मेरा सबसे वाइड एक्सपोजर तो इंस्टीट्युशन्स के साथ हुआ : स्वामी सानंद


स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद - 18वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.निलय के बाद बोर्ड मीटिंग की अध्यक्षता कौन करे? मौजूद सदस्यों में कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हनुमत राव ही सीनियर मोस्ट थे। उन्होंने ही चेयर किया। कार्य समिति ने केस करने हेतु अप्रूव कर दिया। अगले दो दिन में मैंने मिनिट्स (बैठक की कार्यवाही रिपोर्ट) तैयार कर दिये। मिनिट्स को साइन के लिये निलय चौधरी के पास भेजा।

आमतौर पर वह किसी भी फाइल में अधिकतम 15 दिन में साइन कर देते थे। मिनिट्स पढ़कर वह बोले कि इसे रहने ही दो। मैंने ऐसा करने से मना किया, तो बोले - ‘अच्छा इसमें बदलो। लिखो कि इस पर अगली बोर्ड बैठक में निर्णय किया जाएगा।’ इससे देरी होगी; जानने के बावजूद मैंने मंजूर कर लिया।

 

बोर्ड बैठक में खेल


अगली बोर्ड बैठक तीन महीने बाद हुई। इसमें कुछ पुराने लोग नहीं आये। इस बोर्ड बैठक में एक नया मुद्दा उठा दिया गया - ''हम प्राइवेट और पब्लिक को एक जैसा ट्रीट कर सकते हैं, लेकिन वाटर सप्लाई के लिये ट्रीटमेंट तो जन सेवा का कार्य है। यूँ भी सेक्रेटरी - सेन्टल पाॅल्युशन कंट्रोल बोर्ड का काम तो पाॅल्युशन कंट्रोल करने का है; तो हम उसे कैसे रोक सकते हैं?''

 

मंत्री की मंशा


उस वक्त गुजरात वाले दिग्विजय सिंह, यहाँ सेंट्रल में पर्यावरण के स्टेट मिनिस्टर थे। दो दिन बाद उन्होंने मुझे बुलाया। मुझे समझाया - ''देखो, अभी प्राइवेट और पब्लिक में फर्क है। आगे जब ऐसी स्टेज आएगी कि दोनों में फर्क नहीं रहेगा, तब हम भी फर्क नहीं करेंगे। अभी तो यही स्थिति है।''

मुझे अजीब सा लगा। मैंने फिर कहा - ''पाॅल्युशन इज पाॅल्युशन। अब यदि आप यह नहीं मानते, तो आजीविका के लिये नौकरी करना मेरे लिये कोई विवशता नहीं है। ऐसे में इस्तीफा के अलावा मेरे पास क्या विकल्प बचता है?''

उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई। बोले कि ऐसा ही आदमी चाहिए, लेकिन अभी थोड़ा ढीला होने की जरूरत है।

 

सिद्धान्त पुनः आया आड़े; छोड़ी नौकरी


वहाँ से लौटकर मैंने इस्तीफा दे दिया। देखिए कि जो निलय चौधरी बिना एप्लीकेशन दिये मुझे पद पर ले आये थे, वे ही मिनिस्ट्री के सेक्रेटरी बृजकिशोर से कह रहे थे कि देखना, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा छोटा मंत्री जी डी का इस्तीफा स्वीकार ही न करे।

 

एन्वायरोटेक कम्पनी बनी नया ठिकाना


इसके बाद 1984 से 1992 तक एन्वायरोटेक कम्पनी के लिये काम किया। 1989 में बांग्लादेश का काम मिला, तो सोचा कि वहाँ से मिले पैसे बचा लेने हैं; सिर्फ उसके ब्याज से काम चलाना है। खैर ये सब तो हुआ, लेकिन सच कहूँ तो मेरा सबसे वाइड एक्सपोजर तो इंस्टीट्युशन्स के साथ हुआ।

 

तरुण भारत संघ से पहला परिचय


1989 में पहली बार तरुण भारत संघ गया। पहले नहीं गया था। तरुण भारत संघ का आश्रम, अलवर के गाँव भीकमपुरा में है। उस वक्त वहाँ...जोहड़ रिचार्ज के लिये लगाए जंगल को बचाने को लेकर लड़ाई थी।

आप अग्निवेश जी को जानते हैं। उनके संगठन बंधुवा मुक्ति मोर्चा को जानते हैं। उन्होंने कुछ बंधुवा मजदूर मुक्त कराए थे। उन्हें लेकर वे कलेक्टर के पास गए होंगे। मुक्त हुए वे मजदूर अपनी बकरी, परिवार वगैरह लेकर भीकमपुरा आ गए।

तब तक तरुण भारत संघ के लगाए पेड़ छोटे ही थे। मजदूरों ने क्या किया कि पेड़ काट दिये। इस पर राजेन्द्र जी ने अनिल अग्रवाल (विज्ञान पर्यावरण केन्द्र, नई दिल्ली के संस्थापक) से सम्पर्क साधा। उन्होंने एक समूह बना दिया। समूह में अनिल तो थे ही। प्रभाष जोशी, अच्युतानंद मिश्र, सुनीता नारायण के अलावा मुझे भी कहा। हम वहाँ गए; एक गाड़ी सीएससी की और एक एन्वायरोटेक की।

जहाँ आज डाइनिंग हाॅल है, तब वहाँ टिन का बरामदा था। पहुँचे, तो राजेन्द्र एक चारपाई पर बैठे थे। उन्होंने समस्या बताई। वे हमें लेकर साइट पर गए। हमने उनके जोहड़ देखे। बाद में गाँव में बैठक हुई। अब यह था कि बंधुवा मजदूरों के साथ भी सहानुभूति होनी चाहिए। अनिल ने कहा कि कलेक्टर से बात करते हैं। गाँव को जंगल लगाने में सहायता करेंगे। ऐसा तय करके हम लौट आये। वापस आते हुए एन्वायरोटेक की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया। सुनीता, उसी गाड़ी में थीं।

 

जी डी की डाक पर राजेन्द्र का जवाब


वहाँ से लौटकर मैं बांग्लादेश चला गया। बांग्लादेश से लौटकर मुझे हुआ कि मैं जोहड़ के काम से जुड़ूँ; इरीगेशन में रहूँ। यह बात 1991 की है। मैंने राजेन्द्र सिंह को एक पोस्टकार्ड लिखा। जवाब में राजेन्द्र सिंह का पत्र आया- ‘आइये, स्वागत है। लेकिन अपनी इंजीनियरिंग वहीं छोड़कर आना।’

मैंने सोचा कि ठीक है, यही सही। इस बार मैं दो-तीन दिन के लिये गया। फिर उनसे साथ सम्पर्क बढ़ता गया। उन्होंने दो ट्रेनिंग प्रोग्राम किये। उसमें मुझे बुलाया। साइट सेलेक्शन, डिजाइन वगैरह पर ट्रेनिंग रखी। उनमें भी बुलाया। तरुण भारत संघ में मेरा ज्यादा सम्पर्क मैनपाल सिंह से रहता था। अलवर बाढ़ के समय प्रो. मिश्र, दिनेश मिश्र भी आये। उस समय 80 प्रतिशत काम मैंने और मैनपाल को ही करना पड़ा। फिर तो राजेन्द्र सिंह से पारिवारिक सम्बन्ध हो गए। मौलिक से भी मेरी पटती थी; रेनु से तो और भी। फिर राजेन्द्र सिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी इंजीनियरिंग छोड़कर आना।

(तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं को तकनीकी तौर पर सक्षम बनाने के काम में स्वामी सानंद के योगदान से मैं काफी-कुछ परिचित हूँ। गंगा समस्या के समाधान की रणनीति को लेकर स्वामी जी और राजेन्द्र सिंह जी के बीच मत भिन्नता से भी मेरा परिचय है। एक तरफ उतने समर्पण के साथ दिया गया योगदान और दूसरी तरफ मत भिन्नता, बताते हैं कि स्वामी जी की दृष्टि साफ है और निर्णय के मामले में भावुकता से दूर है। अतः मैंने स्वामी जी से इस पर प्रतिक्रिया जाननी चाही कि कई लोग उन्हें स्वभाव से काफी रुखा और व्यक्तिवादी पाते हैं। अगले कथन में पढ़िए स्वामी सानंद स्वयं क्या कहते हैं अपने स्वभाव के बारे में। - प्रस्तोता )

अगले सप्ताह दिनांक 22 मई, 2016 दिन रविवार को पढ़िए स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद शृंखला का 19वाँ कथन

प्रस्तोता सम्पर्क
ईमेल : amethiarun@gmailcom
फोन : 9868793799

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Post By: RuralWater
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