भारतीय संविधान ने ग्रामसभा व नगर स्तरीय निर्वाचित इकाइयों को ’सेल्फ गवर्नमेन्ट’ यानी ’स्वयं में सरकार’ कहा है। 73वें संविधान संशोधन ने राज्यों को राज्य स्तरीय पंचायती अधिनियम बनाने का अधिकार देते हुए अपेक्षा की थी कि वे ग्राम सभाओं को ’स्वयं में सरकार’ के उनके दर्जे के अनुरूप कार्य कर करने का अवसर देंगी। सरकार के मंत्रालय व विभाग होते हैं। राज्यों ने इसी तर्ज पर ग्राम पंचायतों को वित्त, नियोजन, प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, जल, स्वास्थ्य कार्य संबंधी समितियों के गठन के अवसर तो दिए, किंतु ग्रामसभा को महत्वहीन ही रखा। लिहाजा, आज भी ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि ज्यादातर राज्य सरकारें और पंचायत प्रतिनिधि खुद कोे विकास संबंधी केन्द्र और राज्य के अनुसूचित 29 विषयों की क्रियान्वयन एजेन्सी मात्र ही मानते हैं।
इस दिशा में बदलाव की खिड़की खोली, वर्ष 2014 में केन्द्र सरकार द्वारा नियोजित ’ग्राम पंचायत विकास योजना’ ने। अपनी ग्राम पंचायत की पंचवर्षीय योजना खुद बनाने और उसे मंजूर करने का सर्वोपरि अधिकार ग्रामसभाओं को सौंप दिया गया। अब जल जीवन मिशन ने इसी लोकतांत्रिक दिशा में आगे बढ़ने का जज्बा दिखाया है।
गौर कीजिए कि ग्राम स्तरीय पानी समितियां पहले से हैं। ग्राम स्तरीय पेयजल प्रबंधन का दायित्व पहले भी पानी समिति का ही था। किंतु यह पहली बार हुआ है कि ग्राम स्तरीय पेयजल प्रबंधन की तैयारी, नियोजन, डिज़ाइन, क्रियान्वयन, प्रचालन, खरीद, कनेक्शन देना, पानी का वितरण, खाता, रिकाॅर्ड, कर्मचारी की नियुक्ति, काम की निगरानी आदि की सम्पूर्ण जिम्मेदारी व अधिकार वास्तव में पानी समितियों को सौंप दिए गए हैं। इसका दस्तावेज़ी सबूत देखना हो, तो जल जीवन मिशन द्वारा ग्राम पंचायत तथा पानी समितियों द्वारा घरों में स्वच्छ जल प्रदान किए संबंधी मार्गदर्शिका देखिए।
पानी कनेक्शन देना, मीटर की जांच करना, टूट-फूट की मरम्मत, 24 घण्टे जलापूर्ति, एवज् में मासिक शुल्क तय करने से लेकर संग्रह करने तक की जिम्मेदारी पंचायतों को निभानी है। सरपंच को देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई है। पानी समिति चयन में सहयोग, प्रशासन-पंचायत के बीच समन्वय, रिकाॅर्ड रखने तथा ग्राम सभा बैठक बुलाने की जिम्मेदारी पंचायत सचिव की है। जल ग्रामसभा का प्रावधान किया गया है। पानी प्रबंधन की ग्राम कार्य योजना के संबंध में अंतिम निर्णय देने का अधिकार, ग्रामसभा का है।
प्रत्येक घर को पानी कनेक्शन देना अनिवार्य अवश्य किया गया है, किंतु साथ में शुल्क तय करने तथा अक्षम उपभोक्ता को जलोपयोग शुल्क में छूट देने का अधिकार भी पानी समिति को होगा। पानी समिति को दिए ये अधिकार यह सुनिश्चित कर सकें कि नई पेयजल व्यवस्था, पानी के बिल में मनमानी वृद्धि व रखरखाव के नाम पर लूट का पर्याय न बन सकें, इसके लिए पानी समितियों को पूरी ईमानदारी, सहभागिता व सक्षमता से अपने दायित्व का निर्वाहन करना होगा।
प्रावधान है कि प्रत्येक पानी समिति में 25 प्रतिशत सदस्य निर्वाधित प्रतिनिधियों में से होंगे। 50 प्रतिशत अनिवार्य रूप से महिलाएं ही होंगी। शेष सदस्यता को खुला रखा गया है। संभव है कि यह आरक्षण मददगार हो। ग्राम पंचायतों की संख्या के अनुपात में पंचायत सचिवों की संख्या काफी कम है। कई राज्यों में एक पंचायत सचिव के पास पांच-पांच ग्राम पंचायतों का कार्यभार है। संख्या के साथ-साथ पंचायत सचिवों के मौजूदा मानस के देखते हुए मदद की एक गुहार यह भी है कि पानी समिति की बैठक व पानी के संबंध में ग्रामसभा की बैठक बुलाने के अधिकार भी अनिवार्य रूप से संबंधित पानी समिति के सचिव को सौंप दिए जाएं।
यहां यह मांग भी उचित होगी कि जब सरकार नगर-निकायों व पंचायतों को पेयजल की स्थानीय योजना बनाने की आज़ादी देने की ओर बढ़ ही गई हैं, तो ग्रामसभाओं को यह तय करने की भी आज़ादी दें कि वे पानी कैसे लेना चाहते हैं: सीधे-सीधे हैंडपम्प से, कुएं से, किसी सतही जल स्त्रोत से अथवा नल से। क्या जल जीवन मिशन, यह आज़ादी देगा ?
हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग द्वारा जारी अधिसूचना, जल संरचनाओं की सुरक्षा व समृद्धि की पूरी जवाबदेही प्रशासन पर डालती है। अब तक के ऐसे कई प्रावधान, प्रशासन को भी बराबर का जवाबदेह बनाते है। कई पूर्व प्रावधान, नियम, आदेश व क़ानून विरोधाभासी भी हो सकते हैं। जवाबदेही को स्पष्ट करने तथा जल जीवन मिशन के मार्गदर्शी निर्देशों को विरोधाभासों से मुक्त करने के लिए ऐसे प्रावधानों की पहचान और उनका समाधान ज़रूरी होगा, यह करें।
बुनियादी सुधार के कदम
ख़ैर, गौर करने योग्य तथ्य है कि ग्रामवासी सदियों से एक भूगोल में रह रहे हैं। स्थानीय भूगोल व उपयोग के व्यावहारिक पहलुओं का अनुभव, किसी भी अन्य की तुलना में ग्रामीणों को ज्यादा होता है। किंतु उनकी समझ पर भरोसा न करने के कारण मनरेगा के तहत बने जल-ढांचे, क्षमता के अनुरूप जल संग्रहण करने में अक्षम साबित हो रहे हैं। स्थान के चयन और डिजाइन में गलती, इसका मूल कारण है। सुखद है कि मार्गदेशी निर्देश दस्तावेज़ तैयार करते वक्त ऐसी कई बुनियादी ग़ल़तियों को सुधारा गया है। जलापूर्ति स्त्रोत के चयन की बाबत निर्देश दिया गया है कि भू-वैज्ञानिक के साथ-साथ गांव के बुजुर्ग की भी राय ली जाए। मूल स्त्रोत के डिस्चार्ज की नाप हो। ऐसे स्त्रोत का चयन किया जाए जो 55 लीटर प्रति व्यक्ति आपूर्ति के औसत से संबंधित उपभोक्ता समूह को कम से कम 30 वर्ष तक पानी पिला सके। स्त्रोत ऊंचे पर हो तो गुरुत्वाकर्षण आधारित ग्रेविटी योजना बने। भण्डारण हेतु ढालदार जलागार का निर्माण किया जाए। स्त्रोत समतल पर हो तो पम्पिग योजना बने। 24 घण्टे आपूर्ति हेतु सौर ऊर्जा की व्यवस्था हो। आपूर्ति में लीकेज जांच हेतु स्त्रोत पर मीटर लगाया जाए।
जल योजना बनाने से पहले जल-बजट बनाने का निर्देश, जल प्रबंधन की स्थानीय सूझबूझ बढ़ाने वाला साबित होगा। जल बजट के जरिए पंचायत पेयजल के उपयोग की स्थानीय मांग व आपूर्ति क्षमता का पूर्व आकलन कर सकेगी। जल स्त्रोत क्षमता अधिक हो तो अंतःग्राम योजना बनाई जाए। क्षमता कम हो तो एक धरातल स्त्रोत आधारित बहुग्राम योजना का प्रावधान है। ये दो निर्देश सुनिश्चित करेंगे कि योजना बनाते वक्त प्रशासनिक सीमा से ज्यादा, भूजल भण्डार व उसके प्रभाव क्षेत्रफल को प्राथमिकता दी जाए।
एक बसावट के सभी उपभोक्ताओं को समान आकार का पाइप कनेक्शन दें। दुरुपयोग रोकने की दृष्टि से मांगने पर भी भिन्न आकार का पाइप कनेक्शल की अनुमति नहीं देने का निर्देश है। ऐयरेटर नल नहीं लगाने पर दण्ड व कनेक्शन काटने का प्रावधान है। बसावट से दूर बसे किसी एक घर के लिए जल-जीवन निधि के उपयोग की मनाही है। मवेशियों के लिए कुण्ड तथा घरों में कम जगह वाले गांवों में नहाने, बर्तन धोने आदि हेतु सामुदायिक संरचना के निर्माण के प्रावधान को समझदारी से क्रियान्वित किया गया, तो ये साझा बढ़ाने वाले कदम साबित होंगे। वित्त, सामुदायिक, संस्थागत, तकनीकी एवम् पर्यावरणीय आधार पर मूल्यांकन का प्रावधान समग्रता सुनिश्चित करने में सहायक होगा। जागरूकता तथा रखरखाव हेतु हुनर प्रशिक्षण का प्रावधान है ही।
अंशदान और उसकी वापसी के प्रावधान महत्वपूर्ण
मुफ्त हासिल, हमें संसाधन के प्रति गै़र जिम्मेदार और लालची बनाता है तथा अंशदान, जवाबदेह। ग्रामीण पानी प्रबंधन की इस ताज़ा प्रक्रिया की एक खूबी यह भी है कि यह पूरी तौर पर मुफ्त नहीं है। पेयजल व्यवस्था के लिए जल-जीवन मिशन, ज़िला खनिज विकास निधि, कंपनियों की सामाजिक दायित्व निधि, सांसद-विधायक पार्षद आदि को हासिल स्थानीय विकास निधि से धन लिया जा सकेगा। आपदा की स्थिति में राज्य कोष से धन हासिल किया होगा। जल पुनर्भरण हेतु मनरेगा, कैम्पा तथा 15वें वित्त आयोग निधि आदि का उपयोग संभव होगा। गंदे पानी के पुर्नोपयोग हेतु स्वच्छ भारत मिशन तथा 15वें वित्त आयोग से प्राप्त निधि से धन उपलब्ध कराया जाएगा।
अच्छी बात है कि पेयजल व्यवस्था के रखरखाव हेतु भी 15वें वित्त आयोग की निधि का प्रावधान तो है, किंतु कुछेक व्यक्तिगत् मामलों को छोड़कर शेष सभी के लिए सामुदायिक अंशदान ज़रूरी किया गया है। हिमालयी, पूर्वोत्तर व अन्य पहाड़ी प्रदेश तथा 50 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति-जनजाति आबादी वाली ग्राम पंचायतों को 05 प्रतिशत सामुदायिक अंशदान देना होगा; अन्य पंचायतों को 10 प्रतिशत। अच्छी बात यह भी है कि नकदी के अलावा वस्तु व श्रम के रूप में प्राप्त अंशदान भी स्वीकार्य होगा। सामुदायिक अक्षमता की स्थिति में अंशदान किस्तों में देने की छूट रहेगी। पानी समिति को अधिकार दिया गया है कि व्यक्तिगत अक्षमता की स्थिति में अंशदान में छूट दे सके।
प्रेरक प्रावधान है कि परियोजना सफल होने पर 10 प्रतिशत अंशदान के बराबर धनराशि को प्रोत्साहन राशि के रूप में वापस किया जाएगा।
...ताकि व्यर्थ न जाए यह अवसर
जल जीवन मिशन ने तो मार्गदर्शी निर्देश लिखकर दे दिए हैं। अब गांवों की परीक्षा है कि वे इनकी पालना में अपनी समझ, साझा, सदाचार और सक्रियता का कितना विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हैं। हम विचार करें कि कोई अवसर, भले ही एक पूरी यात्रा न होता हो; किंतु यात्रा मार्ग की मील का ऐसा पत्थर ज़रूर होता है, जिसका हासिल हमें यात्रा में आगे जाने की ऊर्जा देता है। पेयजल के बहाने जल जीवन मिशन द्वारा प्रदत यह लोकतांत्रिक अवसर, गांवों को लोकतांत्रिक आज़ादी देने की यात्रा का पथ प्रदर्शक बन सकता है; बशर्ते, हम भारत के गांववासी इस अवसर को व्यर्थ न गवाएं।
सतर्क रहें कि समय सीमा में लक्ष्य प्राप्ति का प्रचार हासिल करने की ललक व दबाव अक्सर कई ग़ल़तियां कराते है कागज़ पर कुछ और होता है, हक़ीक़त में कुछ और। चूंकि इस बार हुई ऐसी ग़ल़तियां गांवों को हासिल एक बेशकीमती लोकतांत्रिक अवसर को खो देने का कारण बनेंगी; अतः आगे बढ़ने से पहले जल जीवन मिशन को जांचना तो चाहिए ही कि क्या कागज़ पर लिखे मार्गदर्शी निर्देशों को ज़मीन पर उतारा गया है अथवा प्रक्रिया को पूर्व की तरह सरपंच, ग्राम सचिव, ठेकेदार व प्रशासन द्वारा ही सम्पन्न किया गया है। 100 फीसदी हासिल लक्ष्य वाले गोवा और तेलगांना इसकी जांच प्रयोगशाला बन सकते हैं। आइए बनाएं और सीखें।
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