथ ही उनके बारे में ग्रामीणों को जागरूक करने की भी जरूरत है। तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जो पैसा न होने के बाद भी ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराती हैं। बैंकों को ग्रामीणों को ऋण देने के लिए टारगेट निर्धारित किया गया है, इसके बाद भी रोजगार के लिए लोग ऋण नहीं लेते हैं तो इसके पीछे मूल कारण जागरूकता का अभाव है।
प्रश्न- आप बचपन से लेकर अब तक गांव में रहे। गांवों की विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय भी रहे। एक दशक में गांवों में किस तरह का परिवर्तन हुआ है?
उत्तर- इसमें कोई संदेह नहीं कि गांव तेजी से बदल रहे हैं। अब गांवों में हर तरह की सुविधाएं हैं। बिजली, टेलीफोन, पानी, स्कूल सहित सभी तरह की सुविधाएं गांवों में मिल रही हैं। सड़कों का निर्माण व्यापक स्तर पर हुआ है। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के साथ ही विभिन्न मदों से सड़क निर्माण कराए जा रहे हैं। इससे गांवों की तस्वीर तेजी से बदली है। खासतौर से एक दशक में ग्रामीण भारत में विकास की धारा बह चली है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना लागू होने के बाद मजदूरों का पलायन बड़ी संख्या में रूका है।
प्रश्न- आज के युवा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भागते नजर आ रहे हैं। इन युवाओं के लिए क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर- उच्च शिक्षा हासिल करने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि सिर्फ नौकरी करनी है। शिक्षा हासिल करना अलग मसला है और नौकरी करना अलग। शिक्षा से मिले ज्ञान के जरिए हम रोजगार भी हासिल कर सकते हैं और दूसरों के लिए मददगार भी बन सकते हैं। युवाओं को रोजगार के लिए शहरों में भटकने के बजाय ऐसा रोजगार चुनना चाहिए, जो गांवों में रहकर किया जा सकता है। आज केंद्र सरकार की ओर से युवाओं को ग्राम स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। शिक्षित युवाओं को इसका लाभ लेना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे। गांव में रहने वालों को गांव में ही काम मिल सकेगा। ग्रामीण स्तर पर उद्योग स्थापित करके खुद भी पैसा कमाया जा सकता है और अशिक्षित एवं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को रोजगार भी उपलब्ध कराया जा सकता है।
किसी भी उद्योग की स्थापना के लिए गांव सबसे उपयुक्त हैं। ग्रामीण स्तर के उद्योग को गांव में ही कच्चा माल मिल जाता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो अगरबत्ती, मोमबत्ती उद्योग, दियासलाई उद्योग अथवा रेडिमेड कपड़े का कारोबार ग्रामीण स्तर पर बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। चूंकि शहर में उद्योग चलाने के लिए जगह की जरूरत होती है और शहरों में जगह की समस्या भी है। यदि कोई शिक्षित युवा इन उद्योगों को गांव स्तर से शुरू करता है तो उसकी लागत शहर की अपेक्षा काफी कम आएगी। गांव में श्रमिक, कारीगर भी आराम से मिल जाएंगे। चूंकि एक श्रमिक को शहर आने में किराया भी खर्च करना पड़ता है। ऐसे में यदि उसे गांव में कुछ कम पैसे में रोजगार मिल जाए तो वह शहर नहीं आना चाहेगा। इसी तरह पशुपालन उद्योग भी अपनाया जा सकता है। ग्रामीण स्तर पर उद्योग की कमी नहीं है बस उसे करने की ललक होनी चाहिए।
प्रश्न- युवाओं के प्रति केंद्र सरकार का क्या रूख है? आप केंद्र सरकार के कामों को युवा, रोजगार आदि से जोड़कर किस रूप में देखते हैं?
उत्तर- इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र सरकार के ज्यादातर कार्यक्रम ग्रामीण युवाओं को रोजगार से जोड़ने की दिशा में हैं। केंद्र सरकार के हर कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में केंद्रबिंदु युवा हैं। सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि जब तक ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया नहीं कराया जाएगा तब तक देश का समुचित विकास नहीं हो सकता है। यही वजह है कि ग्रामीण युवाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए सरकार की ओर से विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। खास बात यह है कि जो युवा पढ़े-लिखे हैं, उनके लिए तो रोजगार की ट्रेनिंग दी जा रही है। वहीं जो युवा पढ़े-लिखे नहीं हैं और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उनके लिए भी सरकार ने व्यवस्था कर रखी है।
आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बैंकों की ओर से ऋण मुहैया कराया जा रहा है। बैंक से ऋण लेकर अपना कारोबार शुरू किया जा सकता है। युवाओं को रोजगार शुरू करने में किसी तरह की दिक्कत न हो, इसके लिए विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं। बस जरूरत है युवाओं के सक्रिय भूमिका निभाने की।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल: chandra.akhilesh829@gmail.com)
इस संस्था के सदस्यों ने घर-घर जाकर अभिभावकों को बालिका शिक्षा के फायदे बताए, उन्हें समझाया कि उनकी बेटियों के पढ़ी-लिखी होने से क्या फायदे होंगे। इस दौरान जिन अभिभावकों ने खुद की रोजी-रोटी की बात की, उन्हें रोजगार के रास्ते भी दिखाए। गांव में रहते हुए किस तरह स्वरोजगार से जुड़ा जा सकता है, यह राह भी दिखाई। किसानों को किसान क्लब के जरिए एकत्रित कर व्यावसायिक खेती के प्रति जागरूक किया। संस्था के प्रयास से करीब दो दर्जन से अधिक गांवों के लोग आज स्वरोजगार से जुड़े हैं। इस संस्था को किस तरह से नाबार्ड से प्रोत्साहन मिला और इसने लोगों को रास्ता दिखाया, यह जानते हैं सर्वहितकारी शिक्षा प्रसार समिति के सचिव मुकेश कुमार सिंह से उन्हीं की जुबानी।
प्रश्न- मुकेश जी आपने परास्नातक तक की शिक्षा ग्रहण की। आप चाहते तो शहर जाकर नौकरी कर सकते थे। फिर नौकरी करने के बजाय गांव से कैसे जुड़ गए?
उत्तर- मैंने गांव के लोगों का दर्द बचपन से देखा है। मैं चाहता हूं कि गांव में रहने वाला हर व्यक्ति गांव में ही रहकर रोजगार हासिल करे। उसे रोजी-रोटी के लिए शहरों पर आश्रित न होना पड़े। इसके लिए स्वरोजगार का रास्ता अपनाया जा सकता है। हमने समाजशास्त्र में परास्नातक की शिक्षा ग्रहण की, लेकिन नौकरी नहीं की। अब हम लोगों को गांव में रहकर रोजगार से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। साथ ही गांव-गांव के अभिभावकों से यह अपील कर रहे हैं कि वह अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाएं क्योंकि शिक्षा से ही समाज का विकास होगा और समाज के विकास से ही देश का विकास संभव है। इसके साथ ही संस्था के जरिए बेरोजगारों को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण भी दे रहे हैं ताकि लोग गांव में ही रहकर जीविकोपार्जन कर सकें।
प्रश्न- आपने इस संस्था की शुरुआत कैसे की?
उत्तर- सामाजिक कार्यों को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। पहले हमारे बड़े भाई देवराज सिंह नेहरु युवा केंद्र से जुड़े थे। उनके नेतृत्व में हम सभी लोग विभिन्न कार्यों में हिस्सा लेते थे। कभी खेलकूद और कभी प्रशिक्षण शिविर का आयोजन होता था। कुछ समय के बाद उनकी नौकरी शिक्षा विभाग में लग गई और वह गांव से दूर चले गए। चूंकि मैं पहले से ही इस क्षेत्र में काफी रुचि लेता था, इसलिए उनके जाने के बाद अपने आप को पूरी तरह से सक्रिय कर लिया। संस्था के सभी सदस्यों का भरपूर सहयोग मिला। सभी के सहयोग से हम संस्था के माध्यम से सामाजिक कार्य कर रहे हैं। बेरोजगारों को स्वरोजगार की शिक्षा दे रहे हैं। एड्स, पल्स पोलियो सहित सरकार की ओर से चलने वाले विभिन्न अभियानों में संस्था के सदस्य पूरी भागीदारी निभा रहे हैं।
प्रश्न- आपने संस्था के कार्यों की शुरुआत कैसे की? अपने अनुभव के बारे में बताएं?
उत्तर- पहले हम अपने गांव तक ही सीमित थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों का सहयोग मिला। वर्ष 1992 में हमने चार गांवों में स्वयंसहायता समूह की स्थापना की। ग्राम पंचायत कराहरी, इसौली, जुन्नार, टैटी आदि में स्वयंसहायता समूह से जुड़े लोगों को ऋण दिलाया। समूह से जुड़े लोग धागे व अन्य वस्त्रों के कारोबार से जुड़ गए। वे गांव-गांव जाकर सामान बेचते और कमाई करने लगे। यह देखकर आसपास के गांवों के लोगों में भी जागरूकता आई और कुछ ही दिनों में स्वयंसहायता समूह की संख्या 50 से अधिक हो गई, लेकिन इसी दौरान यह झटका भी लगा। समूह से जुड़े कुछ लोग डिफाल्टर भी हो गए।
प्रश्न- समूह से जुड़े लोगों के डिफाल्टर होने के पीछे क्या कारण था?
उत्तर- दरअसल काम कोई भी हो, यदि वह मन लगाकर और योजनाबद्ध तरीके से न किया जाए तो उसमें सफलता मिलना संभव नहीं होता है। सभी समूहों को एक साथ प्रशिक्षण दिया गया था। यह प्रशिक्षण किसी तरह का तकनीकी नहीं था बल्कि संस्था से जुड़े लोगों की ओर से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया गया था। संस्था ने सभी को निस्वार्थ भाव से एक रास्ता दिखाया था, ताकि वे रोजगार के लिए शहरों पर आश्रित न हो सकें। जहां तक लोगों के डिफाल्टर होने का सवाल है तो हर गांव में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनकी सोच खराब होती है, जो बैंक से लिए गए पैसे को समयबद्ध तरीके से वापस नहीं करना चाहते। वे बैंक से मिले पैसे को अपना पैसा समझ लेते हैं। यही सबसे बड़ी चूक होती है। बैंक से लिए हर ऋण को उधारी का पैसा समझना चाहिए और ऋण लेने से पहले यह तय कर लेना चाहिए कि उसे ब्याज सहित लौटाना है। डिफाल्टर होने वालों के पीछे यही मानसिकता थी कि उन्होंने पैसा लौटाने में कोताही बरती। एक और बड़ी समस्या थी - वह थी मशीनीकरण का बढ़ता प्रभाव।
प्रश्न- बदलते परिवेश में मशीनीकरण को तो बेहतर माना जाता है। मशीनीकरण का समूहों पर किस तरह से प्रभाव पड़ा?
उत्तर- मैं मशीनीकरण के विरोध की बात नहीं करता और न ही यह कह रहा हूं कि मशीनीकरण का विकास गलत बात है, लेकिन मशीनों का जितना फायदा मिला है कुछ क्षेत्रों में, उतना ही नुकसान भी हुआ है। कोई भी उपलब्धि हो तो उसका कुछ नुकसान तो उठाना ही पड़ता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो समूह से जुड़े तमाम लोग पहले हथकरघे का काम करते थे। इससे उन्हें रोजगार मिला हुआ था, लेकिन राया, मथुरा कस्बे में इलेक्ट्रॉनिक खड्डी लग गई। ऐसे में समूह के हथकरघे बंद हो गए। क्योंकि इलैक्ट्रिक हथकरघे में कम समय में ज्यादा सूत काता जाता था। हां, इतना जरूर हुआ कि इलैक्ट्रिक हथकरघे का चलन बढ़ने के बाद जो लोग दूसरे काम में जुट गए, वे आज भी अच्छी आमदनी कर रहे हैं। जो लोग भाग्य के भरोसे बैठ गए, वे बेरोजगार हो गए। मेरा सिर्फ यही कहना है कि मशीनीकरण की वजह से यदि किसी का रोजगार छिन जाता है तो उसे भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए बल्कि उसे अपनी सुविधा के अनुरूप दूसरे कारोबार की तलाश करनी चाहिए।
प्रश्न- जो समूह चलते रहे, उन्हें गांव में रहते हुए किस तरह से रोजगार से जोड़ा गया?
उत्तर- जिन लोगों ने काम के प्रति रुचि दिखाई, वे विभिन्न तरह से कुटीर कामधंधे से जुड़े। किसी ने परचून की दुकान खोल ली तो किसी ने साइकिल की दुकान और किसी ने वाशरमैन की। इस तरह समूह से जुड़े लोगों को जगह-जगह जरूरत के हिसाब से दुकानें खुलवाई गईं। ये लोग अभी भी अपनी दुकानें चला रहे हैं। गांव में ही रहकर जीविकोपार्जन कर रहे हैं।
प्रश्न- आपने किसानों के लिए भी काफी कुछ किया है। किसानों के बीच काम करते हुए कैसा अनुभव रहा?
उत्तर- किसानों के बीच काम करने का पूरा श्रेय नाबार्ड के तत्कालीन सहायक महाप्रबंधक डॉ. ओमप्रकाश जी को जाता है। उस समय अखबार में अक्सर नाबार्ड की ओर से चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों की खबरें आती थी। उनकी सक्रियता देख हमने उनसे मुलाकात की और किसानों के बीच काम करने की अपनी इच्छा जाहिर की। डॉ. ओमप्रकाश जी से जुड़ने के बाद मैं गांव-गांव जाकर किसानों को किसान क्लब बनाने के लिए प्रेरित करने लगा। किसान तरह-तरह के सवाल करते। जिन सवालों का जवाब मैं नहीं दे पाता, उसे बाद में डॉ. ओमप्रकाश जी से पूछता और फिर किसानों के बीच जाकर उन्हें समझाता। इस तरह किसान हमारी बात समझने लगे। किसान क्लब बना। गांव में किसानों के बीच शिविर का आयोजन होने लगा। किसान क्लब बनने के बाद दूसरे विभाग भी सक्रिय हुए। कृषि विभाग, बागवानी, पशुपालन सभी विभागों के अफसर किसान क्लबों के संपर्क में रहने लगे। इस तरह किसान क्लब को सरकार की ओर से चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का लाभ मिलने लगा। पहले दो गांवों में किसान क्लब गठित हुए और फिर आसपास के दर्जनभर से अधिक गांवों में किसान क्लब गठित हो गए।
प्रश्न- किसान क्लब से जुड़े लोगों को किस तरह से कारोबार से जोड़ा गया? किस तरह से उन्हें अधिक मुनाफा दिलाया गया?
उत्तर- हमारे इलाके में ज्यादातर लोग परंपरागत कारोबार से जुड़े थे। किसान क्लब गठित होने के बाद नाबार्ड के तत्कालीन सहायक महाप्रबंधक डॉ. ओमप्रकाश किसानों से व्यक्तिगत रूप से मिले। उन्हें समझाया कि किस तरह से औषधीय एवं औद्योगिक खेती से जुड़ सकते हैं। इसके बाद संस्था के सदस्यों ने भी इसमें पूरी तरह से सहयोग किया। गांव-गांव प्रशिक्षण शिविर आयोजित होने लगे। किसानों में जागरूकता आई। फिर किसान परंपरागत खेती के अलावा फूलों की खेती, आलू की खेती व बहुफसलीय खेती से जुड़ गए। ऐसे में लोग खेत से अनाज के साथ ही पैसा भी निकालने लगे। जब आमदनी बढ़ी तो खेती के प्रति और ललक पैदा हुई। कुछ किसानों ने औषधीय खेती की ओर रुख किया और मुनाफा कमाया।
प्रश्न- आप लोगों ने परंपरागत खेती करने वाले किसानों को औषधीय खेती के अलावा और किस चीज से जोड़ा, जिससे उनकी आमदनी बढ़ी।
उत्तर- किसानों को यह बताया गया कि वे खेती के साथ ही पशुपालन कर सकते हैं। पशुपालन से फायदा यह होगा कि उन्हें एक तरफ दूध बेच कर आमदनी मिलेगी तो दूसरी तरफ गोबर की खाद भी मिलेगी यानी दोहरा फायदा। इससे खेत में अधिक रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं करना पड़ेगा। इसी तरह मधुमक्खी पालन भी शुरू करवाया गया। आज हमारे इलाके में तमाम लोग मधुमक्खी पालन भी कर रहे हैं और अब तो जैविक खेती की ओर भी अग्रसर हो गए हैं।
प्रश्न- यह तो रही खेती की बात, संस्था का झुकाव शिक्षा की ओर कैसे हुआ? शिक्षा के क्षेत्र में आप लोगों ने किस तरह से काम किया?
उत्तर- जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि नाबार्ड के डॉ. ओमप्रकाश जी से मिलने के बाद खेती और किसानों के लिए काम करना शुरू किया। इसी दौरान डॉ. ओमप्रकाश जी की पत्नी डॉ. सरिता से भी मुलाकात हुई। बातचीत के दौरान वह अक्सर कहती कि जब तक बालिकाओं को शिक्षा नहीं मिलेगी तब तक समाज व देश का विकास नहीं हो सकता है। हम लोगों ने प्रेरक के रूप में उन्हें अपने साथ जोड़ा। फिर गांवों में जाते और अभिभावकों को समझाते कि शिक्षा के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है। डॉ. सरिता ने महिलाओं को समझाया कि बेटे-बेटी में अंतर करना छोड़ो। बेटियों को शिक्षित करने से क्या फायदा होगा, इसके बारे में विस्तार से समझाया। जब लोगों ने अपनी आमदनी का रोना रोया तो उन्हें यह समझाया कि बच्चे के स्कूल जाने पर छात्रवृत्ति मिलेगी, उन्हें ड्रेस मिलेगा और किताबें भी मुफ्त में मिलेंगी। बस बच्चों को घर के काम से हटाकर स्कूल भेजना है। यह बात धीरे-धीरे अभिभावकों को समझ में आने लगी और लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। इस अभियान का असर इतना व्यापक हुआ कि दूसरे साल गांवों की शत-प्रतिशत बालिकाएं स्कूल जाने लगीं।
प्रश्न- आपने संस्था के जरिए किसानों के लिए काम किया। ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार दिलाया। शिक्षा का प्रसार किया। अब आपका व्यापक स्तर पर कौन-सा काम चल रहा है?
उत्तर- संस्था के सभी सदस्य सरकार की ओर से चलाए जाने वाले विभिन्न अभियानों में अपनी भागीदारी निभाते हैं। एड्स के प्रति चलने वाले जागरूकता अभियान में संस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। सरकार की ओर से शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए चलने वाले प्रोजेक्ट में भी भागीदारी निभाई है। ग्रामीण स्तर पर जो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, उन्हें शिक्षा से जोड़ा गया। इसके अलावा घुमंतू जाति के बच्चों को खासतौर से शिक्षा से जोड़ने का कार्य किया गया। इसी तरह गांव-गांव में स्वास्थ्य जागरूकता शिविर का आयोजन किया जा रहा है। ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए कताई-बुनाई, सिलाई एवं मोमबत्ती उद्योग सहित विभिन्न तरह के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं। संस्था का प्रयास है कि महिलाओं को भी स्वरोजगार से जोड़ा जाए। इसके लिए महिला स्वयंसहायता समूह का गठन कर उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
प्रश्न- आप ग्रामीणों के बीच कई सालों से काम कर रहे हैं। ग्रामीणों का शहरों की ओर हो रहे पलायन को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर- गांव में रहने वाला कोई भी व्यक्ति शहर में नहीं जाना चाहता। अगर कोई जाता भी है तो सिर्फ रोजगार की तलाश में। यदि गांवों के लोगों को गांव में ही रोजगार मिलने लगे तो उनका शहरों की ओर पलायन नहीं होगा। हालांकि इस दिशा में व्यापक काम हुआ है। पहले जहां गांव में रोजगार के साधन सीमित थे। वहीं अब गांव में व्यापक स्तर पर रोजगार के साधन हैं। जिन लोगों के पास खेतीबाड़ी नहीं है वे भी छोटे-छोटे रोजगार के जरिए जीविकोपार्जन कर सकते हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जो ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराती हैं। हां, इतना जरूर है कि अभी इन योजनाओं के बारे में ग्रामीणों में जागरूकता का अभाव है। सरकार को योजनाएं लागू करने के साथ ही उनके बारे में ग्रामीणों को जागरूक करने की भी जरूरत है। तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जो पैसा न होने के बाद भी ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराती हैं। बैंकों को ग्रामीणों को ऋण देने के लिए टारगेट निर्धारित किया गया है, इसके बाद भी रोजगार के लिए लोग ऋण नहीं लेते हैं तो इसके पीछे मूल कारण जागरूकता का अभाव है।
प्रश्न- आप बचपन से लेकर अब तक गांव में रहे। गांवों की विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय भी रहे। एक दशक में गांवों में किस तरह का परिवर्तन हुआ है?
उत्तर- इसमें कोई संदेह नहीं कि गांव तेजी से बदल रहे हैं। अब गांवों में हर तरह की सुविधाएं हैं। बिजली, टेलीफोन, पानी, स्कूल सहित सभी तरह की सुविधाएं गांवों में मिल रही हैं। सड़कों का निर्माण व्यापक स्तर पर हुआ है। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के साथ ही विभिन्न मदों से सड़क निर्माण कराए जा रहे हैं। इससे गांवों की तस्वीर तेजी से बदली है। खासतौर से एक दशक में ग्रामीण भारत में विकास की धारा बह चली है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना लागू होने के बाद मजदूरों का पलायन बड़ी संख्या में रूका है।
प्रश्न- आज के युवा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भागते नजर आ रहे हैं। इन युवाओं के लिए क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर- उच्च शिक्षा हासिल करने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि सिर्फ नौकरी करनी है। शिक्षा हासिल करना अलग मसला है और नौकरी करना अलग। शिक्षा से मिले ज्ञान के जरिए हम रोजगार भी हासिल कर सकते हैं और दूसरों के लिए मददगार भी बन सकते हैं। युवाओं को रोजगार के लिए शहरों में भटकने के बजाय ऐसा रोजगार चुनना चाहिए, जो गांवों में रहकर किया जा सकता है। आज केंद्र सरकार की ओर से युवाओं को ग्राम स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। शिक्षित युवाओं को इसका लाभ लेना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे। गांव में रहने वालों को गांव में ही काम मिल सकेगा। ग्रामीण स्तर पर उद्योग स्थापित करके खुद भी पैसा कमाया जा सकता है और अशिक्षित एवं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को रोजगार भी उपलब्ध कराया जा सकता है।
किसी भी उद्योग की स्थापना के लिए गांव सबसे उपयुक्त हैं। ग्रामीण स्तर के उद्योग को गांव में ही कच्चा माल मिल जाता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो अगरबत्ती, मोमबत्ती उद्योग, दियासलाई उद्योग अथवा रेडिमेड कपड़े का कारोबार ग्रामीण स्तर पर बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। चूंकि शहर में उद्योग चलाने के लिए जगह की जरूरत होती है और शहरों में जगह की समस्या भी है। यदि कोई शिक्षित युवा इन उद्योगों को गांव स्तर से शुरू करता है तो उसकी लागत शहर की अपेक्षा काफी कम आएगी। गांव में श्रमिक, कारीगर भी आराम से मिल जाएंगे। चूंकि एक श्रमिक को शहर आने में किराया भी खर्च करना पड़ता है। ऐसे में यदि उसे गांव में कुछ कम पैसे में रोजगार मिल जाए तो वह शहर नहीं आना चाहेगा। इसी तरह पशुपालन उद्योग भी अपनाया जा सकता है। ग्रामीण स्तर पर उद्योग की कमी नहीं है बस उसे करने की ललक होनी चाहिए।
प्रश्न- युवाओं के प्रति केंद्र सरकार का क्या रूख है? आप केंद्र सरकार के कामों को युवा, रोजगार आदि से जोड़कर किस रूप में देखते हैं?
उत्तर- इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र सरकार के ज्यादातर कार्यक्रम ग्रामीण युवाओं को रोजगार से जोड़ने की दिशा में हैं। केंद्र सरकार के हर कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में केंद्रबिंदु युवा हैं। सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि जब तक ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया नहीं कराया जाएगा तब तक देश का समुचित विकास नहीं हो सकता है। यही वजह है कि ग्रामीण युवाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए सरकार की ओर से विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। खास बात यह है कि जो युवा पढ़े-लिखे हैं, उनके लिए तो रोजगार की ट्रेनिंग दी जा रही है। वहीं जो युवा पढ़े-लिखे नहीं हैं और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उनके लिए भी सरकार ने व्यवस्था कर रखी है।
आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बैंकों की ओर से ऋण मुहैया कराया जा रहा है। बैंक से ऋण लेकर अपना कारोबार शुरू किया जा सकता है। युवाओं को रोजगार शुरू करने में किसी तरह की दिक्कत न हो, इसके लिए विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं। बस जरूरत है युवाओं के सक्रिय भूमिका निभाने की।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल: chandra.akhilesh829@gmail.com)
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Post By: pankajbagwan