माटी को धूल समझने की भूल घातक

माटी को धूल समझने की भूल घातक
माटी को धूल समझने की भूल घातक


युगों-युगों से कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है। सम्प्रति देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 फीसदी भाग खेती बारी में जुड़े 70 फीसदी जनता के खून पसीने से पैदा होता है, वहीं दूसरी ओर विश्व के दूसरे अमीर देशों में यह प्रतिशत बमुश्किल 2 से 8 फीसदी ही है। हमारे यहां कृषि एवं औद्योगिक विकास एक- दूसरे के सहारे ही आगे बढ़े हैं। सत्तर के दशक में देश में आई हरित क्रांति के उपरांत हम जिस राह पर चले वास्तव में वे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध शोषण के रास्ते थे। हमारी वसुंधरा का वातावरण मानव के भरण पोषण का जितना सामर्थ्य रखता था, उससे कहीं अधिक हमने खींच लिया और तेजी से समाप्त हो रही इस प्राकृतिक पूंजी में यदि हमने आज ही कुछ जोड़ना शुरू नहीं किया तो शायद कल बहुत देर हो जाएगी। पूरे विश्व में आज जीवन व पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही है । इस बाबत देश में हरित क्रांति को सफल बनाने के लिए रासायनिक उर्वस्कों व कृषि रक्षा रसायनों का ऐसा असंतुलित उपयोग बढ़ा कि आज हम अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो गए लेकिन धरती मां को बीमार होने से नहीं बचा सके। 

ऐसे में अंधाधुंध उर्वरकों के प्रयोग की प्रवृत्ति अब खतरनाक मोड़ ले चुकी है। खेतों की उर्वरा शक्ति में कमी आने के साथ -साथ उत्पादन में ठहराव आ गया है। वाराणसी जनपद में मिझी जांच के नमूने भी चौंकाने वाले हैं। इसमें खेत के पोषक तत्वों में आधे से अधिक की गिरावट मिली है। यदि यही स्थिति रही तो आने वाले समय में हरित क्रांति से उपजी खुशहाली का रंग फीका पड़ जाएगा और पोषक तत्वों की कमी से यदि बीमार मृदा मुर्दा हो जाएगी तो कोई आश्चर्य नही। ऐसे में दाल- रोटी के लाले भी पड़ सकते हैं। इसके लिए चौंकने की जरूरत नहीं है बल्कि चेतने की जरूरत है और समय रहते मिट्टी की जांच कराकर पोषक तत्वों को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।  जनपद में हो रही मृदा जांच रिपोर्टों पर नजर डालें ।तो खेत में जीवांश कार्बन, फास्फेट, पोटाश, सल्फर जिंक, लोहा, कॉपर, मैंगनीज जैसे पोषक तत्वों की मात्रा में काफी गिरावट आई है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यदि समय रहते किसानों में इसके प्रति जागरूकता नहीं लाई गई तो जनपद में कृषि योग्य भूमि बंजर हो जाएगी। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

तेजी से समाप्त हो रहा मिट्टी का खून कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार स्वस्थ मृदा में जीवांश कार्बन की मात्रा दशमलव आठ फीसदी से अधिक होनी चाहिए जबकि हकीकत यह है कि आज प्रदेश के कई जनपदों की मिट्टियों में जीवांश कार्बन की मात्रा दशमलव चार से भी कम हो गई है, जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है। अब ऐसे में यदि हमें अपनी धरती मां को जीवित रखना है यानी मिट्टी में जीवांश की मात्रा को बढ़ाना है तो हमें जैविक खेती और प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर होना ही होगा।

धरती मां को बचाएं, बेटे का कर्तव्य निभाएं जागरूकता की कमी के चलते माटी की बिगड़ती सेहत को सुधारने के लिए हमें धरती मां के प्रति एक सच्चे बेटे का धर्म निभाना होगा। एक मां अपने बच्चे को दूध पिलाकर बड़ा करती है और हम हैं कि अनजाने में सही अपनी धरती मां का खून चूसने पर आमादा हैं बल्कि धरती मां को दूध के बदले उन्हें जहर पिला रहे हैं और धरती मां के खत्म हो रहे खून (जीवांश कार्बन) को बढ़ाने की दिशा में सार्थक प्रयास नहीं कर रहे हैं। मिझी में जीवांश
कार्बन को बढ़ाना जैविक खेती व प्राकृतिक खेती से ही सम्भव है। ऐसे में धरती मां के प्रति हमें एक सच्चे बेटे का धर्म निभाना है तो हमें प्राकृतिक खेती को अपनाकर धरती मां को बीमार होने से बचाना होगा।

सुधर जायेंगे हालात बशर्ते ध्यान दें 70 के दशक में आई हरित क्रांति के फलस्वरूप अनाज उत्पादन के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हुए लेकिन उसके बदले हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी और हम धरती मां को बीमार होने से नहीं बचा सके। बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण व बीमार होती खेत की माटी को देखें तो ऐसा लगता है कि हरित क्रांति से उपजी खुशहाली का रंग अब फीका पड़ रहा है। वर्षों पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने एक नारा दिया था - वेदों की ओर लौटो- ऐसे ही हमें भी आज एक नारा देना होगा कि प्रकृति की ओर लौटे- इस नारे को सार्थक करने और अपनाने से ही हम अपनी धरती मां और मानव जीवन की रक्षा कर सकेगे। हमें प्राकृतिक खेती, जैविक खेती की ओर अग्रसर होना होगा।

एक वैज्ञानिक यथार्थ

प्रख्यात मृदा वैज्ञानिक डॉ. जेएस कंवर के अनुसार “मुट्ठी भर मृदा पर ही हमारा जीवन निर्भर है । इसकी सुरक्षा व पोषण होगा तो यह हमें भोजन, ईंधन, वस्त्र, औषधि प्रदान करेगी। हमारे चारों ओर सौंदर्य बिखेंरेगी। इसके साथ दुर्व्यवहार होगा तो मृदा ठह जायेगी, मर जाएगी और मनुष्य को अपने साथ ले जाएगी।'

बोले मृदा वैज्ञानिक-मिट्टी में घटता जीवांश चिंता का विषय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त मृदा वैज्ञानिक डॉ. आरसी तिवारी कहते हैं कि मिट्टी में घटता जीवांश चिंता का विषय है, जिस दिन मिट्टी का खून (जीवांश कार्बन) समाप्त हो जाएगा, उस दिन हम सब समाप्त हो जाएंगे।

हम सभी मिट्टी को धूल समझते हैं, जिस दिन थाली में भोजन नहीं होगा, उस दिन मिझी की याद आएगी और तब शायद बहुत देर ह्लो चुकी होगी। माटी की सेहत में सुधार जैविक खेती, गौ आधारित प्राकृतिक खेती से ही सम्भव है। ऐसे में मृदा को मुर्दा होने से बचाने के लिए हम सभी को मिलकर जैविक खेती, गौ आधारित प्राकृतिक खेती को अपनाना ही होगा।

 

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Post By: Shivendra
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