महेश्वर बाँध : बँध गया बोरिया बिस्तर

नर्मदा बचाओ आन्दोलन पर शासन एवं कम्पनी द्वारा लगातार आरोप लगाए जाते रहे हैं कि वह कार्य में अड़ंगा डाल रहा है। उनके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता रहा है। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। नबआं और अन्य बुद्धिजीवी लगातार यह बताते रहे हैं कि इस परियोजना को विद्यमान मापदण्डों के हिसाब से पूरा करना सम्भव नहीं है। यदि जबरदस्ती इसे चालू कर भी दिया जाता है तो इससे प्रदेश को जबरदस्त आर्थिक हानि होगी। अन्तिम नोटिस में भी सरकार ने 5.32 रु. प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदने की बात की थी। म.प्र. सरकार वर्तमान में अधिकतम 3.50 रु. प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीद रही है। ‘‘जल तो अन्तरिक्ष में उत्पन्न होते हैं, जो नदी आदि में स्त्रोत रूप में बहते हैं, जो खोदने से उत्पन्न-कूप आदि के रूप में विद्यमान हैं, जो झरने आदि के रूप में स्वयं उत्पन्न होते हैं, जो समुद्र में जाकर मिल जाते हैं और जो दीप्तिमान एवं पवित्र हैं। हे भगवान! ऐसे दिव्य गुण सम्पन्न जल यहाँ मेरी रक्षा करें, मुझे प्राप्त हों।’’
एक प्रार्थना


इसे दुर्भाग्य के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि नर्मदा घाटी में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध यह दिव्य जल यहाँ के निवासियों के लिये शाप जैसा उतरा और तमाम निवासी न केवल बेदखल हुए बल्कि ऐसे स्थानों पर पहुँचा दिये गए जहाँ वर्ष भर जलसंकट बना रहता है। नर्मदा घाटी में बाँध सम्बन्धित 3300 परियोजनाओं के क्रियान्वयन की योजना है। उनमें से एक बड़ी परियोजना है (थी) महेश्वर विद्युत परियोजना। इस परियोजना की डूब में 61 गाँव आने वाले हैं।

इसे सन् 1992 में मध्य प्रदेश शासन ने मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के माध्यम से प्रारम्भ किया था। न मालूम किस तुफैल में तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने सन् 1994 में इसे एस. कुमार को हस्तान्तरित कर दिया। इस प्रकार यह देश की पहली निजी विद्युत परियोजना बन गई। उस समय इसकी लागत करीब 465 करोड़ बताई गई थी और अक्टूबर 2015 में जब सरकार ने इस परियोजना को निजी कम्पनी से वापस लेने का निश्चय किया तब तक इसकी लागत बढ़कर तकरीबन 6,600 करोड़ रु. यानी करीब 15 गुना अधिक हो गई।

कम्पनी का 3000 करोड़ रु. की लागत पर करीब 756 करोड़ रु. लगाना था लेकिन उसने महज 400 करोड़ रु. लगाए और वह भी सरकार, सरकारी क्षेत्र के बैंकों, जीवन बीमा निगम जैसी संस्थाओं के माध्यम से। एस. कुमार को कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों ने भरपूर प्रश्रय दिया। आखिरी-आखिरी समय तक उससे कहा गया कि वह तीन महीनों में 1700 करोड़ रु. का इन्तजाम कर ले और इस परियोजना को पुनः गतिमान कर दे। साथ ही उसे यह छूट दी गई थी वह रियायती दर (?) यानि 5.32 रु. प्रति यूनिट के हिसाब से बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित कर ले। अन्यथा उससे हुआ समझौता रद्द हो जाएगा।

यूँ भी सरकार के अलावा सभी को उम्मीद थी कि एस. कुमार ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता। वैसे भी एस. कुमार बैंकों के खराब ऋण (एनपीए) वाली कम्पनियों की सूची में ऊपर से पाँचवाँ है। वैसे वह पिछले एक साल से बाँध स्थल पर नियुक्त कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पा रही है। इतना ही इस कम्पनी के बोर्ड में अध्यक्ष, प्रबन्ध संचालक, निदेशक-वित्त, स्वतंत्र महिला निदेशक, और स्वतंत्र निदेशक के पद खाली हैं।

अपनी गलतबयानी और साँठगाँठ के चलते बिना पुनर्वास के बाँध का काम भी पूरा कर लिया गया। इसकी सच्चाई हरित न्यायाधिकरण (ग्रीन ट्रिब्यूनल) के नवीनतम फैसले से सामने आ गई है। ग़ौरतलब है सन् 2012 में गलत जानकारियाँ देकर पर्यावरण मंत्रालय से महेश्वर बाँध में 154 मीटर तक पानी भरने की अनुमति प्राप्त कर ली गई थी।

नए निर्णय में लिखा है, ‘‘मुख्य मुद्दा सम्बन्धित परियोजना से जुड़े पुनर्वास के पूरा होने का है। दिनांक 1 मई 2001 को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के अनुसार पुनर्वास का काम बाँध-निर्माण की प्रगति के साथ-साथ चलेगा। वर्तमान में निर्माण का कार्य पूरा हो गया है परन्तु पुनर्वास के काम में निर्माण के साथ आवश्यक गति नहीं रखी गई है। पुनर्वास का काम न होने का कारण परियोजनाकर्ता द्वारा जिम्मेदार एजेंसी (म.प्र. पावर मैनेजमेंट कम्पनी) को पैसा न देना है। पैसा उपलब्ध कराने के मुद्दे पर न जाते हुए हम अपना आदेश पुनः दोहराना चाहते हैं कि पुनर्वास पूरा किये बगैर बाँध के गेट बन्द या गिराए नहीं जाएँगे जिससे डूब आये। हम इस मामले को अनिश्चितकाल के लिये स्थगित करते हैं। पक्षों को छूट दी जाती है कि पुनर्वास का कार्य पूरा हो जाने के बाद वो बाँध के गेट बन्द करने की अर्जी कर सकते हैं।”

नर्मदा बचाओ आन्दोलन पर शासन एवं कम्पनी द्वारा लगातार आरोप लगाए जाते रहे हैं कि वह कार्य में अड़ंगा डाल रहा है। उनके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता रहा है। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। नबआं और अन्य बुद्धिजीवी लगातार यह बताते रहे हैं कि इस परियोजना को विद्यमान मापदण्डों के हिसाब से पूरा करना सम्भव नहीं है।

यदि जबरदस्ती इसे चालू कर भी दिया जाता है तो इससे प्रदेश को जबरदस्त आर्थिक हानि होगी। गौर करिए अन्तिम नोटिस में भी सरकार ने 5.32 रु. प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदने की बात की थी। म.प्र. सरकार वर्तमान में अधिकतम 3.50 रु. प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीद रही है।

सरकारी कम्पनियाँ तो 2 रु. प्रति यूनिट से कम पर बिजली दे रही हैं। यानि सरकार एस. कुमार को प्रति यूनिट करीब 2 रु. का अतिरिक्त भुगतान करेगी। इस परियोजना से प्रतिवर्ष करीब 100 करोड़ यूनिट बिजली पैदा होगी। यानि राज्य को प्रतिवर्ष कम से कम 200 करोड़ रु. का सीधा-सीधा नुकसान होगा। लेकिन यह भी अधूरी सच्चाई है।

सरकार के पास दूसरा विकल्प है कि वह इस परियोजना को हस्तगत यानी अपने नियंत्रण में ले ले। इस विकल्प से सामान्यतया कौन इनकार करेगा? व्यावहारिक तौर पर विचार करने से कुछ अलग ही स्थितियाँ सामने आती हैं। नए भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो जाने के बाद सरकार के ऊपर पुनर्वास हेतु कम-से-कम 2 हजार करोड़ रु. का अतिरिक्त भार आएगा।

>मध्य प्रदेश की आर्थिक स्थिति किसी से छुपी नहीं है। उसके पास तो किसानों को राहत राशि बाँटने तक का धन नहीं है। इसके अलावा अतिरिक्त वित्तीय भार के बाद यहाँ से उत्पादित बिजली की दर 9 से 10 रु. प्रति यूनिट तक पड़ सकती है। अर्थात प्रतिवर्ष होने वाला घाटा 600 करोड़ रु. तक हो सकता है। इसके बावजूद क्या इस परियोजना को परिचालित किया जाना चाहिए?

बैठक में तीसरा विकल्प सुझाया गया था कि सरकार इस परियोजना को रद्द कर दे। सम्भवतः यही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। इससे पुनर्वास की लागत न लगने व हजारों लोगों के बेदखली से बचने के अलावा राज्य को प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ रु. की हानि से बचाया जा सकेगा। वैसे भी भुगतान सम्बन्धी सारी वित्तीय जिम्मेदारियाँ एस. कुमार की हैं। वह अपने लेनदारों से सीधेे निपटे।

सरकार यदि फटे में पैर डालेगी तो सारी वित्तीय जिम्मेदारियाँ उस पर आ जाएँगी। इस परियोजना की वर्तमान स्थिति के लिये जिम्मेदार लोगों को भी कटघरे में खड़ा किया जाये। एक सरकारी परियोजना को निजी हाथों में देने के परिणामों को भी सार्वजनिक किया जाना जरूरी है। प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशान्त भूषण तो इस परियोजना को भारत के सबसे बड़े घोटालों मे से एक मानते हैं क्योंकि बार-बार स्थितियाँ स्पष्ट कर देने के बावजूद राजनीतिज्ञ, उद्योगपतियों, व्यापारियों एवं नौकरशाहों की लूट की मानसिकता में बदलाव नहीं आया और उन्होंने आम जनता को देखकर भी मक्खी निगलने पर मजबूर किया।

दिग्विजय सिंह से लेकर शिवराज सिंह तक की सरकारें आन्दोलनकारियों को झूठा बताती रहीं जबकि यह पहले दिन से ही तय था कि एस. कुमार इस परियोजना को पूरा कर ही नहीं सकता। क्या अब सरकार अपनी गलती मानकर सार्वजनिक तौर पर क्षमायाचना करेगी? वैसे गलती मानने की तो कोई परम्परा हमारे लोकतंत्र में है ही नहीं।

पुनर्वास में हो रही खामियों के मद्देनज़र नर्मदा बचाओ आन्दोलन अपने संघर्ष में एक नारा लगाता था, ‘‘एस. कुुमार कहना मान ले, बोरिया बस्तर बाँध ले।” अब तो वास्तव में कम्पनी के बोरिया बिस्तर बँध ही गए हैं। सन् 1999 में महेश्वर बाँध की डूब में जालुड़ नाम का पहला गाँव आने वाला था। वहाँ से जाने से इनकार करने पर उनके पानी के पाइपों में सीमेंट भर दी गई थी और खड़ी फसल तबाह कर दी गई थी।

पुनर्वास के लिये पथरीली भूमि का चुनाव हुआ था। ऋणदाताओं से इस तथ्य को छुपाने के लिये सामराज, गाँव के तालाब की गाद से इस पथरीली जमीन सजावटी ढंग से ढक दिया गया था। इससे झील के किनारे के गाँव भी तबाह और कंगाल हो गए।

तब अरुंधति रॉय ने लिखा था, ‘‘इसी तरह भारत काम करता है। यह महेश्वर बाँध की उत्पत्ति कथा है। पहले गाँव की कहानी! बाकी उनसठ का क्या होगा काश कि इस बाँध को बद्दुआएँ लगें। काश कि बुलडोजर उद्योगपतियों की तरफ मुड़ जाये।” अन्ततः बद्दुआओं ने असर किया और बुलडोजर अब एस. कुमार की ओर मुड़ गया है।

निमाड़ के निवासियों एवं नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने भारत की पहली निजी विद्युत परियोजना की वास्तविकता को सामने लाकर हम सबको नई ऊर्जा, उत्साह और उम्मीदों से भरा है। अब म.प्र. सरकार को चाहिए कि 100 कोड़े और 100 प्याज खाने वाली स्थिति से स्वयं को और प्रदेश को बचाए।

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Post By: RuralWater
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