मध्य प्रदेश के धार जिले में विन्ध्याचल पर्वत के पठार पर मांडू का विश्व प्रसिद्ध किला स्थित है। यह किला लगभग 77.25 वर्ग किलोमीटर (48 वर्गमील) क्षेत्र में फैला है। यह किला अपने गंगा-जमुनी संस्कृति, रानी रुपमति और बाज बहादुर की प्रेम कहानी तथा अद्भुत जल प्रबन्ध के लिये जाना जाता है। यह पश्चिमी मध्य प्रदेश का सबसे अधिक प्रतिष्ठित पर्यटक स्थल भी है।
मांडू की कहानी आठवीं सदी से प्रारम्भ होती है। आठवीं सदी में इसे परमार राजाओं ने आबाद किया। उनका कार्यकाल 13वीं सदी तक रहा। चूँकि मांडू के पठार पर पानी की बारहमासी व्यवस्था नहीं थी इसलिये परमार राजाओं (मुख्यतः राजा मुंज और राजा भोज) ने तालाबों के निर्माण में रुचि ली और पठार पर अधिक-से-अधिक संख्या में तालाब बनवाए।
परमार राजाओं के बाद सुल्तान शासक आये। उनका आधिपत्य 1535 तक रहा। फिर मुगल आये। मुगलों का आधिपत्य 1725 तक रहा। अन्तिम दौर मराठा शासकों का था जो 1947 में भारत की आजादी के साथ खत्म हुआ।
मांडू में जल संरचनाओं का विकास परमार राजाओं, सुल्तानों और मुगल शासकों ने किया। उनके पास विकल्प के तौर पर केवल बरसात का पानी था। पानी की उसी मात्रा की उचित व्यवस्था पर मांडू का भविष्य निर्भर था। इस कारण उसे तालाबों में संचित करने का सारा काम समझदारी का परिचय देते हुए पूरी तकनीकी दक्षता से किया गया।
उल्लेखनीय है कि भारत में भूजल की खोज का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। सिन्धु सभ्यता में भी उसके प्रमाण मिलते हैं। भूजल विज्ञान को प्रमाणिकता उज्जैन निवासी वाराह मिहिर ने प्रदान की। वे पहले भूजल विज्ञानी थे जिन्होंने अपनी पुस्तक वृहतसंंहिता में भूजल की खोज तथा उसके उपयोग के बारे में 125 सूत्र प्रस्तुत किये थे। वे केवल सूत्र ही नही वरन गागर में सागर थे।
उन सूत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि वाराहमिहिर ने प्राकृतिक संकेतों (दीमक की बाबीं, मिट्टी, चट्टानों के गुणों के बदलाव, पौधों की कतिपय प्रजातियों तथा जीवों के आवास इत्यादि) की मदद से भूजल की सटीक भविष्यवाणी के बेहद सरल तरीके खोजे थे। वे तरीके इतने सरल थे कि आम आदमी भी उनका प्रयोग कर सकता था।
माना जा सकता है कि उज्जैन और मांडू की निकटता के कारण, निर्माण कर्ताओं तथा शिल्पियों को भूजल की खोज से सम्बद्ध ज्ञान आसानी से उपलब्ध था और सम्भव है निर्माणकर्ताओं ने उस परम्परागत ज्ञान का उपयोग कुओं तथा बावड़ियों के निर्माण में किया हो। इसी कारण मांडू के पठार पर 1200 कुएँ तथा पुरानी बावड़ियाँ मिलती हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत में तालाब निर्माण का इतिहास काफी पुराना है। ईसा से लगभग तीन सदी पहले सम्राट अशोक ने साँची (मध्य प्रदेश) में पहाड़ी पर तीन तालाबों की शृंखला बनवाई थी। माना जा सकता है कि मांडू और साँची की निकटता के कारण तालाब निर्माण की तकनीक का उपयोग निर्माणकर्ताओं ने तालाबों की शृंखला बनाने में किया हो।
सम्भवतः इसी ज्ञान का उपयोग कर मांडू के पठार पर 40 तालाब बनवाए गए थे। इसके अतिरिक्त तत्कालीन जल वैज्ञानिकों ने कुशल शिल्पियों की सहायता से छोटी-छोटी सरिताओं पर 70 स्थानों पर परम्परागत तरीके से पानी रोका था।
तालाबों, कुओं, बावड़ियों तथा छोटी-छोटी सरिताओं पर हुआ निर्माण देखकर लगता है कि मांडू का सारा निर्माण कार्य पानी की हर बूँद को जमा करने को ध्यान में रखकर किया गया था।
उल्लेखनीय है कि धार जिले की औसत वर्षा 800 मिलीमीटर है। सम्भव है मांडू के पठार पर थोड़ा अधिक पानी बरसता हो। यदि आधुनिक वैज्ञानिकों की बात मानें तो मांडू के पठार पर हर साल लगभग पाँच करोड़ क्यूबिक मीटर (80 प्रतिशत) पानी संचित किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि मांडू के पूर्वी भाग में तालाबों की शृंखला है। उस शृंखला के प्रमुख तालाब हैं राजा हौज, भोर, लम्बा, समन और लाल बंगला तालाब। इन तालाबों का पानी ओवर-फ्लो होकर एक-दूसरे को भरता है। इन तालाबों को सूखने से बचाने के लिये उनमें मैदानी इलाकों से पानी उठाकर भरा जाता था।
यह पानी, मांडू के पूर्वी भाग में स्थित सात सौ सीढ़ी नामक स्थान से प्राप्त किया जाता था। इस स्थान पर अनेक नदी-नालों का पानी आता था। लगता है जब मांडू की आबादी बढ़ी तो तत्कालीन शासकों ने पानी की आपूर्ति को बढ़ाने के लिये इस स्थान पर पानी का संचय किया और उसे पर्शियन प्रणाली (रहट) द्वारा ऊपर पहुँचाया। इस पूरक व्यवस्था ने तालाबों को सूखने से बचाया और पानी की उपलब्धता को विश्वसनीयता प्रदान की।
इस प्रकार चार लाख से लेकर पाँच लाख तक की आबादी को पानी उपलब्ध हो गया। यह व्यवस्था मांडू के नदी विहीन उस पठार पर की गई थी जो कठोर चट्टानों पर बसा होने के कारण भूजल दोहन के लिये अनुपयुक्त और तत्कालीन सुरक्षा मानकों के लिहाज से उपयुक्त था।
तालाबों के अतिरिक्त पानी की ओवर-फ्लो प्रणाली भारत के कम बरसात वाले पहाड़ी इलाकों में अपनाई जाती थी। यह प्रणाली राजस्थान के उदयपुर तथा मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड इलाके में आम थी। दक्षिण भारत में भी नदियों के पानी से तालाबों को भरा जाता था। तालाबों की यह ओवर-फ्लो प्रणाली पानी के विकेन्द्रीकृत व्यवस्था और परम्परागत जल विज्ञान का अप्रतिम उदाहरण थी। वह व्यवस्था तालाबों को लगभग गाद मुक्त रखकर उन्हें दीर्घजीवी बनाती थी।
आधुनिक युग में ज्ञान के बढ़ने के बावजूद जलाशयों में गाद का जमाव अनसुलझी समस्या जैसा है। आधुनिक युग में उस निरापद जल विज्ञान आधारित प्रबन्ध को भुला दिया गया है। उस भूल का परिणाम आधुनिक ताल-तलैया तथा जल संचय संरक्षण संरचनाएँ भोग रही हैं। इसी कारण वे गाद से पटकर अनुपयोगी हो रही हैं। गाद निकालना खर्चीला तथा अस्थायी इन्तजाम है।
मांडू के प्रसिद्ध तालाबों में सागर तालाब, जहाज महल के आसपास का मुंज और कपूर तालाब, रेवा कुण्ड, रानी रूपमति के महल का जल प्रबन्ध दर्शनीय है। मांडू का सबसे बड़ा तालाब सागर तालाब है। उसकी गहराई लगभग 28 फुट है। इसका अर्थ है कि तत्कालीन जल वैज्ञानिकों ने तालाब की गहराई का निर्धारण करते समय वाष्पीकरण से होने वाली कुदरती हानि को भी ध्यान में रखा था।
इस तालाब का कैचमेंट बड़ा है इसलिये उसके अतिरिक्त पानी को जमा करने के लिये सागरी तालाब बनाया गया है। यह व्यवस्था पानी की हर बूँद को जमा करने तथा बारहमासी तालाब निर्माण व्यवस्था को सिद्ध करती है। नील कण्ठेश्वर महादेव मन्दिर का जल प्रबन्ध भी उल्लेखनीय है। यहाँ भूजल के रिसाव के पानी को रोकने की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त यहाँ दीपक के आकार की संरचना का उपयोग गाद को जमा करने के लिये अपनाया गया है। अर्थात उस तालाब में गाद के निपटान की माकूल व्यवस्था बनाई गई थी।
रानी रुपमति के महल में राजस्थान के जल प्रबन्ध के तरीके को अपनाया गया था। महल की छत पर बरसने वाले पानी को नालियों तथा पाइपों की मदद से, पहली मंजिल पर जमा किया जाता था। उस पानी को साफ करने के लिये कोयले और रेत के फिल्टरों का उपयोग किया जाता था। साफ किये पानी को एक विशाल हौज में एकत्रित किया जाता था। यह पानी सैनिकों के पीने के लिये प्रयुक्त होता था। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। उसे देखा जा सकता है।
मांडू के परम्परागत जल विज्ञान का विवरण चम्पा की बावड़ी के बिना अधूरा है। यह बावड़ी हिंडोला महल के पास स्थित है। उसका आकार चम्पा के फूल के समान है और वह भूजल प्रदाय का विश्वसनीय स्रोत था। संक्षेप में, मांडू का जल प्रबन्ध जल संग्रह, भूजल उपयोग और फिल्टर के अलावा पानी की पूरक व्यवस्था का अप्रतिम उदाहरण है। अन्त में, पिछले लगभग 300 सालों में हमने उस परम्परागत जल प्रबन्ध में कुछ भी नया नहीं जोड़ा है। पानी के प्रबन्ध करने वाले लोगों के लिये यह मांडू की चुनौती है।
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