मौत ही है अंतिम रास्ता

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कपास किसानों द्वारा आत्महत्या का दौर लगातार जारी है। इस विभीषिका का कारण जानने के बावजूद राज्य व केंद्र सरकार द्वारा कोई कदम न उठाया जाना उनकी हठधर्मिता को ही दर्शाता है। लेकिन दूसरी तरफ आमचुनाव में किसानों की समस्या व किसान आत्महत्या का मुद्दा न बनना हम सबकी स्वार्थपरता को भी उजागर कर रहा है। यह बेरुखी भारत नामक राष्ट्र पर अत्यंत भारी पड़ सकती है। मध्य भारत के महाराष्ट्र राज्य का विदर्भ क्षेत्र जो कि एक समय अत्यधिक कपास उत्पादन के लिए जाना जाता था, अब भारत में स्थानीय किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात है। घटती कीमतों, कम होती उपज और बढ़ते ऋण की वजह से पिछले एक दशक में महाराष्ट्र में 2 लाख से ज्यादा कपास किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसमें से तकरीबन सत्तर प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं विदर्भ में हुई हैं। प्रत्येक वर्ष ऋणग्रस्त किसानों की आत्महत्याएं सुर्खियां बटोरती रहती हैं। (सन् 2012 में महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं की संख्या 450 से बढ़कर 3786 तक पहुंच गई है।)

कपास जिसे किसी समय सफेद सोना कहा जाता था अब देश में कीमतों के धराशयी होने का पर्याय बन चुका है। सन् 1970 के दशक में भारत, कपास उपभोक्ताओं को विश्व व्यापार से पृथक तयशुदा मूल्य की ग्यारंटी देता था। सन् 1998 में देश की अर्थव्यवस्था के “उदारीकरण” के पश्चात विश्व व्यापार संगठन के अनुरोध पर भारत ने इन नियमनों को समाप्त कर दिया। इसके बाद से भारत में कपास की कीमतें लगातार गिर रही हैं।

सन् 2002 में भारत में जीनांतरित (जीएम) बीटी कपास बीजों के इस्तेमाल की अनुमति ने संकट में और भी वृद्धि की, लेकिन विरोधाभासी अध्ययनों की वजह से इस तथ्य को स्थापित कर पाना कठिन हो गया। हालांकि किसानों की आत्महत्याओं को सीधे बीटी कपास से नहीं जोड़ा जा सकता, लेकिन बीजों का अत्यधिक मूल्य, खेती की बढ़ती लागत और फसल नष्ट होने के जोखिम ने निश्चित रूप से इसमें भूमिका अदा की है।

बीटी कपास बीज के भारत में यह प्रयोग में आने के बाद भारत को कपास उत्पादन में उछाल आया और यह सन् 2002-2003 में 130.60 करोड़ गांठ (प्रत्येक गांठ 374 पौंड) था जो सन् 2010-11 में बढ़कर 310.20 करोड़ गांठ तक पहुंच गया और भारत एक प्रमुख कपास उत्पादक देश बन गया। उपज में आया आरंभिक उछाल जो कि सन् 2002-03 में 302 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर था वह सन् 2007-08 में बढ़कर 554 किलोग्राम हो गया था, लेकिन इसके बाद से यह कमोवेश स्थिर हो गया है। बढ़ते उत्पादन आंकड़ों के पीछे अब कपास बुआई का बढ़ता रकबा है।

सन् 2002 में कपास बुआई का रकबा केवल 55000 हेक्टेयर था जो कि सन् 2011 में बढ़कर 1.11 करोड़ हेक्टेयर पर पहुंच गया है। वर्तमान में बीटी कपास ही भारत की एकमात्र स्वीकृत जीनांतरित फसल है, लेकिन भारत में कपास की फसल में इसकी हिस्सेदारी 95 प्रतिशत है। आज भारत की गणना विश्व के उन राष्ट्रों में होती है जहां सबसे अधिक क्षेत्र में बीटी कपास की खेती होती है।

उपज में आई स्थिरता के पीछे तथ्य यह है कि किसान अक्सर अपनी मिट्टी की अनुकूलता एवं खेती की स्थितियों के हिसाब से बीजों का चयन नहीं कर पाते और भारतीय बाजार में बीटी हायब्रीड बीजों का अंबार (780 से ज्यादा किस्में) मौजूद हैं। इस बीच बीटी कपास के इस्तेमाल से उत्पादन लागत में तेजी से वृद्धि हुई।

बीटी कपास बीज पारंपरिक बीजों से अधिक महंगा है। जीएम बीज की कीमत 700 रु. से लेकर 2000 रु. प्रति पैकेट के बीच या कहें तो पारंपरिक बीजों से तीन से आठ गुना तक अधिक होती है। बीटी बीजों को प्रतिवर्ष खरीदना पड़ता है जबकि पारंपरिक बीजों को बचाकर रखा जा सकता है और भविष्य में उनका प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा सिंचाई की कमी भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। कपास बोए जाने वाले 90 प्रतिशत खेत वर्षा जल पर निर्भर हैं और अधिकांश बीटी बीज किस्में उन इलाकों के अनुकूल नहीं हैं जहां पर सिंचाई की प्रणाली मौजूद नहीं है। मानसून की असफलता पूरे वर्ष की तैयार फसल को नष्ट करने के लिए काफी है।

इसके अतिरिक्त नए किस्म के कीट एवं विकृतियां सामने आ रही हैं। जैसे कि मीऊली कीट, जो कि फसल को व पूरे खेत को नष्ट कर देती है और इसमें पत्ते खाने वाले जीवाणु भी शामिल हैं। ये दोनों बीटी हाइब्रीड को प्रभावित करते हैं। इसका अर्थ है कीटनाशकों पर और अधिक धन खर्च करना। छोटे किसानों पर इन सबका पड़ने वाला प्रभाव आर्थिक तौर पर बर्बाद कर देने वाला होता है। पारंपरिक कपास बीजों पर वापसी कमोवेश असंभव है, क्योंकि बीजों की पारंपरिक किस्म वास्तव में बाजारों एवं किसानों के घरों से गायब हो गई है। अतएव किसान प्रतिवर्ष कंपनियों द्वारा तय की गई कीमत पर बीटी कपास बीज (और उनके लिए आवश्यक खाद एवं कीटनाशक) खरीदने के लिए बाध्य हो गए हैं।

कपास की खेती के बिना पूरे विदर्भ क्षेत्र की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाएगी। हालांकि क्षेत्र में अनेक किसान अब सोयाबीन लगा रहे हैं, लेकिन यह अतिरिक्त फसल है। घटती उपज एवं बढ़ते ऋण की वजह से अनेक किसान भारतीय महानगरों में शरण लेकर रोजन्दारी करने को मजबूर हो रहे हैं। बाकी के जिनकी जमीनें सूदखोरों के हाथ चली गई है वे उन किसानों के पास जिनके पास अभी भी खेत बचे हैं, के यहां खेत मजदूर के तौर पर कार्य कर रहे हैं। यह अत्यंत दुखद है कि बाकी के लोग मौत को एक रास्ते की तरह चुन रहे हैं।

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