प्रस्तावना
जातीय अल्पसंख्यक (उप जनजाति) समुदाय, जिन्हें आमतौर पर आदिवासी के रूप में जाना जाता है जो भारतीय आबादी के सबसे अधिक गरीबी वाले क्षेत्रों में रहते हैं. और ये भारत की सांस्कृतिक विरासत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे देश के भौगोलिक क्षेत्र के लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग में रहते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी लोगों ने कृषि और पशुधन, मछली पालन और शिकार के द्वारा एक विविध आजीविका रणनीति का अभ्यास करते हैं। मुख्यधारा की आबादी के विपरीत, वे मूल रूप से प्राकृतिक संसाधनों की आसानी से पहुँच के लिये कम आबादी वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं। एक मजबूत सामुदायिक नेतृत्व प्रणाली और समाजिक सुसंगति के उच्च स्तर के बावजूद सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकी कारकों के संयोजन के कारण इनकी आजीविका आज भी खतरे में है। इस समुदाय की भूमि जोत बहुत छोटी और खंडित होती है जबकि अधिक संख्या में यह लोग भूमिहीन है यानि इनके पास कृषि योग्य भूमि उपलब्ध नहीं है। भूमिहीन होने के कारण यह लोग अकुशल कार्य जैसे कृषि मजदूरी या मौसमी प्रवास के रूप में काम करना ही इनके कुछ उपलब्ध आजीविका विकल्प हैं जिनसे वे अपनी जीविका का पालन करते हैं। जैसा कि पारंपरिक आजीविका का क्षरण हो रहा है और बहुत अधिक लोग गरीबी के दृष्वक में फंस गए हैं जो प्रकृति में बहुआयामी है। इस प्रकार इन आदिवासी समुदायों की संवेदनशीलता एवं गरीबी को कम करने और इनकी आजीविका के लचीलेपन को बढ़ाने की दिशा में उपयुक्त वैकल्पिक विकल्पों की पहचान करना और प्रावधान उपलब्ध सकते हैं। करवाना बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयास साबितहो सकता है
ग्रामीण आजीविका के विविधीकरण हेतु मछलीपालन का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बहुत ही बढ़ता जा रहा है। प्रदर्शन और अनुसंधान के साक्ष्यों से पता चलता है कि छोटे पैमाने पर मछलीपालन या मछलीपालन आधारित एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) को सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलूओं के साथ उचित विचार करके बढ़ावा दिया गया है। और आजीविका परिसंपत्तियों और जोखिम प्रबंधन को साझा समझ के भीतर बनाया गया है जिससे गरीब, कमजोर आदिवासीएवं अल्पसंख्यक जाति के लोगों की आजीविका में काफी सुधार प्राप्त हो सकता है इसके अलावा, पारंपरिक दृष्टिकोण के साथ- साथ नई तकनीकों को बढ़ावा, बुनियादी ढाँचे का विकास, जल संसाधनों का निर्माण, जल प्रबंधन और लक्षित विस्तार सेवाओं के प्रावधान पर जोर देने से न केवल अत्यंत गरीब आदिवासी समुदायों को लाभ होता है बल्कि उनकी क्षमताओं जीवन यापन आय और संपत्ति के साधन भी मजबूत होते हैं। विविधतापूर्ण आजीविका रणनीति के रूप में जब मछलीपालन को खेत पर जल प्रबंधन के साथ एकीकृत कृषि प्रणाली का एक भाग बनाया जाता है तो यह परिस्थितिकीय कृषि को बढ़ावा देता है जिससे इस पद्धति से अधिकत्तम लाभ उठाया जा सकता है और अन्य हानिकारक प्रभावों से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपलब्ध ऊर्जा और सामग्रियों का उपयोग करके कृषि से अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये समग्र प्रयास किए जा सकते है।
उपज, जल उत्पादकता और लाभ के संदर्भ में भी मछलीपालन आधारित एकीकृत खेती की तकनीक बहुत ही अच्छी साबित हो सकती है। इन सब महत्त्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखते हुये भाकृअनुप- भारतीय जल प्रबंधन संस्थान भुवनेश्वर द्वारा वर्ष 2013- 14 से जनजाति उप योजना (TSP) के माध्यम से ओडिशा राज्य के सुंदरगढ़ जिले के बिरजाबन गाँव में आदिवासी समुदाय की उत्पादकता लाभप्रदता और सामाजिक-आर्थिक विकास पर जलसंसाधनों के निर्माण और इनके उपयोग तथा प्रबंधन के प्रभाव का अध्ययन करने के लियेसंदर्भित अध्ययन आयोजित किया गया।
अध्ययन स्थल
ओडिशा राज्य के सुंदरगढ़ जिले में बिरजाबर्ना एक आदिवासी बाहुल्य गाँव है जहाँ 77% अनुसूचित उप जन जाति की आबादी वाले 50 किसान परिवार रहते हैं। यह 1535 हेक्टेयर के कुल भौगोलिक क्षेत्र के साथ एक दूर स्थित गाँव (अक्षांमा 22 डिग्री 01'51.27" और देशांतर 84 डिग्री 07'-25.15") है जहाँ 1200 मिमी वार्षिक वर्षा (जिसमें से 80% मानसून अवधि के दौरान होती है। यह गाँव घुरलीजोर माइनर सिंचाई परियोजना की मौजूदगी के बावजूद मानसून के बाद और गर्मियों के मौसम में सुनिश्चित सिंचाई सुविधा से रहित रहता है। मानसून और मानसून के बाद के मौसम के दौरान इस माइनर सिंचाई परियोजना का कुल डिजाइण्ड कमांड क्षेत्र में क्रमश: 364 हेक्टेयर और 210 हेक्टेयर है जिसमें 3.5 किलोमीटर की दूरी के अंतर्गत नहर से जुड़े पांच अनियमित आकार के सहायक तालाब हैं। इसका कारण मुख्य रूप से सुनिश्चित सिंचाई और जलीय कृषि के लिए कोई भी उचित जल भंडारण की सुविधा ना होना था। इसलिए किसान पूरे वर्ष भर में किसान केवल खरीफ धान की फसल पर ही निर्भर रहते हैं और यहाँ वर्ष 2013 तक धान की पैदावार 25 टन/ हेक्टेयर से भी कम थी। इस प्रकार की कृषि की स्थिति वहाँ आदिवासी किसानों की आजीविका के लिए पर्याप्त नहीं है। अत: इस गंभीर परिस्थिति को देखते हुए भाकृअनुप भारतीय जल प्रबंधन संस्थान भुवनेश्वर के वैज्ञानिकों द्वारा सबसे पहले इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं की पहचान की गई जो इस प्रकार थी (1) सुनिश्चित सिंचाई और जल की उपलब्धता की कमी (2) मछलीपालन के लिए फिंगलिंग्स की समय पर उपलब्धता और (3) तकनीकी ज्ञान और जागरूकता की कमी इत्यादि।
जनजातीय उप योजना (TSP) के माध्यम से वैज्ञानिक तकनीकें
ग्रामीण विकास का मूल आधार स्थानीय क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधनों का उत्पादक उपयोग करना होता है। गाँवों में उपलब्ध तालाब और टैंक अक्सर तकनीकी ज्ञान की कमी, निवेश और बुनियादी ढाँचे की कमी, आदानों का समर्थन, विपणन प्रणाली इत्यादि जैसे विभिन्न कारणों के कारण अनुपयुक्त रहते हैं। अधिकांश गाँवों में उपलब्ध जल संसाधनों पर स्वामित्व ग्राम समुदायों या स्वयं सहायता समूहों या पंचायत का होता है। इन सामुदायिक जल संसाधनों को ग्राम समुदायों द्वारा नियंत्रित और प्रबंधित किया जाता है और प्राप्त लाभ को समुदाय के सदस्यों के बीच साझा कर लिया जाता है। इन संसाधनों पर किए गए तकनीकी प्रदर्शन को समुदायों के सदस्यों के बीच कथित लाभ के अभाव में बनाए रखना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए ग्राम समुदायों का निरंतर ध्यान आकर्षित करने के लिए अधिक स्तर के लाभों को उत्पन्न करना आवश्यक था जिसको केवल कृषि मछलीपालन प्रणाली में सभी उपलब्ध संसाधनों और अवसरों के समुचित उपयोग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। मछलीपालन के लिए बड़े और छोटे जल निकायों का उपयोग करना और इन्हीं जल संसाधनों को बहुआयामी उपयोग में लेना ही एक व्यवहार्य रणनीति थी जिसके तहत इलाके के सभी उपलब्ध जल निकायों का उचित उपयोग किया गया।
इस गरीब पिछड़े क्षेत्र में भाकृअनुप -
भारतीय जल प्रबंधन संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न जल संरक्षण और प्रबंधन रणनीतियों को कार्यान्वित किया गया। जल बहाव नियंत्रण तकनीकें जैसे इनलेट आउटलेट और अधिशेष एस्केप संरचनाओं के प्रावधानों को नहर के अंतिम छोर पर नहर से जुड़े सहायक तालाबों में इनकी वहन क्षमता को बढ़ाने के लिए डिजाइन और विकसित किया गया। गर्मी के मौसम के दौरान टैंक में जल की औसत गहराई केवल1.3 मीटर थी जबकि जल बहाव नियंत्रण संरचनाओं के निर्माण के बाद इस टैंक की गहराई 2.5 मीटर तक बढ़ गई। इसलिए, टैंक में पानी की उपलब्धता में 120% 11.2 हेक्टेयर तक की वृद्धि हो गई जिससे मछलीपालन के साथ-साथ कमाड क्षेत्र में 30% की वृद्धि हुई। इस नही कमांड क्षेत्र के आस-पास के पाँच तालाबों में भी पानी का स्तर बढ़ गया और वहाँ कुए खोदे गए इसके अलावा, जल निकासी लाइन के किनारे एक कुआ (4.8 मीटर व्यास और 9 मीटर इन सभी महत्त्वपूर्ण तकनीकी हस्तक्षेपों ने वर्ष 2015-16 के दौरान कई फसलों को उगाने में संसाधन गरीब आदिवासी किसानों के बीच विश्वास पैदा किया ताकि उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके जल बहाव पैटर्न के संदर्भ में विनियमन तकनीकों का प्रभाव नहर से जुड़े सहायक तालाब में गहराई खोदा गया जो सहायक तालाब के निकट था इस तकनीक के हस्तक्षेप ने वहाँ 1.8 हेक्टेयर मीटर के रूप में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता बढ़ाई जिसके फलस्वरूप अतिरिक्त कमांड क्षेत्र में 2.1 हेक्टेयर तक वृद्धि हुई। इसके अलावा, इस खोदे गए कुए से जल की आपूर्ति को भूमिगत पाइपलाइन के साथ स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली जोड़ा गया जिससे वहाँ पर उगाई जाने फसलों की सिंचाई भी संभव हो पाई इन सभी वैज्ञानिक पद्धतियों की नीचे दिए चित्रों में दर्शाया गया है
अस्थायी जल की उपलब्धता और खोदे गए कुए की हाइड्रोलिक्स का अध्ययन क्षेत्र के आदिवासी किसानों के खेतों में निरंतर फसल कैलेंडर और मत्स्यपालन को विकसित करने के उद्देश्य से किया गया। इस कमांड क्षेत्र के अंतर्गत खरीफ में एकल धान की फसल की जगह खरीफ के मौसम के दौरान धान के फसल क्रम में रबी मौसम की सरसों, और गर्मी के मौसम में मूँगफली व मूँग को वर्ष 2015-16 के दौरान किसानों द्वारा उगाने की कोशिश की गई। सहायक तालाब और आस-पास के छोटे तालाबों में मछली पालन के साथ-साथ कई अन्य तकनीकों जैसे कि टैंक-सह-कुंआ पद्धति रबी और गर्मी के मौसम में सुनिश्चित सिंचाई सुविधा के कारण फसलों के तहत अधिक क्षेत्र को बढ़ाने के लिए एक सफल तकनीक, ऊँची-नीची क्यारी प्रणाली युग्मित पंक्ति रोपण (कुंड सिंचाई) प्रणाली, पाइप सिंचाई प्रणाली (स्रोत तालाब से कृषि खेत में जल की बचत का विकल्प) को अपनाने का सुझाव भी दिया गया।
फसलों की उपज और जल उत्पादकता पर प्रभाव
वर्ष 2015-16 से कुएं के साथ सहायक तालाब (कुल कमांड क्षेत्र 2.1 हेक्टेयर, जिसमें से 1.1 हेक्टेयर कुएं का कमांड क्षेत्र और 10 हेक्टेयर सहायक तालाब का कमांड क्षेत्र का प्रभाव अध्ययन मानसून और मानसून के बाद की अवधि के लिए किया गया। सिंचाई की बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के कारण कमांड क्षेत्र में तकनीक के हस्तक्षेप से पहले उगाई जा रही धान परती फसल पद्धति की जगह मानसून के मौसम में धान तथा गर्मियों के मौसम में मूँगफली और मूंग जैसे फसलों को उगाया गया। इस अध्ययन के तहत धान (किस्म ललाट) की उपज 0.35 किग्रा / घनमीटर की जल उत्पादकता के साथ 3.7 टन/हेक्टेयर प्राप्त हुई, जबकि अध्ययन स्थल के आस- पास के गैर- हस्तक्षेप वाले क्षेत्रों में इसी किस्म के धान की उपज 2.8 टन/ हेक्टेयर प्राप्त हुई थी और 0.26 किग्रा / घनमीटर की जल उत्पादकता ही प्राप्त होती थी।
इसी प्रकार, रबी मौसम के दौरान सरसों की फसल (किस्म-पार्वती से 0.42 किलोग्राम / घनमीटर) की जल उत्पादकता के साथ 1.25 टन/हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त हुई। इसके अलावा, मूँगफली की फसल में कुछ और पाइप लाइन के साथ स्प्रिंकलर सिंचाई की। शुरूआत से 31% कम जल के उपयोग के साथ 27% अधिक पैदावार पैदा प्राप्त हुई, जिसके परिणामस्वरूप चेक बेसिन सिंचाई विधि (क्रमशः 1.31टन/हे 0.32 किग्रा/घनमीटर) की तुलना में 84% अधिक जल की उत्पादकता प्राप्त होती है। इसी तरह, मूँगफली की फसल में युग्मित पंक्ति कुंड सिंचाई प्रणाली ने चेक बेसिन सिंचाई की तुलना में 15% सिंचाई जल की बचत के कारण 15% अधिक उपज एवं 36% अधिक जल उत्पादकता प्राप्त हुई (तालिका 1) |
मूंग की फसल में बेसिन सिंचाई की तुलना में स्प्रिंकलर सिंचाई के तहत 33% कम जल के उपयोग के साथ 25% की उपज में वृद्धि प्राप्त हुई (तालिका 1)। स्प्रिंकलर सिंचाई के तहत मूंगफली और मूंग की फसलों में कमजल के प्रयोग के साथ अधिक पैदावार प्राप्त करने को युग्मित पंक्ति और चेक बेसिन सिंचाई की तुलना में स्प्रिंकलर सिंचाई।पद्धति के तहत जल के समान वितरण और बेहतर प्रयोग दक्षता की एकरूपता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
सहायक तालाब में मछलीपालन से ₹72,000/ हेक्टेयर की शुद्ध आय प्राप्त हुई। इस अनुसंधान स्थल पर केवल एकल धान की फसल से प्राप्त 1.29 के लाभ लागत अनुपात के साथ औसत वार्षिक शुद्ध लाभ ₹17,000/हेक्टेयर तकनीक के हस्तक्षेप से पहले में जल संसाधन विकास की तकनीकों एवं मछलीपालन के साथ-साथ धान सरसों मूँगफली फसल क्रम की प्रबंधन विधियों से 194 के लाभ लागत अनुपात के साथ शुद्ध में 1,78,626 / हेक्टेयर (तकनीक के हस्तक्षेप के बाद की अवधि तक की वृद्धि हुई) । इसके अलावा, एकल धान की फसल की खेती की तुलना में इन उन्नत कृषि जल प्रबंधन की तकनीकों के तहत सकल जल उत्पादकता और शुद्ध जल उत्पादकता में क्रमशः 160 और 360% की वृद्धि प्राप्त हुई तालिका 2) भाकृअनुप भारतीय जल प्रबंधन संस्थान, भुवनेश्वर के वैज्ञानिकों द्वाराआदिवासी किसानों हेतु कई प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रमों को आयोजित करने के बाद और इस क्षेत्र में संस्थान द्वारा क्रियान्वित की गई उन्नत कृषि जल प्रबंधन की तकनीकों की सफलता को देखते हुए अब कई किसानों ने इन तकनीकों को पहले ही अपना लिया है जो इस प्रकार हैं पाइप लाइन और स्प्रिंकलर पद्धति (24 किसान), केंचुआ खाद यूनिट (छह किसान), मशरूम की खेती (दो महिला किसान) और घर के पिछवाड़े में मुर्गी पालन (चार किसान) आदि।
निष्कर्ष
इस अनुसंधान से यह निष्कर्ष निकला कि नहर से जुड़े सहायक तालाब में डिजाइनऔर निर्मित की गई इनलेट और आउटलेटजैसी जल बहाव को नियंत्रित करने वाली सुविधाओं ने नहर के जल के अनियमित बहाव को नियंत्रित करने में बहुत ही सकारात्मक प्रभाव डाला। जल के बहाव को नियंत्रित करने वाली सुविधाओं के निर्माण के कारण सहायक तालाब में संग्रहित जल में तालाब में मछली पालन की सुविधा उपलब्ध करवाई जो खेती में एक बहुत ही लाभदायक विकल्प पाया गया है इसके अलावा कुआं खोदने तथा सहायक तालाब केजल के साथ कुंए के जल का संयोजी उपयोग दबाव कुंए के जल का संयोजी उपयोग दबाव सिंचाई सिंचाई पद्धति के माध्यम से करने से न केवल वर्ष भर एक से अधिक फसलों को उगाने में मदद मिली बल्कि पूरक सिंचाई के माध्यम से खरीफ धान की पैदावार में भी सुधार प्राप्त हुआ। कुल मिलाकर, यह अध्ययन दर्शाता है कि वर्षा जल के सरंक्षण और कुशल साधनों के माध्यम से भूजल के साथ इसके संयोजी उपयोग ने केवल एकल धान फसल पद्धति वाले क्षेत्रों को उत्पादक फसल अनुक्रम वाले क्षेत्रों में परिवर्तित कर दिया बल्कि खेती से अधिक कृषि आय की सुविधा उपलब्ध करवाई जिससे ओडिशा राज्य के इस उपजाऊ पठारी क्षेत्र में मछलीपालन के माध्यम से कृषि से अधिक आय प्राप्त हुई।
इस जनजातीय उप परियोजना के माध्यम से कृषि जलीय कृषि / एकीकृत कृषि पद्धति और इनसे संबंधित आजीविका हस्तक्षेपों को बढ़ावा देने के कारण ओडिशा राज्य के सुंदरगढ़ जिले में गरीब वर्ग के आदिवासी समुदायों की खाद्य और पोषण सुरक्षा के साथ-साथ उनकी संवर्धित घरेलू आय बढ़ी हुई आजीविका परिसंपत्तियों और सामाजिक पूंजी के निर्माण में सुधार प्राप्त हुआ इस प्रकार उनके रहन-सहन का स्तर भी ऊंचा उठा जिसके आज वे सभी अपने आप में समृद्धशाली किसानों के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। इस अध्ययन क्षेत्र के भीतर या इसके समान अन्य कृषि- जलवायु वाले क्षेत्र या क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर किसानों द्वारा इस प्रकार की लाभदायक खेती करने और अपनी आजीविका में सुधार करने हेतु इन सभी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक विकल्पों को दोहराया जा सकती है।
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