मध्य प्रदेश में वन्य प्राणी संरक्षण


मध्य प्रदेश अपनी वन सम्पदा एवं वन्य प्राणियों के लिये विख्यात रहा है। इस शताब्दी के पूर्वान्ह तक प्रदेश में वन तथा वन्य प्राणियों का बाहुल्य था। जनसंख्या एवं पालतू पशुओं की संख्या का दबाव ऐसा नहीं था कि उसका दुष्प्रभाव वनों तथा वन्य प्राणियों पर पड़ता, परन्तु शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वनों पर बढ़ती आबादी, तथा पालतु पशु संख्या के दबाव, अनियंत्रित शिकार एवं अमारती लकड़ी की बढ़ती मांग के कारण, अवैध कटाई के कारण वन तथा वन्य प्राणियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

मानव अस्तित्व के पूर्व पृथ्वी पर पशुओं का एकछत्र साम्राज्य था। वे स्वच्छन्द रूप से विचरण करते थे। इस धरा पर कदम रखते ही मानव ने अपने आपको विशाल एवं विविध जातियों के जीवधारियों के बीच पाया। इस प्रकार जन्म से ही मानव पशुओं से जुड़ गया। आदिमानव ने वन्य प्राणियों के बारे में अपने अनुभवों को हजारों वर्ष पूर्व पत्थरों एवं चट्टानों में उत्कीर्ण किया, जो आज भी विविध गुफाओं एवं शिलालेखों में मौजूद हैं। भीम बैठका की गुफाएँ, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान एवं पंचमढ़ी वन्य प्राणी अभ्यारण्य में स्थित लगभग 48 गुफाओं में मानव द्वारा बनाई गई रॉक पेंटिंग्स इनके उदाहरण हैं। इन्हें देखकर वन्य प्राणियों के प्रति मानव के प्रेम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। किन्तु बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उत्पन्न अनेकों समस्याओं तथा मानव की स्वार्थपरता के कारण उत्पन्न विकृति के परिणामस्वरूप आज मानव एवं वन्य जीवों के सम्बंध में प्रश्नचिन्ह अंकित हो गया है।

भारत के हृदय स्थल में स्थित मध्य प्रदेश प्राकृतिक दृष्टि से सम्पन्न प्रदेश है। अतः वन्य प्राणियों की बाहुल्यता तथा विविधता इस प्रदेश की विशेषता रही है। सन 1972-73 में मध्य प्रदेश में मात्र तीन राष्ट्रीय उद्यान तथा 12 वन अभ्यारण्य थे, जो लगभग 5340 वर्ग किलोमीटर भू-भाग में स्थित थे। यह क्षेत्र कुल वन क्षेत्र का मात्र 3.45 प्रतिशत था। वर्तमान में भारत के कुल 55 राष्ट्रीय उद्यनों तथा 247 वन अभ्यारण्यों में से 11 राष्ट्रीय उद्यान तथा 31 वन अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में स्थित हैं। भारत में चलाई जा रही 18 टाइगर रिजर्व योजनाओं में से 3 बाघ परियोजनाएँ मध्य प्रदेश के राष्ट्रीय उद्यानों में संचालित की जा रही हैं। इन वन्य प्राणी संरक्षण योजनाओं के अंतर्गत कुल 17338.114 वर्ग किलोमीटर वन, क्षेत्र आता है, जो राज्य के वन क्षेत्र का लगभग 12 प्रतिशत तथा राज्य के भू-भाग का 3.915 प्रतिशत भाग है। भारत के किसी भी अन्य प्रदेश में इतने राष्ट्रीय उद्यान व अभ्यारण्य नहीं हैं। राज्य के इन संरक्षित क्षेत्रों में विविध जाति के वन्य प्राणी पाये जाते हैं।

सर्वाधिक शेर एशिया के श्रेष्ठ वन्य प्राणी राष्ट्रीय उद्यान, कान्हा में (101) पाये गये। इसी प्रकार बारहसिंघा भी कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पाये जाते हैं। सूचीबद्ध वन्य प्राणियों के अलावा प्रदेश में जंगली कुत्ता, बिल्ली, माउस, डियर, लकड़बघ्घा, अजगर, खरगोश, सेही, सिर्वेट, जंगली मुर्गी, नेवला इत्यादि प्रजातियों के वन्य प्राणी भी बहुतायत संख्या में विचरण करते हैं।

वन्य प्राणियों की विकास दर का अध्ययन करने से पता चलता है कि जिस गति से इनकी वृद्धि होनी चाहिए उस गति से इनकी संख्या में वृद्धि नहीं हो पा रही है। इसके लिये अनेक कारण उत्तरदायी हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-

1. आधुनिक औद्योगीकरण की दौड़ के कारण प्रकृति का अत्यधिक तीव्र गति से दोहन किया जा रहा है, जिससे प्राकृतिक आवास स्थलों में कमी आती जा रही है। प्राकृतिक आवास स्थलों में कमी के कारण वन्य प्राणियों की प्रसव दर में कमी तथा मृत्युदर में वृद्धि होती जा रही है। विभिन्न कारणों से भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1500 लाख हेक्टेयर भूमि रेगिस्तान में परिवर्तित होती जा रही है। एक सर्वे के अनुसार हमारे देश में कुल भू-भाग का केवल 12 प्रतिशत वन क्षेत्र है जबकि वन नीति के अनुसार यह 33 प्रतिशत होना चाहिए। वन क्षेत्र में कमी के लिये, कृषि क्षेत्र में वृद्धि, नदी घाटी योजनाएँ, उद्योगों की स्थापना, पशु चारागाहों का विकास, खनिज खदानें, नगरीकरण का विकास इत्यादि कारण उत्तरदायी हैं।

2. भू-मंडल में स्थित कोई भी जीवन चाहे वह जलचर, थलचर, अथवा नभचर हो प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में प्रत्येक का अपना गरिमामय स्थान है, किन्तु आज मानव के अमानुषिक कृत्यों के परिणामस्वरूप प्रकृति का संतुलन डगमगाने लगा है। मानव के इन अमानवीय कृत्यों के परिणामस्वरूप वन तथा वन्य प्राणियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। हम अपने निजी स्वार्थों से प्रेरित होकर वन्य जीवों का शिकार करते हैं। मुख्यतः वे वन्य प्राणी जिनका भोजन के लिये उपयोग किया जाता है, जिनका चमड़ा, सींग, हड्डियाँ, अत्यधिक महँगी कीमत में बिकती हैं, जैसे- बाघ, चीता, घड़ियाल, अजगर, गेंडा, हाथी, कृष्णमृग, सांभर, कस्तूरीमृग, हिरण, कछुआ, बारहसिंघा इत्यादि का शिकार अत्यधिक किया जा रहा है।

मध्य प्रदेश अपनी वन सम्पदा एवं वन्य प्राणियों के लिये विख्यात रहा है। इस शताब्दी के पूर्वान्ह तक प्रदेश में वन तथा वन्य प्राणियों का बाहुल्य था। जनसंख्या एवं पालतू पशुओं की संख्या का दबाव ऐसा नहीं था कि उसका दुष्प्रभाव वनों तथा वन्य प्राणियों पर पड़ता, परन्तु शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वनों पर बढ़ती आबादी, तथा पालतु पशु संख्या के दबाव, अनियंत्रित शिकार एवं अमारती लकड़ी की बढ़ती मांग के कारण, अवैध कटाई के कारण वन तथा वन्य प्राणियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। कुछ वन्य प्राणियों की प्रजाति लुप्त हो गई, तथा कुछ अपनी जीवनरक्षा के लिये संघर्षरत हैं। यदि इसी प्रकार से हम वन्य प्राणियों का विनाश करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ी वन्य प्राणियों का अवलोकन मात्र चित्रों में कर अपनी जिज्ञासा शांत करने को विवश हो जाएगी। साथ ही प्रकृति अपना संतुलन स्थापित रख सकने में असमर्थ हो जाएगी जिसके परिणाम मनुष्य के लिये अत्यधिक भयावह होंगे।

वन्य प्राणियों के संरक्षण के उपाय


1894 में भारतीय वन नीति की घोषणा की गई, जिसके अनुसार वनों को राजस्व का मुख्य स्रोत माना गया, किन्तु इसमें वन्य प्राणियों के संरक्षण हेतु वांछित प्रावधानों की कमी थी। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 द्वारा राष्ट्रीय पर्यावरण और पारिस्थितिकीय की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है और अनुच्छेद 51 के द्वारा भारत के समस्त नागरिकों के लिये बंधनकारी प्रावधान किया गया कि वे पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा एवं संवर्धन सहित मितव्ययिता से उपयोग करें। वर्ष 1952 में राष्ट्रीय स्तर पर एक भारतीय वन्य प्राणी सलाहकार मंडल के गठन का प्रस्ताव रखा गया, जो वन्य प्राणियों के संरक्षण और संवर्द्धन के हितों की निगरानी करता है। सन 1972 में भारतीय वन्य प्राणी सुरक्षा अधिनियम द्वारा जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण देश के वन्य प्राणियों के शिकार, उनकी ट्राफी आदि के व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया, जिससे वन्य प्राणी संरक्षण को नया आयाम मिला।

राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे सफलतम योजना 1973 में घोषित बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट-टाइगर) हैं। जिसके अनुसार 9 संरक्षित क्षेत्रों और 1979 में दो और 1983 में 4 तथा वर्ष 1987-88 में तीन और इस प्रकार कुल 18 संरक्षित क्षेत्रों में बाघ परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं, जिनके परिणाम आशा से अधिक सफलताजनक रहे हैं। इन परियोजनाओं के अतिरिक्त भारत में मगर प्रजनन परियोजना, भारत के गिरवनों में सिंह (एशिया लायन) योजना, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में बारहसिंघा विकास योजना, मणिपुर में एटलई डीयर योजना, कांजीरंगा (असम) में भारतीय विशाल गैंडे और उन सभी क्षेत्रों में जहाँ हाथी पाये जाते हैं, भारतीय हाथ संरक्षण हेतु विशिष्ट योजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं। इन परियोजनाओं के साथ-साथ वन्य प्राणियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के लिये वर्ष 1976 से भारत साइटस- (कन्वेंशन आन इन्टरनेशनल ट्रेड-इन एनडेंजर्ड स्पेसीज ऑफ वाइल्ड लाइफ एंड फ्लोरा) का सदस्य बन गया, जिसके कारण वन्य प्राणियों और उनसे बने उत्पादों का अवैध निर्यात रोकने में काफी सफलता प्राप्त हुई है।

उपरोक्त प्रशासनिक प्रयासों के बावजूद अनेक स्वैच्छिक संस्थाएँ भी इस दिशा में अपना अमूल्य योगदान प्रदान कर रही हैं, जिनका स्वरूप उनकी क्षमता एवं आकार के अनुसार नगरीय, जिला-स्तरीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय है। इनमें विश्व वन्य प्राणी कोष, आई.यू.सी.एन. और बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त देहरादून, दिल्ली, भोपाल इत्यादि अनेक स्थानों में अनेक स्वैच्छिक संस्थाएँ हैं, जो वन्य प्राणी संरक्षण एवं पर्यावरण सन्तुलन की दिशा में कार्य कर रही हैं। ये संस्थाएँ पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, ब्रोशरों, हैंडबिल इत्यादि के माध्यम से मानव में वन्य प्राणियों के संरक्षण के प्रति वातावरण तैयार कर रही है। अनेक संस्थाएँ तो वन्य प्राणी विषय पर भाषण, निबंध, चित्रकला इत्यादि प्रतियोगिताएँ आयोजित करती हैं। इसी शृंखला में प्रतिवर्ष भारत में 2 अक्टूबर से वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जाता है।

वन तथा वन्य प्राणियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिये जन-जागृति आज की पुरजोर मांग है। अतः सम्पूर्ण भारत में एक सघन अभियान चलाया जाना चाहिए, जिसके अंतर्गत पर्यावरण एवं परिस्थिति के प्रति मानव में जागृति उत्पन्न की जा सके। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गाँधी के वन्य प्राणी महत्व के सन्दर्भ में व्यक्त विचार उल्लेखनीय हैं। उन्होंने कहा था, ‘‘मानव जाति का अस्तित्व वन तथा वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर निर्भर करता है।’’ अतः इनके महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए बचपन से ही बच्चों के मन में इनके प्रति प्रेम, दया, सदाशयता जागृत किया जाना अपेक्षित है। इसके लिये आवश्यक होगा कि पर्यावरण एवं परिस्थिति सम्बंधी अनिवार्य शिक्षा प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक क्रमशः अनिवार्य कर दी जानी चाहिए। प्राथमिक स्तर पर वन एवं वन्य प्राणियों का परिचय, माध्यमिक स्तर पर इनका महत्त्व तथा उच्च स्तर पर इनके संरक्षण एवं संवर्द्धन से सम्बंधित पाठ्यक्रम तैयार किये जायें, जिसे देश के प्रत्येक विद्यालय में अनिवार्य रूप से लागू किया जाए। इस प्रकार सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रचार माध्यमों के अतिरिक्त कुछ नये कार्यक्रमों का संचालन किया जाना चाहिए, जो बच्चों तथा युवाओं के मन में वन तथा वन्य प्राणियों के लिये प्रेरणादायक सिद्ध हो सकें। तभी हम प्रकृति की इन अनमोल धरोहरों की रक्षा कर पायेंगे।

प्रो. जी.एल. झारिया
रानी दुर्गावती शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मंडला (म.प्र.)

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