लगता है महसीर नाम की मछली भी अब मिटने को है। उत्तरभारत में उसे ‘राजा’ कहते हैं। यह बहुत पवित्र मानी जाती है। महसीर प्रायः हिमालय के नदियों और झरनों में पाई जाती है। इसकी सात किस्में हैं और ये 2.75 मीटर तक लंबी होती हैं। गंगा की ऊपरी धाराओं में उनका वजन 10 किलोग्राम तक होता है। 1858 में कुमाऊं के भीमताल, नकुचिया ताल, सत्ताल और नैनीताल की झीलों में छोड़ी गई थीं। भीमताल के सिवा बाकी सब जगह ये अच्छी तरह पनपी भीं।
एक जमाने में ऋषिकेश और हरिद्वार के पास गंगा की तेज धारा में महसीर भरी रहती थी। कुमाऊं की झीलों में भी उनकी संख्या घट रही है क्योंकि एक तो मछली पकड़ने पर कोई नियंत्रण नहीं है और फिर ये सभी झीलें खराब होती जा रही हैं। हिमाचल प्रदेश के बनार झरने में विख्यात सुनहरी महसीर तो अब बिलकुल ही गायब हो गई है। 1964 में पकड़ी जाने वाली कुल मछलियों का 40 प्रतिशत यही होती थीं। पर अब ये कहीं दिखाई नहीं देतीं। महसीर के शुभतिंतकों ने प्रधानमंत्री तक से निवेदन किया। नतीजा निकला एक सरकारी आदेश कि मछली को खत्म होने से बचाया जाए। लेकिन ज्यादा आंशका यही है कि इसकी एक-दो किस्में जरूर खत्म हो गई होंगी।
एक जमाने में ऋषिकेश और हरिद्वार के पास गंगा की तेज धारा में महसीर भरी रहती थी। कुमाऊं की झीलों में भी उनकी संख्या घट रही है क्योंकि एक तो मछली पकड़ने पर कोई नियंत्रण नहीं है और फिर ये सभी झीलें खराब होती जा रही हैं। हिमाचल प्रदेश के बनार झरने में विख्यात सुनहरी महसीर तो अब बिलकुल ही गायब हो गई है। 1964 में पकड़ी जाने वाली कुल मछलियों का 40 प्रतिशत यही होती थीं। पर अब ये कहीं दिखाई नहीं देतीं। महसीर के शुभतिंतकों ने प्रधानमंत्री तक से निवेदन किया। नतीजा निकला एक सरकारी आदेश कि मछली को खत्म होने से बचाया जाए। लेकिन ज्यादा आंशका यही है कि इसकी एक-दो किस्में जरूर खत्म हो गई होंगी।
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