राजधानी दिल्ली समेत आसपास के इलाकों में दिवाली के बाद वायु प्रदूषण का स्तर बेहद भयावह हो जाता है। हालांकि इससे बचाव या इसके समाधान के लिए सरकार अपने स्तर पर प्रयास करती हुई प्रतीत होती है, लेकिन समस्या की भयावहता के सामने वे प्रयास नगण्य या फिर अव्यावहारिक ही मालूम पड़ते हैं। ऐसे में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह के उपकरणों से प्रदूषण को कम करने का सुझाव दिया है, उसकी व्यावहारिकता को भी समझना होगा।
बीते पांच वर्षो से हर बार अक्टूबर-नवंबर माह में जब दिल्ली में सांस लेना दूभर हो जाता है, तो कोई ना कोई अदालत सरकार को डांटती-डपटती है, अस्पतालों में मरीज बढ़ते हैं, फिर कुछ दिनों में कोई नया मुद्दा आते ही सबकुछ भुला दिया जाता है। इस बार अदालत ने जापान की हाइड्रोजन आधारित तकनीक, चीन की राजधानी पेइचिंग की जहरीली हवा खींचने वाले टावर के निर्माण और एयर प्यूरीफायर जैसी तकनीकों के इस्तेमाल के सुझाव दिए हैं। वास्तविकता यह है कि राजधानी के हालात इतने खराब हैं कि यहां निवारण तकनीक से कहीं ज्यादा ‘प्रिवेंटिव मैनेजमेंट’ की जरूरत है। जैसे कि देश में कचरे के निबटारे के तरीकों को तलाशने से ज्यादा जरूरत कचरा कम करने के तरीकों को दैनिक जीवन में अपनाने की है, ठीक वैसे ही राजधानी दिल्ली में जहरीली हवा को साफ करने के संयंत्र लगाने से ज्यादा जरूरी है कि हवा को प्रदूषित करने वाले कारकों पर ही पूर्ण नियंत्रण हो।
आखिर है क्या दिल्ली का दर्द
देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धूल-मिट्टी और हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से 17 फीसद और पैटकॉक जैसे पेट्रो-ईंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई अन्य कारण हैं, जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) और केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान द्वारा हाल ही में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक गहन सर्वेक्षण से यह पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम लगे रहने और वाहनों के रेंगने से गाड़ियां डेढ़ गुना ज्यादा ईंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुआं यहां की हवा में शामिल हो रहा है।
यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआइ यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएं में बड़ी मात्र में हाइड्रोकार्बन होते हैं और तापमान 40 डिग्री के पार होते ही ये हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड होते हैं जिनके कारण वायु प्रदूषण से मौत का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण 25 फीसद फेफड़े के कैंसर की वजह है। इस पर काबू पा लेने से हर वर्ष करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी।
वायु प्रदूषण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थो को रिफाइनरी में शोधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल से बहुत कम होते हैं, लिहाजा दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटकॉन इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें दिल्ली एनसीआर के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। दिल्ली में अपने वाहनों की कमी है नहीं। यदि वास्तव में दिल्ली को जाम से मुक्ति की कल्पना करनी है तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौड़ाई तक सीमित नहीं रखना होगा, बल्कि महानगर की आबादी को नियंत्रित करने पर भी ध्यान देना होगा। दिल्ली में नए वाहनों की बिक्री रोकने की बात तो दूर अभी तक सरकार मेट्रो में भीड़ नियंत्रण, मेट्रो स्टेशन से लोगों के घरों तक सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था तक नहीं कर पाई है। मेट्रो भले ही वायु प्रदूषण को रोके, लेकिन वहां तक पहुंचने का सिस्टम यातायात में व्यवधान पैदा कर हिसाब बराबर कर देता है।
इसके उपाय के तौर पर सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही कोलोनी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है।
पेइचिंग से क्या सीखा जाए
बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही कहा कि चीन की तरह विशाल एयर प्यूरीफायर लगाए जाएं, सरकारी तंत्र तत्काल सहमत होते हुए सक्रिय हो गया। सनद रहे यही वह तंत्र है जो दो वर्ष पहले अदालत के उस आदेश को मानने को राजी नहीं हुआ था कि सम-विषम योजना में दोपहिया वाहनों को भी शामिल किया जाए। यह वही सरकार है जो एनजीटी के आदेश के बावजूद चार साल में कचरा प्रबंधन और जाम को रोकने पर कोई कदम नहीं उठा सकी। तभी संदेह होता है कि सरकारें लोगों की जान की कीमत पर केवल तिजारत कर रही हैं।
जापान की हाइड्रोजन तकनीक
सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे महाधिवक्ता तुषार मेहता ने अदालत को जापान की हाइड्रोजन ईंधन आधारित तकनीक की जानकारी दी और अदालत ने भी तीन दिसंबर तक इसका मसौदा पेश करने को कह दिया। हालांकि जापान सरकार अपने एक विश्वविद्यालय के माध्यम से दिल्ली एनसीआर में एक शोध व सर्वे कार्य करवा चुकी है जिसमें आने वाले एक दशक में सार्वजनिक परिवहन व निजी वाहनों में हाइड्रोजन व फ्यूल सेल आधारित तकनीक के इस्तेमाल से कितना व्यापार मिलेगा, उसका आकलन हो चुका है।
सनद रहे कि हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में प्रयोग में लाने पर बीते पांच वर्षो में कई सफल प्रयोग हुए हैं। इसमें उत्सर्जन के रूप में शून्य कार्बन होता है और केवल पानी निकलता है। कार बनाने वाली एक कंपनी ने इस पर आधारित कारों का उत्पादन भी शुरू कर दिया है। लेकिन यह तकनीक बेहद महंगी है।
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