महाकुंभ की पवित्र छाया में

मैं कुंभ की पवित्रता का अनुभव कर सकता हूं और उनके दिलों की धड़कन सुन सकता हूं जो पता नहीं कहां-कहां से प्रयाग में जमा होते हैं और कड़क ठंड में गंगा-यमुना की धारा में डुबकी लगाते हैं। डुबकी लगाते ही जैसे उनकी कोई बहुत बड़ी आकांक्षा पूरी हो जाती है। उस समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि महाकुंभ में स्नान करने से सारे पाप कट जाते हैं। बल्कि उस समय तो अपने पाप भी याद नहीं आते होंगे। कुंभ में मैं कभी नहीं गया। गंगा में नहाए भी कई युग बीत गए। यमुना में तो नहाना कभी हुआ ही नहीं। नास्तिकता के बुखार में भी कोई कमी नहीं आई है। कहते हैं, वैज्ञानिक ढंग से सोचने वाले भी बुढ़ापे में धर्म और ईश्वर की शरण में चले आते हैं। ऐसा बुढ़ापा भी नहीं आया है और आ ही जाएगा, तब भी मुझे यकीन है कि मैं अपने जीवन भर के विचारों को चुपके से विदा करने का पाप नहीं करूंगा। जिनको ईश्वर की जरूरत है, वे ईश्वर का आह्वान करें। उसकी पूजा-अर्चना करें। लेकिन स्वयं मुझे कभी ईश्वर की जरूरत महसूस नहीं हुई। धर्म को भी मैंने अपने संदर्भ में अप्रासंगिक ही पाया है। लोकतंत्र, समाजवाद और मानव अधिकार ही मेरे देवता रहे हैं, आज भी हैं।

फिर भी, इस सबके बावजूद भी, मैं कुंभ की पवित्रता का अनुभव कर सकता हूं और उनके दिलों की धड़कन सुन सकता हूं जो पता नहीं कहां-कहां से प्रयाग में जमा होते हैं और कड़क ठंड में गंगा-यमुना की धारा में डुबकी लगाते हैं। डुबकी लगाते ही जैसे उनकी कोई बहुत बड़ी आकांक्षा पूरी हो जाती है। उस समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि महाकुंभ में स्नान करने से सारे पाप कट जाते हैं। बल्कि उस समय तो अपने पाप भी याद नहीं आते होंगे। एक विधायक वातावरण में नकारात्मक विचार पता नहीं कहां लुप्त हो जाते हैं। जो प्रत्यक्ष रहता है, वह है एक मंगलमय परिवेश, जिसमें सारे दुख-कष्ट खिसक कर एक अनिर्वचनीय आनंद के लिए जगह खाली कर देते हैं। क्या यह ब्रह्म से साक्षात्कार का पल होता है? पता नहीं। क्या यह संपूर्ण सत्ता के साथ एकाकार होने की अनुभूति है? यह भी पता नहीं। यह जरूर एहसास होता है कि इस दुर्लभ पल में दुनिया का सारा कलुष अचानक घुल जाता है, सारे छल-प्रपंच पीछे छूट जाते हैं और एक पवित्रता का अनुभव चारों ओर से घेर लेता है।

यह अनुभव शायद मुझे न हो। क्योंकि, मेरा ईश्वर जवानी में ही मर गया था। यह अनुभव उन्हें भी न हो, जो धर्म का मजाक उड़ाते हैं। उन्हें भी क्या होता होगा, जो सज-धज कर, हाथी-घोड़े पर सवार होकर, बाजे-गाजे के साथ, घमंड से चूर, मेले में अपनी खास जगह के लिए संघर्षरत, राजा की तरह पधारते हैं। वे अपना ईश्वर खुद हैं। दूसरे बाबा लोगों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। यह उनके लिए एक 'कंपल्सरी अटेंडेंस' है, जैसे संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में सांसद या 26 जनवरी की परेड में वीआईपी लोग अनिवार्य रूप से उपस्थित होते हैं। जिस धर्म में पद या संपत्ति के आधार पर ऊँच-नीच हो, लोग वीआईपी बनने के लिए संघर्ष करते हों, जहां चेला प्रणाली हो, उसे मैं धर्म नहीं मानता। परंतु धर्म की शायद ही कोई नदी हो, जिसमें अधर्म का कोई नाला या परनाला आकर न मिलता हो।

शायद हम सभी अच्छाई और बुराई के मेल से बने हैं। इसलिए जैसे धर्म में, वैसे ही सेकुलर संस्थानों और व्यवस्थाओं में भी विकृतियां उग आती हैं। लेकिन जब मैं कुंभ या महाकुंभ के बारे में सोचता हूं तो प्रभुता और ऐश्वर्य से दमकते ये चेहरे मुझे याद नहीं आते, ध्यान आता है उन करोड़ों मामूली आदमियों का, जिनके हृदय में श्रद्धा और भक्ति का दीपक जलता रहता है। दुख है कि इस दीये का प्रकाश जीवन में कम दिखाई पड़ता है। जैसे एक-दो लट्टू जलने से शहर प्रकाशित नहीं हो जाता, वैसे ही साल में एक-दो बार पवित्रता की नदी में डुबकी लगाने से जीवन में उजाला नहीं छा जाता।

महाकुंभ का यह महान मिलन किसी नास्तिक के लिए कोई घटना नहीं है, वैज्ञानिक मस्तिष्क के लिए तो यह एक हानिकर रूढ़ि भी है, क्योंकि गंगा और यमुना, दोनों नदियों में इतना प्रदूषण बहता रहता है कि उनके पानी का स्पर्श भी संक्रमण का कारण बन सकता है और आधुनिक व्यक्ति के लिए यह इस पर निर्भर है कि उसकी आधुनिकता किस प्रकार की है। मैंने बहुत-से ऐसे आधुनिक देखे हैं और उनके बारे में सुना है जो नियमित रूप से हरिद्वार, वैष्णो देवी, प्रयाग, तिरुपति आदि जाते हैं। ये अपनी आधुनिकता और अपनी आस्थाओं को अलग-अलग कमरों में रखते हैं और एक की दूसरे से भिड़ंत नहीं होने देते। इनमें उच्च कोटि के वैज्ञानिक भी हैं, जो किसी नए ढंग की मिसाइल का एक्सपेरिमेंट करने या आकाश में चंद्रयान छोड़ने के पहले ईश्वर के दरबार में हाजिरी दे आना जरूरी समझते हैं और ऐसे आधुनिक भी, जो बड़े से बड़े त्योहार के दिन भी अपना मधुपर्व मनाते हैं और मौज-मस्ती तथा नाचने-गाने में अपनी समस्त ऊर्जा लगा देते हैं। इनके लिए छुट्टी का कोई भी दिन सुखवाद के देवता को अर्घ्य चढ़ाने का दिन होता है।

संक्रमण के इस दौर में तरह-तरह के आचरण का दिखाई देना स्वाभाविक ही है। धार्मिक आस्था अभी पूरी तरह गई नहीं है और आधुनिकता ने हमारे दिमाग में पक्की जगह बनाई नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि आस्था के धनी आधुनिकता के साथ तर्क-वितर्क नहीं करते और आधुनिकता भी उनके देवी-देवताओं को छेड़ती नहीं है। आज किसी दयानंद सरस्वती का पैदा होना लगभग असंभव है। ऐसे ही, शंकराचार्य भी अब नहीं हो सकते जो दक्षिण से उत्तर तक सनातन धर्म का प्रचार करें। यह सह-अस्तित्व का समय है, जिसके पीछे लोकतांत्रिक उदारता नहीं, बल्कि विश्वासों का समझौता है। ईश्वर है भी और नहीं भी है, धर्म की चिंता है भी और नहीं भी है, मंदिरों में धार्मिकता का वातावरण छीज रहा है, पर उनका वैभव बढ़ता जाता है। पूरे भारत में धर्म का टर्नओवर क्या भारतीय रेल के टर्नओवर से कम होगा?

यही वजह है कि कुंभ की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आती है, बल्कि पिछले कुंभ की तुलना में अगले कुंभ में और ज्यादा लोग पहुंचते हैं। इसमें लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार और आवागमन के साधनों में वृद्धि की निश्चित भूमिका भी है। इससे पता चलता है कि भौतिक विकास और धार्मिकता के बीच हमेशा टकराव का संबंध नहीं होता। एक जमाने में जैन साधुओं में बहस चला करती थी कि लाउडस्पीकर का उपयोग हिंसा है या अहिंसा। अब जैन धर्म के प्राय: सभी पंथ लाउडस्पीकर को अपना चुके हैं। महात्मा लोग टीवी पर प्रवचन करते हैं तथा वैज्ञानिक सोच के घोर विरोधी भी नए से नए वैज्ञानिक औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुझे दुख है तो इस बात का कि संक्रमण को सही दिशा में ले जाने के लिए सेकुलर कुंभ क्यों नहीं आयोजित होते। जैसे विश्व भर में 1 मई मनाया जाता है, वैसे ही जनतंत्र, समाजवाद, मानव अधिकार, स्त्री की गरिमा आदि को प्रमोट करने के लिए बड़े-बड़े संगम क्यों नहीं हो सकते?

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