शहर के लोग नहीं जानते रोज़गार योजना के लाभ; पर ग्रामीण भारत में महिलाओं, दलितों और मजदूर वर्ग को अधिकार, सम्मान और न्याय मिलता नज़र आया है. ख़ासकर महिलाओं, दलितों और मजदूरों के लिए रोज़गार गारंटी का क़ानून तीन बड़े शब्दों को साकार करता नज़र आता है.... अधिकार, सम्मान और न्याय.
देशभर में जहाँ भी कामकाज होता है, मजदूरी करने के मौके मिलते हैं वहाँ पुरुषों के साथ बढ़-चढ़कर महिलाएं भी काम करती हैं. पर मजदूरी में वे हर जगह मात खाती हैं, फिर वो चाहे दिल्ली जैसे महानगर में बन रही कोई आलीशान इमारत का काम हो, या फिर सरकारी योजनाओं के अंतर्गत चलाया जा रहा कोई काम.
(चुनाव के मौसम में जब लोग यूपीए के कार्यकाल की उपलब्धियों की ओर देखते हैं तो सबसे अगली पंक्ति में नाम आता है रोज़गार गारंटी क़ानून का. दुनियाभर में किसी लोकतंत्र का यह अनूठा प्रयोग कई खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ भारत में लागू हो चुका है. तीन बरस का सफ़र तय कर चुका है. चुनाव के मौसम में इस क़ानून के ज़मीनी सच पर हमारी विशेष श्रृंखला की तीसरी कड़ी...)
यही स्थिति मजदूर वर्ग की है. न्यूनतम मजदूरी के लिए सभी राज्यों में एक तय राशि घोषित है पर घरेलू काम से लेकर खेत खलिहानों और फिर बड़े ठेकों तक भी न्यूनतम मजदूरी की बात अधिकतर बेमानी ही साबित हुई है.
सबसे बदतर स्थिति दलित समाज की है. मजदूरी के नाम पर अमानवीय स्थितियों में श्रम और उसपर जातिगत आधार पर होने वाला भेद और मजदूरी से लेकर सामाजिक स्थिति तक असमानता दलितों के लिए अभी भी कई जगहों पर अभिशाप बनकर खड़ी है.
रोज़गार गारंटी क़ानून क्या है, इसे अगर जानना है तो इन तीन वर्गों से पूछिए. हमने भी इसकी टोह ली देश के कुछ हिस्सों में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले उन लोगों से जिन्होंने रोज़गार योजना के तहत काम किया है.
चूड़ी नहीं, कुदाल भी
महिलाओं की पहले स्थिति घर में खाना बनाने और घर में काम करने तक ही सीमित थी. इस परिभाषा को नरेगा ने बदला है. अब महिलाएं काम कर रही हैं. बैंक से पैसे ले रही हैं. शराब या फ़िज़ूलखर्ची में पैसा बहा रहे पति के सहारे रहने वाली अबला नहीं, परिवार की एक पैसा कमाने वाली इकाई बनी हैं महिलाएं. इसका उनके सामाजिक स्तर पर भी असर साफ दिखाई दे रहा है
राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना के तहत जहाँ-जहाँ भी काम हुआ है, वहाँ सबसे ज़्यादा सक्रियता से महिलाओँ ने काम किया है. नौरतीबाई की ही ज़िंदगी को ले लीजिए. बीमार पति और घर की अर्थव्यवस्था का पूरा अंतर्द्वद्व नरेगा के ज़रिए ही हल होता नज़र आता है.
मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित समाज सेविका अरुणा रॉय कहती हैं, ' पहले महिलाओं की स्थिति घर में खाना बनाने और घर में काम करने तक ही सीमित थी. इस परिभाषा को नरेगा ने बदला है. अब महिलाएं काम कर रही हैं. बैंक से पैसे ले रही हैं. शराब या फ़िज़ूलखर्ची में पैसा बहा रहे पति के सहारे रहने वाली अबला नहीं, परिवार की एक पैसा कमाने वाली इकाई बनी हैं महिलाएं. इसका उनके सामाजिक स्तर पर भी असर साफ दिखाई दे रहा है.'
घर के पुरुषों से बात करिए तो पता चलता है कि इस ज़रिए महिलाओं का सम्मान तो बढ़ा ही है पर सबसे बड़ी बात यह हुई है कि परिवार में केवल देखरेख का काम करनेवाली इकाई को अब आर्थिक स्तर पर प्रभावी होने के बाद निर्णय लेने से लेकर परिवार जैसी आधारभूत पारिवारिक इकाई में निर्णायक होने का मौका भी मिला है. नरेगा में उनकी सक्रिय प्रतिभागिता से आर्थिक स्वावलंबन भी उनमें जगा है और वो अब इस इकाई के स्तर पर दिखाई दे रहा है.
दलितों की स्थिति
पर केवल महिलाएं ही समाज के उस वंचित वर्ग से नहीं आती हैं जो उपेक्षा की शिकार हैं. दलितों की स्थिति उससे कही अधिक चिंताजनक रही है. रोज़गार क़ानून का सबसे ज़्यादा लाभ महिलाओं को मिला है. कल तक मुसहर या आदिवासी होने का या दलित होने का दंश झेलने वाले और इसके आधार पर सामाजिक विभेद का शिकार हो रहे लोग भी इस क़ानून से लाभान्वित हो रहे हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे बताते हैं, 'दलितों को अब 100 दिन का काम मांगने का अधिकार मिला है. उनकी सवर्ण जातियों की कृपा पर रहने की निर्भरता ख़त्म हुई है और उन्हें समानता की नज़र से देखा जाना शुरू हुआ है.' मध्यप्रदेश या राजस्थान के दलित समुदाय के लोग तो कम से कम इस स्थिति से लाभान्वित होते नज़र आते ही हैं क्योंकि इस राज्यों में दलित समुदाय के लोग रोज़गार गारंटी के क़ानून को अपने लिए एक मज़बूत विकल्प के तौर पर देख ही रहे हैं.
पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में अगर ग्रामीण अंचल के दलित टोलों में जाकर इस बात को महसूस करें तो तस्वीर साफ हो जाती है.
मज़बूत हुआ मज़दूर
पर दलितों या महिलाओं की इस बदली स्थिति के लिए एक सीधा श्रेय जाता है क़ानून के तहत लोगों को मिल रही न्यूनतम मज़दूरी के प्रावधान को. सबसे बड़ी तो बात यह है कि पलायन रुका है. हालांकि मज़दूरों की मंडी में अन्य राज्यों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के मजदूरों की तादाद बढ़ी है क्योंकि वहाँ काम का स्तर यह नहीं है. पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि गांव के लोगों को और ख़ासकर महिलाओं को उन्हीं की पंचायत में काम मिलना शुरू हुआ है और वो भी न्यूनतम मज़दूरी के साथ।
देशभर में न्यूनतम मज़दूरी के आधार पर लोगों को काम का भुगतान एक बड़ा मुद्दा रहा है पर नरेगा के तहत ऐसा नहीं है. नरेगा के तहत काम कर रहे लोगों के लिए अब इतनी तो राहत है कि न्यूनतम मजदूरी का भुगतान और वो भी समय पर उन्हें हो रहा है.
जयपुर में मज़दूरों की स्थिति पर काम कर रहे हरकेश बुगालिया कहते हैं, 'सबसे बड़ी तो बात यह है कि पलायन रुका है. हालांकि मज़दूरों की मंडी में अन्य राज्यों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के मजदूरों की तादाद बढ़ी है क्योंकि वहाँ काम का स्तर यह नहीं है. पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि गांव के लोगों को और ख़ासकर महिलाओं को उन्हीं की पंचायत में काम मिलना शुरू हुआ है और वो भी न्यूनतम मज़दूरी के साथ.'
इतना ही नहीं, काम के दौरान छाया, पीने के पानी, दवा और नवजात शिशुओं वाली मजदूर माताओं के लिए बच्चों की देखरेख के विशेष प्रावधानों ने कम से कम इतना तो किया ही है कि मज़दूर वर्ग के लिए कामकाज की स्थितियां और ज़्यादा मानवीय हुई हैं.
पर ऐसा नहीं है कि रोज़गार गारंटी क़ानून ने हर जगह तस्वीर बदली ही है. कई जगहों पर तस्वीर अभी भी जस की तस है. लोग अभी भी या तो काम मिलने का और या फिर काम के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार से निजात पाने का इंतज़ार कर रहे हैं.
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