महाराष्ट्र का सिंचाई घोटाला

हमारे देश में पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं तय की गई हैं। इसमें आमतौर पर पहले नंबर पर पेयजल, दूसरे नंबर पर सिंचाई और तीसरे नंबर पर उद्योगों को रखा जाता है। हर राज्य की अपनी जलनीति होती है, जिसमें यह वरीयता क्रम स्पष्ट किया जाता है। इसके बावजूद हर राज्य में बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उद्योगों को और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों को पानी दिया जाता है। लेकिन महाराष्ट्र में तो इसे नीति का ही हिस्सा बना दिया गया। राज्य की 2003 की जल नीति में पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं में पेयजल के बाद उद्योगों को रखा गया और खेती का नंबर उसके बाद कर दिया गया। पिछले साल का उत्तरार्ध महाराष्ट्र की राजनीति में काफी गरम रहा। सिंचाई योजनाओं में घोटाले और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप जल संसाधन विभाग पर लगे। उपमुख्यमंत्री अजित पवार के इस्तीफ़े और वापसी का नाटक हुआ। जले पर नमक छिड़कने की भूमिका राज्य सरकार की ही सालाना आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने निभाई। इस रिपोर्ट से पता चला कि पिछले दस सालों में राज्य के सिंचित क्षेत्र में केवल 0.1 फीसदी बढ़ोतरी हुई। यह तब हुआ जब इसी अवधि में प्रधानमंत्री ने विदर्भ के किसानों के लिए विशेष पैकेज दिया, जिसमें सिंचाई योजनाओं का प्रमुख स्थान था। इस रिपोर्ट से इस सवाल को बल मिला कि इन दस सालों में महाराष्ट्र में सिंचाई की मद में जो करीब 70,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, वो कहां गए। माहौल इतना गरम हुआ कि मुख्यमंत्री को सिंचाई हालत पर श्वेतपत्र निकालने की घोषणा करनी पड़ी। पंद्रह दिन में निकलने वाला श्वेतपत्र कई महीनों बाद नवंबर के अंत में निकला। इस श्वेतपत्र का विश्लेषण इस लेख का मकसद नहीं है। लेकिन इसमें सिंचाई में कमी के जो कारण बताए गए हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण की चर्चा यहां की गई है।

श्वेतपत्र से मालूम चलता है कि पिछले दस सालों में राज्य में सिंचाई के लिए आबंटित पानी में से करीब 189.6 करोड़ घनमीटर पानी गैर-सिंचाई उपयोगों की तरफ मोड़ा गया। श्वेतपत्र के मुताबिक, इस पानी से 2.85 लाख हेक्टेयर खेती सिंचित हो सकती थी। इसमें से बड़ी मात्रा में पानी उद्योगों के लिए लिया गया है, जिनमें कोयला चलित बिजली कारखाने प्रमुख हैं। हालांकि गैर-सिंचाई उपयोगों में शहरों के लिए भी बड़ी मात्रा में पानी लिया गया है और इसे पेयजल के नाम से जायज़ ठहराया है। परंतु शहरों में इस्तेमाल होने वाला सारा पानी पीने या घरेलू उपयोग का नहीं होता। इसका एक हिस्सा व्यापारिक उपयोग में जाता है, जैसे कि मॉल, बड़ी होटलें आदि। शहर बनाम गांव का एक सवाल भी यहां आता है। हमारे देश में पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं तय की गई हैं। इसमें आमतौर पर पहले नंबर पर पेयजल, दूसरे नंबर पर सिंचाई और तीसरे नंबर पर उद्योगों को रखा जाता है। हर राज्य की अपनी जलनीति होती है, जिसमें यह वरीयता क्रम स्पष्ट किया जाता है। इसके बावजूद हर राज्य में बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उद्योगों को और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों को पानी दिया जाता है। लेकिन महाराष्ट्र में तो इसे नीति का ही हिस्सा बना दिया गया। राज्य की 2003 की जल नीति में पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं में पेयजल के बाद उद्योगों को रखा गया और खेती का नंबर उसके बाद कर दिया गया।

इस नीति-परिवर्तन के चलते बड़े पैमाने पर सिंचाई का पानी अन्य कामों के लिए मोड़ा गया। पुणे की ‘प्रयास’ संस्था ने 2011 में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी निकाल कर यह पता करने की कोशिश की कि यह पानी कहां गया। श्वेतपत्र में बताए गए 189.6 करोड़ घन मीटर पानी में से 150 करोड़ की जानकारी उसे मिल पाई। इस जानकारी और प्रयास के विश्लेषण के मुताबिक 80.6 करोड़ घनमीटर यानी 54 फीसदी पानी उद्योगों को दिया गया। इसमें सबसे ज्यादा यानी 43.01 करोड़ घनमीटर पानी कोयला चालित ताप बिजलीघरों को दिया गया है। विडंबना तो यह है कि सिंचाई के लिए सुरक्षित पानी में से गैर-सिंचाई उपयोग के लिए मोड़े गए इस 150 करोड़ घनमीटर पानी में से 47.4 करोड़ घनमीटर विदर्भ इलाके का है, जो किसानों की आत्महत्या के कारण सुर्खियों में छाया रहा है।

इस तरह भ्रष्टाचार और घोटाले तो बाद की बात है, महाराष्ट्र के किसानों का पानी पहले ही लुट चुका था। ये फैसले जिस तरह हुए, वह भी विवाद का मुद्दा बन गया। 2005 में महाराष्ट्र ने ‘महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण विधेयक’ पास करके इसी नाम के प्राधिकरण की स्थापना की थी। राज्य में पानी के किसी भी उपयोग के लिए आबंटन के अधिकार कानून द्वारा इस प्राधिकरण को दिए गए। इसके बावजूद कई सालों तक गैर-सिंचाई के पानी का यह आबंटन राज्य सरकार की एक उच्च अधिकार समिति करती रही। जब यह बड़ा मुद्दा बना, तो सरकार ने पहले एक अध्यादेश लाकर और बाद में कानून में संशोधन करके प्राधिकरण से यह अधिकार लेकर मंत्रीमंडल को सौंप दिए और इसे पिछली तारीख से लागू कर दिया। व्यापक विरोध का इतना असर ज़रूर हुआ कि सरकार ने जलनीति में भी संशोधन किया तथा सिंचाई की वरीयता बदल कर उसे उद्योगों के ऊपर, दूसरे नंबर पर ले आई।

लेकिन यह मानना गलत होगा कि कागज़ पर प्राथमिकता के इस बदलाव से ज़मीनी हालात में कोई बदलाव होगा। दरअसल राज्य में बड़े पैमाने पर उद्योग प्रस्तावित हैं, खासकर ताप बिजली कारखाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज)। इनमें से कई के साथ प्रदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियों के हित जुड़े हुए हैं। सबसे गंभीर समस्या विदर्भ में ही दिखती है।

विदर्भ में जो कोयला चालित ताप बिजली कारखाने प्रस्तावित हैं, पर्यावरण मंत्रालय के पास मंजूरी हेतु विचाराधीन हैं या मंजूरी प्राप्त कर चुके हैं, उनकी कुल क्षमता 40,000 मेगावाट के करीब है। विदर्भ में अभी 5260 मेगावाट क्षमता के ताप बिजलीघर हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े पैमाने पर नए बिजली कारखाने आने वाले हैं। इतनी मात्रा में अगर कोयला चालित बिजली कारखाने लगाए गए तो इनके लिए करीब 160 करोड़ घनमीटर पानी की जरूरत होगी। यह मात्रा पूरे विदर्भ में एक साल (2009-10) में सिंचाई में इस्तेमाल होने वाले पानी की मात्रा के बराबर है और इसमें ढाई लाख से ज्यादा हेक्टेयर ज़मीन सिंचित करने की क्षमता है। इस तरह, कागज़ पर भले ही अब सिंचाई को प्राथमिकता दी गई हो, ज्यादा संभावना यही है कि बड़े पैमाने पर उद्योगों और ताप बिजलीघरों की तरफ ही पानी मोड़ा जाएगा।

महाराष्ट्र में सूखे की वजह से बर्बाद होती फसलमहाराष्ट्र में सूखे की वजह से बर्बाद होती फसलअमरावती जिले में सोफिया इंडिया बुल्स कंपनी के ताप बिजलीघर का वहां के किसान विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उनका सिंचाई का पानी छिन जाएगा। उन्होंने कंपनी की पानी की पाईप लाईन रोक दी। कुछ साल पहले चंद्रपुर के 2450 मेगावाट के विशाल ताप बिजलीघर की कुछ इकाइयों को गर्मी के महीनों में बंद करना पड़ा, क्योंकि नदी में पानी नहीं बचा और जो थोड़ा पानी था, उसे पेयजल के लिए आरक्षित करना पड़ा। इस तरह के टकराव भविष्य में काफी बढ़ जाएंगे।

और यह तो केवल वह पानी है जो ये कारखाने सीधे उपयोग करेंगे। इसके अलावा जो पानी इन कारख़ानों से निकलने वाली राख और दूसरी गंदगी से प्रदूषित होगा, वह अलग है। इतने सारे कोयला चालित बिजली कारखाने विदर्भ में लगाने के पीछे तर्क यह है कि वहां कोयला बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। पर कोयला खदानों का भी जल स्रोतों पर गंभीर असर पड़ता है। खास तौर पर भूजल के स्रोत तहस-नहस हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि हर खदान अपने आप में एक विशाल और बहुत गहरे कुएँ की तरह है, जो आसपास का भूजल अपने अंदर खींच लेती है और भूजल व सतही जल के जल मार्ग भी मोड़-तोड़ देती है।

इसलिए ताप बिजलीघरों और अन्य उद्योगों की वजह से विदर्भ और महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों में जल स्रोतों पर गंभीर असर पड़ने वाला है तथा खेती से छिनकर पानी उद्योगों की तरफ जाने वाला है। महाराष्ट्र पहले ही सूखे की समस्या, कर्ज में डूबती किसानी, किसानों की आत्महत्या और बेरोज़गारी जूझ रहा है। पिछले पंद्रह बरसों में देश में सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में हुई है। इसके बावजूद पानी की यह बंदरबांट और लूट आने वाले समय में हालात को और भयंकर बना सकती है। शायद राज्य में सिंचाई क्षेत्र का सबसे बड़ा घोटाला यही है।

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