मानवाधिकार, मायने और पानी

विश्व मानवाधिकार दिवस, 10 दिसम्बर पर विशेष


क्या गजब की बात है कि जिस-जिस पर खतरा मँडराया, हमने उस-उस के नाम पर दिवस घोषित कर दिये! मछली, गोरैया, पानी, मिट्टी, धरती, माँ, पिता...यहाँ तक कि हाथ धोने और खोया-पाया के नाम पर भी दिवस मनाने का चलन चल पड़ा है। यह नया चलन है; संकट को याद करने का नया तरीका।

यूँ अस्तित्व में आया मानवाधिकार दिवस


संकट का एक ऐसा ही समय तक आया, जब द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। वर्ष 1939 -पूरे विश्व के लिये यह एक अंधेरा समय था। उस वक्त तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रुजावेल्ट ने अपने एक सम्बोधन में चार तरह की आज़ादी का नारा बुलन्द किया: अभिव्यक्ति की आज़ादी, धार्मिक आजादी, अभाव से मुक्ति और भय से मुक्ति।

छह जनवरी, 1941 को अमेरिकी कांग्रेस श्री रुजावेल्ट के उस सम्बोधन को ‘फॉर फ्रीडम स्पीच’ का नाम दिया गया। चार तरह की आज़ादी की यही अपेक्षा, आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकार सम्बन्धी घोषणा का आधार बनी।

संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को मानवाधिकार सम्बधी घोषणा की। घोषणापत्र में प्रस्तावना के अलावा 39 धाराएँ थीं। मूल मंतव्य था, मानव के मौलिक अधिकारों का अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण किया जाये। उस घोषणापत्र को दुनिया की 380 भाषाओं में अनुदित किया गया।

एक दस्तावेज के इतनी अधिक भाषाओं में अनुदित होना, स्वयमेव एक रिकॉर्ड बनकर गिनीज वर्ल्ड बुक में दर्ज हो गया। घोषणापत्र, दुनिया में लागू हुआ हो या न हुआ हो, किन्तु चार दिसम्बर, 1950 को बैठी संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा ने घोषणापत्र जारी करने की तिथि यानी 10 दिसम्बर को औपचारिक रूप से ‘विश्व मानवाधिकार दिवस’ घोषित कर दिया।

सहमति के 50 साल


गौर कीजिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा आगे चलकर दो पहलुओं पर वैश्विक सहमति बनाने में सफल रही: पहला - आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार; दूसरा -राजनैतिक और नागरिक अधिकार।

तारीख थी -16 दिसम्बर,1966। वर्ष 2015-16,एक तरह से मानवाधिकार सम्बन्धी वैश्विक सहमति की पचासवीं वर्षगाँठ है। अतः इस वर्ष को उक्त सहमति बिन्दुओं को समर्पित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र इस विषय पर एक वर्षीय अभियान चलाएगा।

इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव श्री बान की मून ने सभी मानवाधिकार संरक्षण तथा मौलिक आजादी की गारंटी हेतु स्वयं को पुनर्संकल्पित करने का आह्वान किया है, किन्तु क्या हमें मानवाधिकार के रूप-रंग, चाल-ढाल, परिभाषा से सचमुच सही-सही परिचित करा दिया गया है?

ऐसा तो नहीं कि मानवाधिकार के नाम पर एक व्यक्ति के अधिकारों की पूर्ति के लिये हम दूसरे व्यक्ति के अधिकार की पूर्ति में खलल डालने के काम में लगे हों? मानवाधिकार पूर्ति के लक्ष्य और लक्षणों को कई उक्तियाँ कही गई हैं। उनका सन्देश यही है कि मानवाधिकार का उल्लंघन करने का मतलब, मानवता को चुनौती देना है। जरा सोचिए, मानवता को चुनौती देकर क्या कोई मानव, मानव बना रह सकता है?

मानवाधिकार के मायने


यदि हम मानवाधिकार का वर्तमान उल्लंघन जारी रहने देते हैं, तो निश्चित जानिए कि भावी विवादों की नींव रखने वालों में हम भी शामिल हैं। हमें समझना होगा कि न्याय, जब तक पानी की तरह ऊपर से नीचे की तरफ प्रवाहमान नहीं होता, अधिकार की प्राप्ति एक ऐसी शक्तिशाली नदी की तरह रहेगी, जिसे हासिल करना सहज नहीं। उससे सिर्फ आक्रान्त हुआ जा सकता है।

कहते हैं कि युद्ध के समय कानून शान्त रहता है। ऐसे में मानवाधिकार की रक्षा कानून नहीं, बल्कि हमारी संवेदना और संकल्प के ही बूते की जा सकती है। इसकी तैयारी तभी हो सकती है कि जब हम समझें कि किसी एक के प्रति हुआ अन्याय, हम में से प्रत्येक के लिये एक चेतावनी है।

अतः अन्याय के खिलाफ आज ही चेतें; आज ही अपना दायित्व समझें और निभाएँ। जिनसे हम सहमत हैं, यदि उनसे बातचीत जारी रखना चाहते हैं, तो हमें उनकी अभिव्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी होगी, जिनसे हम सहमत नहीं हैं; वरना तय मानिए कि कल को हम इस लायक नहीं बचेंगे कि हमारी सहमति और असहमति का कोई मतलब हो। असहिष्णुता को लेकर छिड़ी जंग में आमने-सामने खड़े पक्षों को यह उक्ति अच्छी तरह याद कर लेनी चाहिए।

दरअसल, मानवाधिकार की असली समझ..असली शिक्षा वही है, जो हमें जिन्दगी के वास्तविक मुद्दों से जोड़ती हो और उनमें ऐसे बदलाव के लिये समर्थ बनाती हो, जिनका मानवता के लिये वाकई कोई मतलब हो। हमारे रंग-रूप, वेश-भूषा, प्रान्त-बोली, अमीरी-गरीबी... सब कुछ भिन्न हो सकते हैं, किन्तु यदि अवसरों में समान हिस्सेदारी सुनिश्चित कर सकें, तो यही मानवाधिकार है।

एक मानव द्वारा दूसरे मानवों के अधिकारों का सम्मान किये बगैर यह हो नहीं सकता। अपनी व्यक्तिगत आज़ादी को सामूहिक तरक्की के लिये इस्तेमाल करके यह हो सकता है; किन्तु क्या यह हो रहा है? वर्ष 2015 के इस मानवाधिकार दिवस पर सोचने के लिये यह प्रश्न काफी है।

पानी और मानवाधिकार


पानी के भारतीय परिदृश्य को ही लें। परिदृश्य निश्चित ही चिन्तित करने वाला है। प्राकृतिक संसाधनों को अपने हक में लाने के लिये अंग्रेजी हुक़ूमत ने लोगों को कुदरत के दिये इस अनुपम उपहार के हक से वंचित कर दिया।

हालांकि ‘जिसकी भूमि-उसका भूजल’ का निजी अधिकार पहले भी भूमालिकों के हाथ था और आज भी है, लेकिन नदियाँ-जंगल आदि सतही स्रोत हुक़ूमत के हो गए। ‘रेल नीर’ को कोई कारखाना, किसी इलाके में जाता है और खेती पर निर्भर लोगों के हक का सारा पानी लाकर पैसा कमाता है।

दिल्ली वालों के पास पैसा है, तो वे टिहरी के हक का गंगाजल, अपने शौचालयों में बहाते हैं। जेटपम्प वाला, समर्सिबल और समर्सिबल वाला ट्युबवेल तथा ट्युबवेल वाला किसी के भी कुआँ सुखाने के लिये स्वतंत्र हैं। इससे मानवाधिकार संरक्षण के संकल्प की रक्षा कहाँ हुई?

शासन ही नहीं, स्वयं हमें भी अपनी हकदारी तो ध्यान है, जवाबदारी याद करने वाले कितने हैं? मानवाधिकार के नाम पर, क्या हमने नदी, समुद्र, तालाब, झील और न मालूम कितने जीवों से उनके जीने का हक छीन नहीं लिया? मानवाधिकार की संकल्पना के असल मायने क्या हम भूल नहीं गए हैं? सोचिए!

कितना सहायक व्यावसायीकरण?


गौर कीजिए कि हमारी सरकारों ने हमें पानी पिलाने के लिये जिन पीपीपी मॉडलों को चुनना शुरू किया है, उनमें सिर्फ पैसे वाले के लिये ही पानी है; जिसके पास पैसा नहीं है, उसके लिये पानी नहीं है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि निजीकरण के रास्ते आये जल व्यावसायीकरण के कड़वे वैश्विक अनुभवों के बावजूद हम सीखने को तैयार नहीं हैं।

यदि सरकार पानी के अनुशासित उपयोग को बढ़ावा देना चाहती है; जलोपयोग क्षमता बढ़ाना चाहती है, तो एक नियम बनाए और उसका लागू होना सुनिश्चित करे - ‘जो जितना पानी निकाले, उतना और वैसा पानी संजोए भी।’ यह सभी के लिये हो। फैक्टरी के लिये भी, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिये भी और किसान के लिये भी। बारिश के पानी को इकट्ठा करने के अलावा उपयोग किये पानी के दोबारा प्रयोग से भी यह किया जा सकता है। अनुभव यह है कि चौबीसों घंटे निर्बाधित पानी की आपूर्ति के समझौते के एवज में यदि वसूली पूरी न हो पाये, तो टैक्स लगा दो, या पूर्व टैक्स को बढ़ा दो। कम्पनियों के मुनाफ़े के लिये गरीबों से भी वसूली कहाँ का न्याय है? इसी अन्याय के लिये बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों से सार्वजनिक नल धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं और निजी कम्पनियों की बोतलें चारों तरफ सज उठी हैं। आजीविका और जीवन... दोनों केे लिये पानी जरूरी है।

क्या पानी पिलाना सरकार का दायित्व नहीं है? शिक्षा, सेहत, छत, खेती, पानी और परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सरकार का दायित्व है। बुनियादी ढाँचागत क्षेत्र में मुनाफाखोरी के प्रयासों को परवान चढ़ाना सरकारों का दायित्वपूर्ति से भाग जाना है। दायित्व से भागने वाली ऐसी सरकारों को मानवाधिकार संरक्षक कैसे कहा जा सकता है? सरकारों के इस शगल के कारण ही आज जीवन जीने का हमारा संवैधानिक अधिकार भी एक मज़ाक बनकर ही रह गया है।

भूजलाधिकार छीन लेगी जलनीति


भारतीय जलनीति, हमारे जलाधिकार पर स्वयंमेव एक कुठाराघात है। इसका सबसे खतरनाक कदम भूजल को निजी हक से निकालकर सार्वजनिक बनाना है।

जलनीति में लिखा है - “भारतीय भोगाधिकार अधिनियम-1882 सिंचाई अधिनियम जैसे अन्य मौजूदा अधिनियमोें में उस सीमा तक संशोधन करना पड़ सकता है, जहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि अधिनियम भूमि स्वामी को उसकी भूमि के नीचे के भूजल का मालिकाना हक प्रदान करता है।’’

अपनी मंशा को और साफ करते हुए नीति कहती है कि राज्य को सेवाप्रदाता से धीरे-धीरे सेवाओं के नियामकों और व्यवस्थापकों की भूमिका में हस्तान्तरित होना चाहिए। अतिदोहन रोकने के नाम पर उठाए जा रहे इस एक कदम से करोड़ों गरीब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने को मजबूर हो जाएँगे।

जिनके पास पैसा है, वकील हैं, दलाल हैं... वे जलनिकासी की अनुमति पा जाएगे। गरीब, मजदूर और किसान तो कलक्टर-पटवारी-पतरौल की मेज तक भी नहीं पहुँच पाएगा। भू-मालिक से जलाधिकार छीन जाएगा, बदले में बदहाली हाथ आएगी। जलशुल्क न दे पाने वाले गरीबों को कम्पनियों के लठैत उठा ले जाएँगे।

कानून, कर्तव्य और जलाधिकार


भूजल के अतिदोहन पर लगाम लगाने का यह ठीक रास्ता नहीं है। स्थानीय परिस्थितियों व जनसहमति के जरिए जलनिकासी की अधिकतम गहराई को सीमित कर जलनिकासी को नियंत्रित तथा जलसंचयन को जरूरी बनाया जा सकता है। यदि सरकार पानी के अनुशासित उपयोग को बढ़ावा देना चाहती है; जलोपयोग क्षमता बढ़ाना चाहती है, तो एक नियम बनाए और उसका लागू होना सुनिश्चित करे - “जो जितना पानी निकाले, उतना और वैसा पानी संजोए भी।’’

यह सभी के लिये हो। फैक्टरी के लिये भी, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिये भी और किसान के लिये भी। बारिश के पानी को इकट्ठा करने के अलावा उपयोग किये पानी के दोबारा प्रयोग से भी यह किया जा सकता है।

यह एक अकेला नियम लागू होकर ही माँग-उपलब्धि के अन्तर को इतना कम कर देगा कि बाकी बहुत सारे प्रश्न गौण हो जाएँगे। हमारी जलनीति प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक सुनिश्चित कर सकें, तो दूसरे कई विवाद होंगे ही नहीं।

पब्लिक ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के मुताबिक जंगल, नदी, समुद्र, हवा जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों की सरकार सिर्फ ट्रस्टी है, मालकिन नहीं। ट्रस्टी का काम देखभाल करना होता है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसे संसाधनों को निजी कम्पनी को बेचने को अन्यायपूर्ण माना है।

न्यायालय की इस मान्यता के बावजूद यह बहस तो फिलहाल खुली ही है कि यदि सरकार ट्रस्टी है, तो इन संसाधनों का मालिक कौन है? सिर्फ सम्बन्धित समुदाय या प्रकृति के समस्त स्थानीय जीव? दूसरा, यह कि मालिक यदि मालिक समुदाय या समस्त जीव हैं, तो क्या उन्हें हक है कि वे सौंपे गए संसाधनों की ठीक से देखभाल न करने की स्थिति में सरकार को बेदखल कर, इन संसाधनों की देखभाल खुद अपने हाथ में ले लें?

जो जवाबदारी के लिये हकदारी जरूरी मानते हैं, उन्हें आज भी इन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा है। लेकिन उन्हें यह कब याद आएगा कि जवाबदारी निभाने से हकदारी खुद-ब-खुद आ जाती है? याद रखने की जरूरत यह भी है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसान के लिये नहीं हैं, दूसरे जीव व वनस्पतियों का भी उन पर बराबर का हक है।

अतः उपयोग की प्राथमिकता पर हम इंसान ही नहीं, कुदरत के हर जीव व वनस्पतियों की प्यास को सबसे आगे रखें। नदी को बहने की आज़ादी चाहिए। नदी की भूमि उसे वापस लौटाकर, यह किया जा सकता है। हम यह करें। पानी के मानवाधिकार की माँग यही है।

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Post By: RuralWater
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