मेरी प्यारी टिहरी


अब प्रायः यह निश्चित ही हो गया है कि एक विशाल बाँध निर्माण के फलस्वरूप टिहरी शीघ्र ही जलमग्न हो जाएगी उसका अस्तित्व सदा के लिये लुप्त हो जाएगा। सार्वजनिक हित के लिये टिहरी का यह बलिदान हमें उन शहीदों की याद दिलाता है जिन्होंने देश की भलाई के लिये अपने प्राणों की आहुति दी। शहीदों की कुर्बानियों से हमारा देश स्वतन्त्र हुआ, उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ा, खुशहाली के युग का सूत्रपात हुआ किन्तु अपने अनुपम त्याग के फल को देखने के लिये वे स्वर्ग-लोक से नहीं लौटे और न हम ही कभी फिर उनको देख सकेंगे। इसी प्रकार टिहरी भी देश को सुखी और समृद्ध बनाने के उद्देश्य से अपने अस्तित्व को मिटाएगी। उसके आत्मोत्सर्ग से हमारे देश में अनेक कल्याणकारी योजनाओं की स्थापना होगी जिससे हमारे देशवासी लाभान्वित होंगे।

ऐसी परोपकारिणी टिहरी का हम अब दर्शन नहीं कर सकेंगे। वह सदा के लिये हमसे बिछुड़ जाएगी। किन्तु उसके अनुपम त्याग को हम कभी नहीं भूल सकेंगे। जब तक भागीरथी और भिलंगना की धाराओं में पानी रहेगा तब तक टिहरी की स्मृति हमारे मानस पटल पर अक्षुण्ण बनी रहेगी। गंगा भागीरथी और भिलंगना की गोद में टिहरी ने जन्म लिया था। उन्हीं की गोद में वह फली-फूली और अन्त में उन्हीं की गोद में वह समा जाएगी जैसे सीता माता पृथ्वी से उत्पन्न हुई और अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करने के पश्चात पृथ्वी में ही समा गयी। उसी प्रकार टिहरी भी अपने सुख-समृद्धि के इतिहास को समाप्त कर गंगा माता की गोद में समा जाएगी।

टिहरी के जनक महाराजा सुदर्शन शाह थे जिन्होंने बड़े लाड़-प्यार से अपनी प्यारी बेटी का पालन-पोषण किया। वे एक उच्च कोटि के कवि और कलाकार थे। देव भाषा संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था। उनके दरबार में उस समय के संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित हरिदत्त जी रहते थे। वे महाराज के राजगुरु भी थे। टिहरी का यह सौभाग्य था कि उसको अपने शैशव काल में महाराजा सुदर्शन शाह जैसे कुशल शासक का संरक्षण और हरिदत्त जी जैसे विद्वान राजगुरु का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ जिससे उसमें प्रारम्भ से ही अच्छे संस्कारों का बीजारोपण हुआ। यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के अनुसार टिहरी के निवासियों में उस समय जिन स्वस्थ संस्कारों का प्रादुर्भाव हुआ वे राजा और प्रजा दोनों में चिरकाल तक अक्षुण्ण बने रहे। इस प्रकार 44 वर्षों के शासन काल में महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी को एक पक्की बुनियाद पर प्रतिष्ठापित कर दिया था।

महाराजा सुदर्शन शाह के पश्चात उनके पुत्र महाराजा भवानी शाह टिहरी के शासक हुए। अपने 12 वर्षों के शासन काल में जिस राज्य को उन्होंने अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया था उसको उन्होंने व्यवस्थित एवं संगठित किया।

महाराजा भवानी शाह के पश्चात उनके पुत्र महाराजा प्रतापशाह सिंहासनारूढ़ हुए। वे एक कुशल शासक थे। उनके शासनकाल में टिहरी में अंग्रेजी शिक्षा का सूत्रपात हुआ। उन्होंने अपने राज्य में अनेक विभागों की जैसे जंगलात, पुलिस, शिक्षा, न्यायालय आदि की स्थापना की। इन सब विभागों की महाराज स्वयं देखभाल करते थे। इस प्रकार अपने 15 वर्षों के राज्य काल में महाराजा प्रतापशाह ने टिहरी को आधुनिक नगर का प्रारम्भिक स्वरूप प्रदान कर दिया था।

उनके दिवंगत होने पर उनके पुत्र महाराजा कीर्तिशाह ने टिहरी के शासन की बागडोर सम्भाली। वे एक विद्वान और नीतिनिपुण शासक थे। टिहरी में उन्होंने अनेक विभागों का पुनर्गठन किया। उनके लिये भवन बनवाए, बिजली, पानी, सड़क आदि की समुचित व्यवस्था की। शिक्षा का प्रचार और प्रसार किया। एक घण्टाघर का निर्माण करवाया। इस प्रकार अपने 22 वर्षों के राज्य काल में महाराजा कीर्तिशाह ने टिहरी को सर्वांगीण प्रगति की ओर उन्मुख किया। उनके प्रयासों से टिहरी के स्तर और मान में पर्याप्त वृद्धि हुई। वास्तव में आज की टिहरी के निर्माता वही थे।

महाराजा कीर्तिशाह के स्वर्गवासी होने पर उनके पुत्र महाराजा नरेन्द्र शाह सिंहासनासीन हुए। वे एक योग्य प्रशासक होने के अतिरिक्त एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उनके यशस्वी पिता ने टिहरी को प्रगति के जिस मार्ग पर छोड़ दिया था उसको उन्होंने अपने 29 वर्षों के राज्य काल में और अधिक प्रशस्त किया और टिहरी को वह स्वरूप प्रदान किया जिसको हम आज देखते हैं।

इस प्रकार 120 वर्षों तक पाँच नरेशों के द्वारा पालित-पोषित और परिवर्द्धित टिहरी सार्वजनिक हित हेतु जलमग्न होने जा रही है। अब हमको उसका वह अनुपम सौन्दर्य दृष्टिगोचर नहीं होगा जो हमको अब तक अनुप्राणित करता रहा। अब टिहरी नरेशों के वे राजप्रसाद नहीं दिखाई देंगे जो एक दुर्ग की भाँति टिहरी की रक्षा में सन्नद्ध रहते थे। उनके नीचे न्यायालय और कार्यालयों के विशाल भवन हैं जहाँ एक समय में टिहरी नरेश राजकीय कार्य हेतु चार घोड़ों की बण्घी में आया करते थे वे अदृश्य हो जाएँगे। उनके समीप राजमाता जी के द्वारा निर्मित नरेन्द्र महिला विद्यालय जिसने 1963 से अब तक सैकड़ों बालिकाओं को निःशुल्क उच्च शिक्षा प्रदान की है और जो राजमाता जी के शिक्षा प्रेम और परोपकार का प्रतीक है जल समाधि ले लेगा। इस विद्यालय के सामने दीक्षा विद्यालय है जहाँ 1950 से सैकड़ों अध्यापकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया है। इसके पास ही स्वामी रामतीर्थ संघटक महाविद्यालय और ठक्कर बापा छात्रावास हैं वे सब वरुणदेवता की शरण में चले जाएँगे।

चनाखेत में महाराजा कीर्तिशाह के कला प्रेम का प्रतीक घण्टाघर स्थित है। उनके पास ही गाँधीजी जी की मूर्ति है। इसी स्थान में नगर पालिका का कार्यालय, मुख्य चिकित्सालय, सुमन पुस्तकालय और कुछ संभ्रान्त व्यक्तियों तथा उच्चाधिकारियों के आवास गृह हैं। ये भी जल में लुप्त हो जाएँगे। इनके समीप ही प्रताप इण्टर कॉलेज है जो टिहरी गढ़वाल में शिक्षा का आदि स्रोत है। इस विद्यालय से हजारों छात्रों ने शिक्षा प्राप्त की है जो अभी भी मातृवत इसको आदर की दृष्टि से देखते हैं। अपनी सफलताओं और उपलब्धियों का श्रेय इसी विद्यालय को देकर वे इसका गुणगान करते हैं। इसके जलमग्न होने से उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही है।

प्राताप इण्टर कॉलेज के नीचे जो राजपथ है उसके दाहिनी ओर श्री सत्येश्वर महादेव का मन्दिर है जिसको देखते ही श्रद्धालु लोग हाथ जोड़कर नतमस्तक हो जाते हैं। टिहरी के विलीन होने पर भगवान महादेव न मालूम कहाँ प्रकट होते हैं। इस मन्दिर से थोड़ा आगे टिहरी बाजार है जो सुमन चौक से प्रारम्भ होकर बस अड्डे पर समाप्त हो जाता है। बाजार के दोनों ओर पंक्तिबद्ध दुकानें हैं सुमन चौक के दाहिनी और बाँयी तरफ टिहरी के नागरिकों के आवास गृह हैं। मुख्य बाजार के थोड़ा पीछे आर्य समाज मन्दिर, पुलिस थाना और राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज हैं। इस स्थान को पहले कोतवाली का तप्पड़ कहते थे किन्तु अब आजाद मैदान कहते हैं। यहीं पर सुमनजी की मूर्ति भी है।

आजाद मैदान से संगम मार्ग प्रारम्भ होता है जिसका अन्त भागीरथी और भिलंगना के संगम पर हो जाता है। यह वही संगम है जिसकी महिमा और महात्म्य का वर्णन केदारखण्ड में विस्तृत रूप से किया गया है। यहाँ टिहरी के श्रद्धालु नर-नारी प्रतिदिन स्नान एवं पूजा-पाठ करते हैं मृतकों की चिताएँ भी इसी घाट पर जलाई जाती हैं जिससे परम्परागत विश्वासों के अनुसार उनकी आत्मा को चिरस्थायी शान्ति मिले। इस स्थान को गणेश प्रयाग भी कहते हैं। टिहरी के स्वर्गीय नरेशों की अन्त्येष्ठि क्रियाएँ भी यहीं पर सम्पन्न होती थी। यहीं पर उनका पितरवाड़ा भी है जिसमें राजपरिवार के दिवंगत सदस्यों के स्मृति चिन्ह रखे जाते हैं। यहीं से थोड़ी दूरी पर भिलंगना के किनारे सेमल का तप्पड़ है जहाँ मुसलमान भाइयों का कब्रिस्तान है उससे थोड़ी दूरी पर राजकीय संस्कृत महाविद्यालय है। ये सभी स्मरणीय स्थल एवं संस्थाएँ गंगा माता की गोद में समा जाएँगे। हमारे पास उनकी केवल स्मृतियाँ ही रहेंगी जो हमें चिरकाल तक उद्विग्न करती रहेंगी।

टिहरी के बस अड्डे से ऊपर का जो क्षेत्र है उसको पुराना दरबार कहते हैं। यहाँ अभी तक उन विशाल भवनों के अवशेष हैं जहाँ पहले टिहरी के नरेश रहते थे। कुछ पुराने मकान भी हैं जहाँ ठाकुर लोग रहते हैं। किन्तु पुराने दरबार के अधिकांश भाग में नए मकान बन गए है। जिनमें कुछ सरकारी कर्मचारी, वकील आदि रहते हैं। यहाँ पर टिहरी के नरेशों की कुल देवी राजराजेश्वरी का मन्दिर भी है जिसकी पूजा अर्चना के लिये वे स्वयं उपस्थित होते थे।

पुराने दरबार के नीचे गंगातट से कुछ ऊपर गंगाबाग नामक स्थान है जहाँ श्री बदरी विशाल, रघुनाथ, तुंगनाथ, दुर्गामाता, गंगाजी आदि देवताओं के मन्दिर हैं। पहले यहाँ के बदरी विशाल का इतना महत्व था कि अनेक यात्री इसका दर्शन करके ही अपनी यात्रा को सफल समझकर अपने घर को लौट जाते थे। राजमाता गुलेरिया जी इन मन्दिरों में नियमित रूप से पूजा अर्चना करती थीं। उन्होंने गंगा बाग से गंगातट तक जाने के लिये करीब 150 पक्की सीढ़ियाँ बनवायीं जो अभी तक उनकी धर्मपरायणता की याद दिलाती रहती है। ये सब धार्मिक स्थल गंगा में लुप्त हो जाएँगे। फिर हम कहाँ और कैसे इनके दर्शन कर सकेंगे?

टिहरी से करीब 3 कि.मी. की दूरी पर दक्षिण दिशा में सिमलासुँ नामक स्थान है, जहाँ टिहरी नरेशों का शीश महल और अतिथि गृह है जिसको लाटकोठी कहते हैं। यहीं पर गोल कोठी भी है जिसको महाराजा कीर्तिशाह ने स्वामी रामतीर्थ के लिये बनवाया था। यहाँ आम और लीची के बड़े-बड़े बाग हैं। राजपथ के किनारे स्वामी रामतीर्थ का स्मृति स्तम्भ है। इसी मार्ग पर भादु की मगरी है जहाँ कुछ सरकारी और निजी आवास गृह हैं। यहाँ से एक उप-मार्ग भिलंगना के पुल पार दयारा को जाता है जहाँ जंगलात का कार्यालय और आम, लीची के बड़े बागीचे हैं। ये सब भवन और बागीचे भी गंगा माता की गोद में समा जाएँगे।

टिहरी के समीप उत्तर दिशा में अठूर नाम की एक पट्टी है जो मुख्य रूप से सात गाँवों का एक समूह है। अंग्रेजों के शासनकाल में यह पट्टी सकलाना के माफीदारों को जागीर में मिली थी। दशहरे के अवसर पर अठूर में उनकी कचहरी लगती थी। उस समय यहाँ बड़ी रौनक रहती थी। टिहरी-अठूर मार्ग पर भागीरथी के पुल के नीचे जलधारा के बीच में एक बड़ा शिलाखण्ड था जिसको अटेश्वर महादेव कहते थे। उस पर मानव आकृति के चिन्ह खुदे हुए दिखाई देते थे। जब कभी समय पर वर्षा नहीं होती थी अठूर के श्रद्धालु लोग उसकी पूजा करते थे। किन्तु वह शिलाखण्ड अब वहाँ पर दिखाई नहीं देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि टिहरी के जलमग्न होने से पहले ही महादेव जी स्वयं जल में विलीन हो गए हैं। इसी अटेश्वर महादेव की बाँयी तरफ थोड़े ऊपर की ओर नहाने का घाट है। टिहरी रियासत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश स्वर्गीय गंगा प्रसाद रस्तोगी जी ने इस घाट पर गंगा जी में उतरने के लिये पक्की सीढ़ियाँ अपने खर्चे से बनवायी जो आज भी जज साहब की उदारता और परोपकारिता की याद दिलाती रहती है। यहाँ पर एक स्थान से जल की धारा भी निकलती है जिसको ‘बीकाधारा’ कहते हैं।

टिहरी का जनजीवन


टिहरी हमारी जन्मभूमि है इसलिये सम्भवतः वह हमको प्रिय है। किन्तु अन्य लोगों को भी विशेष रूप से साधु, सन्तों और विद्वानों को भी टिहरी ने अपनी ओर आकृष्ट किया। उसकी नैसर्गिक सुषमा और आध्यात्मिक शान्ति से वे बहुत प्रभावित हुए। स्वामी रामतीर्थ ने टिहरी के आस-पास गंगा के किनारे कई दिनों तक निवास किया। अठूर में वे कुछ समय तक गंगा के किनारे सेठ मुरलीधर की कुटिया में रहे। यहीं पर उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को पंजाब भेज दिया और अपने आप सन्यास ग्रहण कर लिया अन्त में वे सिमलासु की गोलकोठी में रहे और उसी के नीचे भिलंगना के जल में ब्रह्मलीन हो गए। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द और योगीराज विवेकानन्द भी यहाँ आए और कुछ समय तक ठहर कर फिर वापिस चले गए। चारों धामों के यात्रा-मार्ग के केन्द्र में स्थित होने से टिहरी की ख्याति बहुत दूर तक फैल चुकी थी जिससे बंगाल के कुछ उच्चकोटि के विद्वान यहाँ आने लगे।

सबसे पहले श्री रघुनन्दन भट्टाचार्य आए जिनको राजमाता गुलेरिया जी ने अपनी रीजेन्सी कौन्सिल का सेक्रेटरी नियुक्त किया था। उनके बाद यहाँ प्रख्यात गणितज्ञ चक्रवर्ती और के.पी. बासु आए जो क्रमशः अंकगणित और बीजगणित के उस समय के अद्वितीय विद्वान थे फिर तो और भी बंगाली विद्वान जैसे हेमचन्द्र डे, हेमचन्द्र मुखर्जी, चटर्जी यहाँ आए और प्रताप हाई स्कूल में सेवारत हो गए। श्री राम शर्मा ने जो कुछ समय तक ‘विशाल भारत’ के सम्पादक रहे इस स्कूल में दो-तीन वर्षों तक कार्य किया। अन्य प्रान्तों से भी अनेक विद्वान यहाँ आए और टिहरी रियासत के भिन्न-भिन्न विभागों में सेवारत रहे। टिहरी के बलिदान की जब चर्चा होगी तब लोगों को मालूम होगा कि उसने अपने जीवन के अल्प काल में ही कितनी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी।

टिहरी की अन्य स्मृतियों के साथ यहाँ के विद्वानों और मनीषियों की याद भी आयेगी जिन्होंने टिहरी नरेशों के आश्रय में रहकर उसको गौरव प्रदान किया और अपने आप भी गौरवान्वित हुए। उनमें प्रमुख हैं ‘धर्मबल्ली के प्रणेता हरिदत्त जी और गढ़राज्य वंशावली के रचयिता कवि देवराज जी। इनके अतिरिक्त पण्डित महीधर डंगवाल पंचाग कर्ता अपने समय के अद्वितीय ज्योतिषी थे। उनके पाण्डित्य से स्वामी रामतीर्थ इतने प्रभावित हुए कि अमेरिका में उन्होंने अपने भाषणों में उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। ऐसे ही सिद्ध पुरुष पण्डित सुरेशानन्द जी हुए हैं जो संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ और उच्च कोटि के ज्योतिषी थे। इसी परम्परा में यहाँ श्री हरिकृष्ण रतूड़ी बजीर हो गए हैं जो एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के अतिरिक्त प्रख्यात इतिहासकार और विधिवेत्ता भी थे। इसी प्रसंग में पण्डित भोलादत्त जी का नाम भी उल्लेखनीय है। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तो थे ही किन्तु साथ ही गणित के विशेषज्ञ भी थे। भारत के आदि गणितज्ञ भास्कराचार्य के द्वारा संस्कृत में रचित पुस्तक ‘लीलावती’ के क्लिष्टतम प्रश्नों को वे आसानी से हल कर लेते थे।

टिहरी नरेशों के राज्य काल में दशहरा के अवसर पर टिहरी में दरबार लगता था जिसमें रियासत के उच्चाधिकारी और जनता के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि महाराज के साथ बैठकर शासन सम्बन्धी विषयों पर विचार-विमर्श करते थे। पोलो मैदान में खेल-कूद होते थे और रात को ड्रामा और बायस्कोप का आयोजन किया जाता था। हाथी की भव्य शोभायात्रा निकलती थी। गंगा को पैदल पार करके हाथी टिहरी नगर में प्रवेश करता था। रियासत के दूरवर्ती एवं निकटवर्ती गाँवों से नर-नारी बड़ी संख्या में दशहरा के उत्सव को देखने आते थे। इसी अवसर पर प्रताप इण्टर कॉलेज के मैदान में फुटबाल और बैडमिण्टन की प्रतियोगिताएँ होती थीं जिनको देखने के लिये महाराज स्वयं आते थे। इन दिनों टिहरी में बड़ी चहल पहल रहती थी। बाजार के लोग अपना काम धन्धा छोड़कर इन खेलों को देखने के लिये मैदान में एकत्रित हो जाते थे।

होली का उत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। महाराज स्वयं अपने उच्चाधिकारियों के साथ होली खेलते थे। सबकी वेशभूषा एक ही प्रकार की होती थी-सफेद अचकन, चूड़ीदार पायजामा, पगड़ी, और दुपट्टा। इस अवसर पर बाहर से संगीतज्ञ आमन्त्रित किए जाते थे। एक बार प्रसिद्ध कथावाचक राधेश्याम जी भी बुलाए गए जिन्होंने सात रोज तक अपनी शैली में सम्पूर्ण रामायण को गाया। टिहरी के विलीन होने पर इन उत्सवों और खेलों की चिरकाल तक याद आती रहेगी।

प्रताप हाईस्कूल के बोर्डिंग हाउस पर एक बड़ी घण्टी लगी हुई थी जो 9.30 बजे प्रातः बजायी जाती थी जब स्कूल दिन में लगता था। इसकी तेज आवाज तीन चार मील की परिधि तक सुनायी देती थी। इसकी आवाज को सुनकर विद्यार्थी ठीक समय पर जाने की तैयारी कर लेते थे। सरकारी कर्मचारियों एवं अन्य लोगों को भी इस घण्टी की आवाज से समय का अन्दाजा लग जाता था। अब वह घण्टी टिहरी कि विलीन होने से पहले लुप्त हो गयी। अब उसकी केवल याद मात्र ही रहेगी जो पुराने विद्यार्थियों को कभी-कभी उद्वेलित करती रहेगी। इस बोर्डिंग हाउस के समीप जहाँ इस समय नगरपालिका का कार्यालय है रियासत का नौबत खाना था जहाँ प्रातःकाल और रात में नियमित रूप से नौबत बजती थी। यहीं पर सैनिक बैण्ड की एक टुकड़ी अनेक प्रकार की धुन बजाने का अभ्यास करती थी। अब उसका अस्तित्व तो नहीं रहा केवल याद ही रह गयी।

टिहरी गढ़वाल अपने धार्मिक मेलों (थौलू) के लिये प्रसिद्ध है। अनेक स्थानों में किसी पर्व या किसी निश्चित तिथि पर नर-नारियाँ एकत्रित होती हैं। टिहरी नगर में भी मकर संक्रान्ति के दिन बड़ा भारी मेला लगता है जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष रंग-बिरंगी वेश-भूषा में अपने गाँवों से यहाँ आते हैं। बाजार में इतनी भीड़ हो जाती है कि आने-जाने के लिये मुश्किल से ही रास्ता मिल पाता है। इसके अतिरिक्त पंचमी और रामनवमी के अवसर पर देवताओं की सवारी पालकी पर निकलती है जिसमें श्रद्धालु लोग गाते बजाते हुए पालकी के साथ-साथ चलते हैं। इसी प्रकार शिवरात्री के पर्व पर सत्येश्वर महादेव के मन्दिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। विशेष रूप से महिलाएँ बड़ी संख्या में पूजा-अर्चना के लिये वहाँ आती हैं। रातभर कीर्तन होता रहता है। अब टिहरी के जलमग्न होने पर इन भव्य दृश्यों को हम कहाँ से देख सकेंगे।

टिहरी में सन 1947-48 में एक क्रान्ति हुई जिसके फलस्वरूप टिहरी नरेशों का शासनाधिकार समाप्त हुआ और कुछ समय के लिये जन प्रतिनिधियों के हाथों में सत्ता आई। अन्त में 1949 में शासन की दृष्टि से उसका उत्तर प्रदेश में विलय हो गया। शासन पद्धति में इस परिवर्तन के होने से टिहरी के जनजीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा। परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएँ पूर्ववत ही रही। इस क्रान्ति के होने पर लोगों को यह आशा बँधी थी कि अब टिहरी का उत्तरोत्तर विकास होता जाएगा किन्तु बीच में ही उसे देश-हित की पुकार पर अपने बलिदान के लिये तैयार होना पड़ा।

टिहरी के जलमग्न होने से पूर्व एक नए नगर का निर्माण किया जा रहा है जिसका नाम भी टिहरी ही रखा जाएगा। यद्यपि इस नए नगर में आधुनिक युग की सभी सम्भव सुविधाएँ होंगी तथापि जिस आध्यात्मिक वातावरण के कारण टिहरी ने ख्याति प्राप्त की थी वह शायद ही हमें वहाँ मिले। उसकी मधुर स्मृतियाँ हमें चिरकाल तक उद्वेलित करती रहेंगी। वह जैसी भी थी हमको प्यारी थी। टिहरी हमारी जन्म भूमि है उसके प्रति हमारा मातृवत स्नेह होना स्वाभाविक ही है। इसी स्नेह के वशीभूत होकर भगवान राम ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था कि ‘जिस अयोध्या को हमारे पूर्वजों ने पाला पोशा है वह चाहे जैसी भी हो मुझे प्रिय है। उसकी तुलना में सोने की लंका मुझे फीकी लगती है।’

पितृ पूर्वार्जिता भूमि दरिद्रापि सुखावहा
अपि स्वर्गमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते।


 

एक थी टिहरी  

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

डूबे हुए शहर में तैरते हुए लोग

2

बाल-सखा कुँवर प्रसून और मैं

3

टिहरी-शूल से व्यथित थे भवानी भाई

4

टिहरी की कविताओं के विविध रंग

5

मेरी प्यारी टिहरी

6

जब टिहरी में पहला रेडियो आया

7

टिहरी बाँध के विस्थापित

8

एक हठी सर्वोदयी की मौन विदाई

9

जीरो प्वाइन्ट पर टिहरी

10

अपनी धरती की सुगन्ध

11

आचार्य चिरंजी लाल असवाल

12

गद्य लेखन में टिहरी

13

पितरों की स्मृति में

14

श्रीदेव सुमन के लिये

15

सपने में टिहरी

16

मेरी टीरी

 

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