मध्यप्रदेश के किसान फसलों के धोखे में अकाल मौत की खेती कर रहे हैं। खेती - किसानी में जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रयोग पूरी तरह से धोखा साबित हुआ तो परम्परागत खेती को नए किस्म के वायरस खा गये। प्रदेश में औसतन तीन किसान रोज बरोज मौत को गले लगा रहे हैं, वहीँ व्यवस्था हाँथ पर हाँथ धरे बैठी है। त्रासदी यह है कि किसानों की बेचारगी विदेशी बीमा कंपनियों के लिए शोषण का औजार बन गयी है।
आत्महत्याओं के इस कभी ख़त्म न होने वाले दौर में फसल बीमा के निपटान में किसानों के पसीने छुट जा रहे हैं, वहीँ सरकारी मुआवजा नीति भ्रष्टाचार की वजह से बेमानी साबित हो रही है, ताजा मामले प्रदेश के होशंगाबाद और हरदा जिले से सामने आये हैं। ये वो इलाका है जो कभी उन्नत खेती की मिसाल हुआ करता था, आज अवसादग्रस्त किसानों की कब्रगाह में तब्दील हो गया है।
होशंगाबाद से केवल चार दिनों में तीन किसानों की आत्महत्या की खबर मिली है। जिन किसानों की मौत हुई है उनके नाम कमल गौर (32 वर्ष, ग्राम नानपा, तहसील डोलरिया) राम सिंह राजपूत (62 वर्ष, ग्राम रोटपाड़ा तहसील डोलरिया) और मिश्रीलाल बेडा (54 वर्ष, ग्राम सभा -चापड़ा ग्रहण, तहसील सिवनी) है। इन सभी की मौत 11 से 14 अक्तूबर के बीच हुई है। तीनों किसानों ने सोयाबीन की खेती की थी जो पूरी तरह से नष्ट हो गयी, महत्वपूर्ण है कि बीटी काटन की ऊँची लागत और उससे होने वाले नुकसान और परिणाम स्वरुप होने वाली किसानों की आत्महत्याओं को देखते हुए जोर शोर से सोयाबीन की फसल को प्रोत्साहित कर रही थी, लेकिन ये पूरी कोशिश भी महज धोखा साबित हुई, सोयाबीन को सफ़ेद मक्खियों ने पूरा का पूरा लील लिया, पहले से हीं कर्ज से कराह रहे किसान महंगे पेस्टीसाइड्स पायें भी तो कहां से। इस पूरे मामले पर जिलाधिकारी होशंगाबाद कहते हैं कि इन किसानों के आत्महत्या की वजह पारिवारिक थी न कि खेती किसानी का चौपट हो जाना, उनका कहना था कि हमारे जिले में सबसे अमीर आदमी भी किसान है और सबसे गरीब आदमी भी किसान, ऐसे में मौत किसी की भी हो मरता किसान ही है।
भारत में अब तक जिन राज्यों में किसानों की मौत हुई है उनमे मध्य प्रदेश भी एक है। यहाँ वर्ष 2004 में 1638, वर्ष 2006 में 1375, वर्ष 2009 में 1263, वर्ष 2008 में 1379 और 2001 में 1395 किसानों ने आत्महत्या की है, अकेले होशंगाबाद में पिछले दो सालों में सात किसानों ने मौत को गले लगा लिया है। समाजवादी जन परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुनील बताते हैं सोयाबीन की जिस 9305 किस्म का वैज्ञानिक और कृषि विभाग जोर शोर से प्रचार प्रसार कर रहा है सर्वाधिक नुकसान उसी में हुआ है, उसकी औसत पैदावार 20 किलो से लेकर सवा क्विंटल तक प्रति एकड़ हुई है जो बेहद कम है। इस फसल की कीमत पर न तो किसान अपने कर्ज की अदायगी कर सकते हैं न ही अपने परिवार का पालन पोषण। गौरतलब है कि जिस किस्म के सोयाबीन की खेती यहाँ की जा रही है उसकी फसल हर साल पहले से कम होती जा रही है, वैसे भी सरकार द्वारा आधुनिक खेती के नाम पर किसानों को बरगलाने का जो काम किया गया है उसका भी असर साफ़ नजर आता है।
कमर तोड़ देने वाले महंगे बीजों, रसायनों और कीटनाशकों के खरीद फरोख्त का असर ये हुआ है कि जमीन ने भी परम्परागत खेती को स्वीकार करना छोड़ दिया है वहीँ जो नए किस्म के बीज इस्तेमाल किये जा रहे हैं वो जब नहीं तब धोखा दे रहे हैं। इस इलाके के किसान खरीफ की वैकल्पिक फसलों में धान उगा सकते थे, लेकिन ये भी इतना महंगा है कि हर किसान के लिए धान की खेती करना संभव नहीं हो पा रहा है। भुखमरी के कगार पर खड़े और आत्महत्याओं को गले लगा रहे मध्यप्रदेश के इन किसानों के साथ सिर्फ फलें ही धोखा नहीं कर रही, ये धोखा सरकार और बीमा कंपनियों के द्वारा भी किया जा रहा है। अजीबोगरीब है लेकिन यहाँ के किसानों के ऊपर फसल बीमा योजना बिना उनसे जाने पूछे ही थोप दी गयी।
अकेले होशंगाबाद में ही बीमा क्षेत्र की दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों इफ्फको टोकियो जनरल इंश्योरेंस कंपनी और आई सी आई सी आई लोम्बार्ड ने सोयाबीन के फसल के बीमा के रूप में तक़रीबन 22 करोड़ 20 लाख रूपए वसूले जिनमे किसानों का अनुदान 7 करोड़ 77 लाख रूपए का था जो उनके सहकारी ऋण खाते से उनकी बिना पूर्वानुमति के दे दिए गए, बांकी का अनुदान सरकार ने दिया, चूँकि ये बीमा मौसम आधारित फसल बीमा था इसलिए किसानों को इसके एवज में एक फूटी पायी भी नहीं मिली। गौरतलब है कि इसके पहले इस पूरे इलाके में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना लागू थी जो उपज आधारित थी लेकिन अज्ञात वजहों से शिवराज सिंह सरकार ने सरकारी बीमा प्रणाली को हटाकर ये बीमा प्रणाली लागू कर दी। ऐसा क्यूँ किया इसका जवाब किसी के पास नहीं है। आत्महत्याओं के ज्यादातर मामले अगड़ी जातियों के किसानों के है जिनसे ये साफ़ साबित होता है कि बेचारगी की कोई जाति नहीं होती जो किसान होशंगाबाद में मरे वो सभी अगड़ी जातियों के थे।
चूँकि मध्य प्रदेश में आत्महत्या से मरने वाले किसानों के लिए किसी प्रकार का मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है इसलिए उनके परिजनों के पास अब भुखमरी के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। मौत के पखवाड़ेभर बाद भी कोई सरकारी नुमाइंदा इलाके में नहीं पहुंचा है। हाँ ये जरुर है कि जब कुछ स्वंयसेवी संगठनों ने इन आत्महत्याओं को लेकर शोर मचाया तो एकाध निचले स्तर के अधिकारी यहाँ पहुंचकर पूरे मामले की लीपापोती में जुट गए। अभी तो होशंगाबाद और हरदा में आत्महत्या के ये मामले सामने आ रहे हैं। नये इलाकों में भी स्थिती बेहद खराब है। मध्य प्रदेश में भोपाल के रहने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं “सभी जगह यही हालात है मेरे रिश्तेदारों के खेत बंजर हो गए हैं सोयाबीन की खेती से …हमारे रतलाम जिले मैं कई किसान इसकी खेती छोड़ टमाटर, मिर्ची तथा अन्य फसले उगाने लगे वो सुखी हैं सोयाबीन पर तत्काल प्रतिबंध लगाना चाहिए।'
लेकिन किसानों की असल मंशा जानने और उनकी बात जानने की फुर्सत किसे है। सरकारी योजनाएं और प्राइवेट कंपनी मिलकर जो चक्रव्यूह तैयार कर रही है उसमें किसान फंस रहे हैं और दम तोड़ रहे हैं।
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