महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त पोषण

महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त पोषण
महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त पोषण

डॉ.संतोष जैन पासी, कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

मनुष्य की उम्र, लिंग, वर्ग और पंथ चाहे कोई भी हो- उपयुक्त पोषण सभी के अच्छे स्वास्थ्य, विकास एवं वृद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों के संदर्भ में, उनकी तीव्र गति से हो रही वृद्धि और विकास के कारण उनका उचित पोषण और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार महिलाओं के लिए भी उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है चूंकि वे गर्भधारण व बच्चे/बच्चों को जन्म देने के साथ-साथ स्तनपान के जरिए उनका लालन-पालन भी करती हैं।

उपयुक्त पोषण और अच्छे स्वास्थ्य का मानव संसाधन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मानव विकास सूचकांक के अनुसार, 209 देशों में से हमारा देश भारत 160वें स्थान पर है जोकि चिंताजनक है। 

मनुष्य की उम्र, लिंग, वर्ग और पंथ चाहे कोई भी हो-उपयुक्त पोषण सबके अच्छे स्वास्थ्य, विकास एवं वृद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों के सन्दर्भ में, उनकी तीव्र गति से हो रही वृद्धि और विकास के कारण उनका उचित पोषण और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार महिला के लिए भी उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है चूंकि वे गर्भधारण व बच्चे/बच्चों को जन्म देने के साथ-साथ स्तनपान के जरिए उनका लालन-पालन भी करती हैं। इसलिए, महिलाओं और बच्चों के उचित शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके भोजन में सभी आवश्यक पौष्टिक तत्व पर्याप्त मात्रा में नियमित रूप से सम्मिलित किए जाए।

हम अक्सर देखते हैं कि घर-घर में पुरुषों के आहार को गुणवत्ता और मात्रा के सन्दर्भ में अधिक महत्ता दी जाती है, और इसके विपरीत महिलाओं के आहार एवं पोषण की आमतौर पर उपेक्षा की जाती है। जबकि तथ्य यह है कि पुरुषों और महिलाओं की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएं एक दूसरे से ज्यादा भिन्न नहीं हैं, और यह तथ्य तालिका-1 (आईसीएमआर, 2010) में दिए गए आंकड़ों से स्पष्ट हैं।

महिलाओं के लिए आहार पर्याप्तता का अत्यधिक महत्व है और यह न केवल शादी के बाद, बल्कि किशोरावस्था और बचपन के दौरान भी ध्यान रखने की जरूरत है। इसलिए, जन्म के बाद से ही एक बालिका के पोषण और देखभाल को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले चक्र को बाधित किया जा सके।

यद्यपि पुरुषों की तुलना में, महिलाओं की ऊर्जा की जरूरत थोड़ी कम लगभग 80 प्रतिशत है जिसका कारण उनके शारीरिक वजन व संरचना में अंतर है; अक्सर पुरुष कद-काठी में लम्बे और भारी होते हैं। महिलाओं की प्रोटीन और विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरतें (केवल थियामिन, राइबोफ्लेविन) और नियासिन तथा जिंक को छोड़कर) या तो तकरीबन बराबर हैं, और लोहे जैसे कुछ पोषक तत्वों के लिए अधिक भी हैं। इसी तथ्य को बेहतर तौर पर समझने के लिए, मध्यम श्रम श्रेणी के वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकताओं को चित्र-1 से समझा जा सकता है। ग्राम स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि महिलाओं का आहार भी पौष्टिकता की दृष्टि से पर्याप्त होना चाहिए और खासतौर पर उनकी प्रजनन भूमिका को देखते हुए इस तथ्य की महत्ता और भी बढ़ जाती है। गर्भावस्था व स्तनपान की स्थितियां महिलाओं की पौष्टिक तत्वों की जरूरतों को और भी बढ़ा देती हैं, जिसके फलस्वरूप उनके शरीर में संचित पोषक तत्वों का कोष कम होने लगता है और माताएं अक्सर पोषण-सम्बन्धी कमियों का शिकार हो जाती हैं।

चूंकि माता का पोषण-स्तर गर्भावस्था से पहले और गर्भावस्था के दौरान दोनों ही अवस्थाओं में, भ्रूण की वृद्धि और विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः यह बहुत जरूरी है कि माता शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ हो और उसका पोषण-स्तर सही बना रहे।

कई शोधों के आधार से संकेत मिलते हैं कि भ्रूण, शिशु या बच्चे में विकासात्मक विफलताएं, खासकर छोटी बालिकाओं में, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली जाती हैं। इसलिए कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्र को तोड़ने के लिए, बालिकाओं के साथ-साथ महिलाओं, विशेषकर गर्भवती व धात्री माताओं के लिए, उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

जब एक सुपोषित महिला (गर्भाधान से पहले या गर्भाधान के समय) पोषक तत्वों के उचित भंडार के रहते गर्भावस्था में प्रवेश करती है, तो वह बढ़ते हुए भ्रूण की पोषण-सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने में सूक्ष्म होती हैं खासकर पहली तिमाही के दौरान। इसके बाद, गर्भवती माता की बढ़ती हुई पोषक तत्वों की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसके आहार को आवश्यकतानुसार संशोधित किया जाना चाहिए। गर्भावस्था के दौरान भ्रूण की उचित वृद्धि व विकास के लिए, गर्भवती माता के वजन में पर्याप्त बढ़ोत्तरी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसके लिए महिला का उचित पोषण ही एक विशेष कारक है।

गर्भावस्था की दूसरी और/या तीसरी तिमाही के दौरान मातृ-वजन में होने वाली बढ़ोत्तरी में कमी के कारण भ्रूण के अंतर-गर्भाशयी विकासम  मंदता (IUGR) का जोखिम बढ़ जाता है। भ्रूण की अंतर-गर्भाशय वृद्धि के अन्य संकेतक हैं- फंडल हाइट(Fundal height) और एब्डोमिनल गर्थ (abdominal girth)।

इसके अलावा, गर्भावस्थाओं में कम अंतराल होने से भी अगली गर्भावस्था के लिए माँ का शरीर पूर्ण रूप से तैयार नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप ना केवल माँ का स्वास्थ्य ही प्रभावित होता है अपितु गर्भ के परिणाम  पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।

आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया का चलन गर्भवती महिलाओं और धात्री माताओं में सबसे अधिक व्यापक है जो बढ़ते हुए मातृ-मृत्यु, पूर्वकाल-प्रसव और शिशु मृत्युदर जैसे गम्भीर परिणामों का मुख्य कारण है। इसी तरह, फोलिक एसिड की कमी, अकस्मात गर्भपात और प्रसूति सम्बन्धित जटिलताओं (जैसे समय से पूर्व/ अपरिपक्व या कम वजन वाले नवजात /LBW प्रसव), से जुड़ी है। गर्भावस्था के प्रारम्भिक चरण के दौरान फोलिक एसिड की कमी शिशुओं में जन्मजात विकृतियों का कारण होती है- जैसे कि तंत्रिका-सम्बन्धी ट्यूब दोष (एनटीडी-स्पिनैबिफिडा, हाइड्रोसेफली और एनेसेफली)।अतः प्रजनन क्षमता की उम्र की (15-45 वर्ष) सभी महिलाओं को गर्भाधान से पहले ही फोलिक एसिड का सेवक बढ़ा देना चाहिए।

इसके विपरीत, सुपोषित महिलाएं न केवल स्वस्थ शिशुओं को ही जन्म देती हैं अपितु उनके नवजात शिशुओं को कम जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। साथ ही, ऐसी सुपोषित माताएं स्तनपान अवस्था की अत्यधिक पोषक तत्वों की जरूरतों के साथ-साथ अपनी अगली गर्भावस्था/गर्भावस्थाओं के लिए भी पर्याप्त ऊर्जा संग्रहित कर पाती हैं।

गर्भवती महिलाओं की तरह, धात्री माताओं के लिए भी पर्याप्त पोषण अति महत्त्वपूर्ण है। शिशुओं और छोटे बच्चों के आहार सम्बन्धी राष्ट्रीय दिशानिर्देश (2006) के अनुसार, सभी शिशुओं को जीवन के पहले छह महीनों (180 दिन) तक केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए, और उसके बाद, पूरक आहार के साथ, स्तनपान कम से कम दो साल या उससे अधिक समय तक जारी रखा जाना चाहिए। इसीलिए, धात्री माताओं को पर्याप्त मात्रा में दुग्धस्राव के लिए अतिरिक्त पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है ताकि वे बच्चे की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। माता के आहार में किसी भी प्रकार की अपर्याप्तता उसके दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को ही प्रभावित करतकी है। सुपोषित माताएं, औसतन दिनभर में 850 ग्राम दुग्धस्राव कर सकती हैं; जबकि गम्भीर रूप से कुपोषित माताएं अपने शिशु को दिनभर में केवल 400 ग्राम दूध ही पिला पाती है।

अगर हम गुणवत्ता के सम्बन्ध में बात करें तो मां के अन्दर अपने बच्चे को भली प्रकार स्तनपान कराने की एक उत्कृष्ट क्षमता होती है, यहाँ तक कि जब आहार उसकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त भी हो। ऐसी स्थिति में, माताएं स्वयं के स्वास्थ्य की कीमत पर अपने शरीर के पोषक तत्वों के भंडार में से स्तनपान की जरूरतों को पूरा करती हैं। हालांकि, पानी में घुलनशील विटामिन (एस्कॉर्बिक एसिड और ‘बी’समूह के विटामिन की आहार में कमी होने माँ के दूध में इन विटामिनों का स्तर कम हो जाता है। इस प्रकार स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए, धात्री माताओं के इष्टतम पोषण-स्तर को बनाए रखने पर जोर देना अति आवश्यक है।

माँ का दूध बच्चे के लिए एक सम्पूर्ण आहार है और नवजात शिशु की चयापचय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशिष्ट रूप से अनुकूलित भी है। स्तनपान, इस प्रकार, बच्चे को पोषण प्रदान करने का एक प्राकृतिक तरीका है, जो उसे पूरी तरह से निर्भर-सह-सुरक्षित इंट्रा-यूटेराइन वातावरण से निकालकर स्वतंत्र  एक्स्ट्रा-यूरेटाइन जीवन के अनुकूल बनाने में भी मदद करता है।

माँ का दूध केवल पचाने में आसान होता है, बल्कि यह अत्यधिक पौष्टिक भी होता है तथा विभिन्न संक्रमणों और बीमारियों से शिशु को प्रतिरक्षा प्रदान करता है। स्तन (मानव) दूध में पर्याप्त मात्रा में ओमेगा-3 और ओमेगा-6 जैसे आवश्यक फैटी एसिड्स होते हैं जो तंत्रिका विकास और मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक होते हैं जिससे जीवन के शुरुआती महीनों में संज्ञानात्मक विकास होता है। इस प्रकार, ऊपरी आहार की तुलना में, स्तनपान करने वाले शिशुओं में बेहतर दृश्य तीक्ष्णता, बारीक मोटर कौशल एवं भाषा का जल्दी विकास भी शामिल हैं। हालांकि, धात्री माताओं- विशेषकर नई माताओं, को स्तनपान की सही विधि के बारे में सलाह देनी आवश्यक है।

भारत में, महिलाओं के आहार को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है और वे पूरे परिवार की भली-प्रकार देखभाल करके भी सबसे आखिरी में और बहुत कम खाती हैं। इसलिए, महिलाओं के पोषण को अधिक नहीं तो कम-से-कम एक समान महत्व दिया जाना चाहिए और परिवार के बाकी सदस्यों द्वारा इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। महिलाओं को खुद, विशेष रूप से गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, अपने आहार पर ध्यान देने की जरूरत है- मात्रा और गुणवत्ता दोनों के सन्दर्भ में, न केवल खुद के लिए बल्कि पैदा होने वाले बच्चे के लिए भी (बढ़ते भ्रूण) जोकि शुरुआती जीवन में विशेष रूप से माँ पर पूरी तरह से निर्भर है।

शिशुओं में, जठरात्र सम्बन्धी मार्ग (सुरक्षात्मक बाधा) की श्लेष्म झिल्ली अपरिपक्व होती है और इसलिए बच्चों में संक्रमण रोगों के होने का भारी खतरा सदैव बना रहता है। इसी प्रकार, प्रारम्भिक शैशवावस्था विकास का एक नाजुक दौर है, इस अवस्था में आजीवन अच्छे स्वास्थ्य की नींव रखने के लिए इष्टतम पोषण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। एक पूर्ण अवधि के बच्चे में प्रोटीन/कार्बोहाइड्रेट्स और पायसीकारी वसा को पचाने की क्षमता होती है। हालांकि, छह महीने की उम्र के बाद, शिशु भोजन को पचाने के लिए विभिन्न एंजाइमों के उत्पादन के साथ-साथ उसे संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के लिए एंटीबॉडी का उत्पादन करने की क्षमता भी प्राप्त करता है। हालांकि, शरीर में पानी का उच्च अनुपात होने के कारण दस्त और उल्टी जैसी स्थिति शिशु को निर्जलीकरण के लिए प्रवण बनाती है और गम्भीर स्थितियों में यह घातक भी साबित हो सकता है। तथ्य यह है कि माँ का दूध शिशु के दूध को पचाने की क्षमता के अनुसार ही बना होता है जोकि जन्म से लेकर छह महीने प्रसव के बाद तक सिर्फ स्तनपान करने के महत्व पर प्रकाश डालता है।

जन्म के पहले 5-6 महीनों के दौरान मस्तिष्क की कोशिकाओं (न्यूरॉन्स) की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है जोकि हालांकि धीमी दर पर जीवन के दूसरे वर्ष तक जारी रहती है। अतः इस अवधि के दौरान, किसी भी प्रकार का कुपोषण/अल्पपोषण, विशेष रूप से सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी जैसे लौह, आयोडीन, जस्ता और अन्य, बच्चे के मस्तिष्क के विकास को प्रभावित कर सकते हैं तथा जो धीमे मानसिक विकास की ओर ले जा सकता है। इसीलिए दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों के पोषण को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए और वर्तमान में सबसे अधिक जोर पहले 1,000 महत्त्वपूर्ण दिनों (गर्भधारण से लेकर 2 वर्ष की आयु तक; 270 दिन जन्म से पूर्व अर्थात भ्रूणावस्था+ 730 दिन प्रसवोत्तर जीवन) पर दिया जाना चाहिए। इस अवधि के दौरान लक्षित हस्तक्षेपों के साथ उचित देखभाल बच्चे के विकास पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है और साथ ही यह कुपोषण के अंतर-पीढ़ी चक्र को तोड़ने में भी मदद कर सकती है। इस प्रकार, यह अवधि बच्चे के उचित विकास एवं स्वस्थ नींव रखने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, समय पर पूरक आहार शुरू किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पूरक खाद्य पदार्थ बढ़ते बच्चे की पोषण सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा, प्रोटीन और विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करें। इस परिवर्तन चरण के दौरान शिशु अत्यधिक असुरक्षित होते हैं (सिर्फ स्तनपान करने वाले चरण से लेकर पूरक खाद्य पदार्थों की शुरुआत तक)। अतः इस दौरान उचित स्वच्छता/रखरखाव को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पूरक खाद्य पदार्थों को भली प्रकार घर में तैयार, संग्रहति करके बच्चे को खिलाया जाना चाहिए (बोतल/निप्पल निषिद्ध)। इष्टतम स्तनपान और पूरक आहार प्रथाएं, दस्त और निमोनिया जैसे संक्रमणों के कारण होने वाली 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की (अंडर 5) मृत्युदर (USMR) को कम  करने में भी, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

शिशुओं और बच्चों को इष्टतम पोषण प्रदान करना बेहद महत्त्वपूर्ण है लेकिन विकास की नियमित निगरानी भी उतनी ही आवश्यक है। जो न केवल यह दर्शाता है कि बच्चे की वृद्धि और विकास उचित है या नहीं, अपितु यह सम्भावित पोषण/स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के सामने आने से कहीं पहले उजागर भी करता है। शरीर के वजन के आधार पर, किसी भी अन्य उम्र/लिंग समूह  की तुलना में शिशुओं और छोटे बच्चों की पोषक तत्वों की जरूरत सबसे अधिक है। माता-पिता और बच्चे की देखभाल करने वाले लोगों के दिमाग में इस बात की बार-बार पुष्टि की जानी चाहिए, जो आमतौर पर उनकी बढ़ती जरूरतों को अनदेखा करते हैं।यह आमतौर पर माना जाता है कि बच्चे छोटे हैं और इसलिए उनकी पोषक आवश्यकताएं भी कम हैं और इसलिए छोटे शिशु/बच्चे को उनकी जरूरतों के अनुसार नही खिलाया जाता है। अतः यह कुपोषण के साथ-साथ अक्सर अनुचित एवं अपरिवर्तनीय शारीरिक/मानसिक विकास को जन्म देता है। इसलिए, शिशु और छोटे बच्चों के पोषण पर अत्यधिक महत्व दिया जाना चाहिए और उचित (आईवाईसीएफ-इंफेंट एंड यंग चाइल्ड फीडिंग) प्रथाओं का लोगों द्वारा पालन किया जाना चाहिए।

उचित वृद्धि और विकास के लिए, बचपन में भी पर्याप्त पोषण महत्त्वपूर्ण है। हालांकि, बचपन या किशोरावस्था में विकास दर उतनी तीव्र नही होती है इसलिए, प्रति किलो शरीर के वजन के आधार पर उनकी पोषक तत्वों की जरूरत विशेष रूप से ऊर्जा की जरूरतें शिशुओं की तुलना में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इस दौरान, भोजन की कई आदतें, पसंद और नापसंद आदि तय होती हैं जो उनके भोजन व खाने के पैटर्न को भी प्रभावित करते हैं और जिनमें से कुछ उनके बाद के जीवन में समस्याएं भी उत्पन्न कर सकती हैं। सावधानीपूर्वक समझ और सूझबूझ से इस आयु वर्ग में स्वस्थ खाने की आदतों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। खेल में शामिल बच्चों की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करना उनकी उचित वृद्धि और इष्टतम विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

बाल्यावस्था के दौरान खाना खाने की कम क्षमता और तुलनात्मक रूप से ऊर्जा व विभिन्न पोषक तत्वों की अत्यधिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, बच्चों को ऊर्जा व पौष्टिक तत्वों से भरपूर भोजन खाना आवश्यक है। अतः उन्हें पौष्टिक तत्वों से भरपूर व आसानी से आए जाने वाले खाद्य पदार्थ देने की प्रथा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और उन्हें कम अंतराल पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भोजन खिलाया जाना चाहिए। लम्बे समय तक कुपोषण स्टंटिंग, वेस्टिंग, गैर-संचारी रोगों (एनसीडी), रुग्णता और मृत्यु-दर में वृद्धि के साथ-साथ कार्यक्षमता में कमी की ओर अग्रसर करता है; और ये सभी देश को भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाने के लिए भी जिम्मेदार है।

चूंकि व्यापक रूप से कुपोषण आहार की अपर्याप्तता के कारण होता है, इसलिए दैनिक आहार में सुधार लाना आवश्यक है। विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को शामिल करके मात्रा, गुणवत्ता दोनों पर ध्यान देने के साथ-साथ आहार-विविधता को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता पोषक तत्वों के पर्याप्त सेवन को सुनिश्चित करने में मदद मिलती है। अतः संतुलित आहार में विभिन्न खाद्य पदार्थों को शामिल करके आम जन तक पहुँचाने की आवश्यकता है। उचित पोषण के साथ-साथ पर्याप्त शारीरिक गतिविधियां अच्छा स्वास्थ्य और फिटनेस बनाए रखने का सबसे अच्छा नुस्खा है।

बचपन से ही स्वस्थ  खाने की आदतों को अपनाना बेहद जरूरी है, जिसे बाद में वयस्कता के दौरान बनाए रखा जा सकता है। स्वस्थ भोजन की आदतों को अपनाने से बच्चों को न केवल बचपन में बल्कि सम्पूर्ण जीवन में स्वस्थ जीवनशैली का पालन करने में मदद मिलेगी। कुपोषण के दोहरे बोझ (अल्पपोषण के साथ-साथ अधिक वजन/मोटापा) को बचपन में ही ठीक करने की बहुत जरूरत है।

(लेखिका सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पोषण विशेषज्ञ, पूर्व निदेशक इंस्टीट्यूट ऑफ होम इकोनॉमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय और एसोसिएट, न्यूट्रीशन फाउडेशन ऑफ इंडिया हैं।)

ई-मेलः sjpassi@gmail.com

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Post By: Shivendra
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