मानसून को प्रभावित करने वाले कारकों को समझना
दक्षिण एशियाई मानसून हमारे इलाके में शायद 80 लाख वर्षों से लगातार आती रही है। इस दौरान वह महज मौसम की परिघटना से आगे बढ़कर हमारे पुराणों, इतिहास, कला और संस्कृति का प्रमुख विषय बन गई है। इस क्षेत्र के करोड़ों निवासियों की भावनाओं में इसने गहराई से जड़ जमा लिया है। यह कैलेंडर वर्षों में एक सन्दर्भ बिन्दु बन गया है। यही नहीं, मानसून आज सम्पन्नता का वास्तविक सूचक बन गया है।
लेकिन हाल के वर्षों में इसका व्यक्तित्व बदला है। यह अधिक पेचिदा हो गया है। भारत के साथ अपने सम्बन्धों को तो इसने अभी तक बनाए रखा है, पर अधिक मनमौजी व गुस्सैल हो गया है और पहले की तरह उदार नहीं रहा। एक सौ वर्षों से अधिक के उपलब्ध आँकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। इसके आगमन और ठहराव के व्यग्रतापूर्ण पूर्वानुमानों को इसके मिजाज ने बेचैनी में बदल दिया है।
केन्द्रीय संस्थानों के लगभग एक हजार शोधकर्ताओं के अतिरिक्त अनेक विश्वविद्यालय मानसून और उसके व्यवहार को समझने का प्रयास कर रहे हैं। पहले मानसून को सरल भौतिक सिद्धान्तों के आधार पर समझा जाता था। अब उपग्रह तकनीक के आविष्कार और उन्नत संगणना के साथ वैज्ञानिकों ने आखिरकार उन वैश्विक सम्पर्कों को सुलझाना आरम्भ कर दिया है जिसकी पराकाष्ठा भारतीय मानसून में होती है। लेकिन ऐसा करने में जलवायुविदों और वैज्ञानिकों ने मानो मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम राजीवन कहते हैं, ‘‘हम जितना अधिक जान पाते हैं, जितना आविष्कार करते हैं, उतना ही लगता है कि हम कितना कम जानते हैं। भारतीय मानसून विश्व की सम्भवतः सबसे जटिल जलवायु प्रणाली है।’
वर्षों के कठोर अवलोकन, सैद्धान्तिकरण और मॉडलिंग के बावजूद प्रश्न है कि हम मानसून के बारे में ठीक ठीक क्या जानते हैं?
वैश्विक सम्पर्क
मानसून की प्रगति के आरम्भिक सिद्धान्त धरती और समुद्र के गर्म होने के विभेदक के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यह माना जाता था कि गर्मी के महीनों में धरती के अत्यधिक गर्म होने से दबाव की भिन्नता की रचना होती है क्योंकि समुद्र कम गर्म होता है। परिणाम होता है कि समुद्र के ऊपर अधिक उच्च दबाव महसूस किया जाता है। आर्द्रता से युक्त हवाएँ कम दबाव के क्षेत्र की ओर धरती पर गति करती हैं, जो स्थैतिक क्षेत्रीय मौसम परिघटना के रूप में मानसून का प्रारम्भ करती हैं।
1970 के दशक के मध्य में उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों के सहारे अधिक गतिशील सिद्धान्तों के जरिए आरम्भिक सिद्धान्तों को चुनौती दी गई। जलवायु वैज्ञानिकों ने कहा कि मानसून की हवाओं की प्रगति के लिये सौर्य गर्मी महत्त्वपूर्ण अवयव है, लेकिन इन हवाओं की अधिक सूक्ष्म संचालक ‘अन्तर-उष्णकटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र (आईटीसीजेड) की गति होती है। यह क्षेत्र विषवत रेखा के चारों ओर बनी निम्न दबाव की पट्टी होती है जो दक्षिणी आक्षांश और 45 डिग्री उत्तर के बीच सूर्य की अबाध गर्मी से बनती है। चालीस वर्षों से मानसून का अध्ययन कर रही सुलोचना गाडगील ने कहा कि मानसून आईटीसीजेड के मौसमी स्थानान्तरण के सिवाय कुछ नहीं है।
आईटीसीजेड का स्थानान्तरण उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में सूर्य की उर्ध्व स्थिति द्वारा निर्देशित होता है। चूँकि पृथ्वी वक्र अक्ष पर चक्कर लगाती है, आईटीसीजेड गर्मी के महीनों में विषवत रेखा के दक्षिण से उत्तर की ओर चलती है। निम्नतम दबाव का क्षेत्र होने से आईटीसीजेड उत्तर और दक्षिण दोनों गोलार्द्धों से चलने वाली हवाओं का लक्ष्य होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध से चली दक्षिण-पूर्वी हवाएँ आईटीसीजेड की ओर उत्तर दिशा में चलती हुई विषवत रेखा को पार करती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करने पर धरती का चक्रण उसकी दिशा को उलट देता है। तब वे पूर्वमुखी हो जाती है और उत्तरी गोलार्द्ध से चली हवाओं के साथ अभिमुख हो जाती हैं। यह अभिमुखता भारतीय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वर्षापात के लिये महत्त्वपूर्ण है।
अल निनो का प्रवेश
आईटीसीजेड के आविष्कार ने वैश्विक दूरसम्पर्कों में एक खिड़की खोली जो मानसून की हवाओं के प्रवाह को निर्देशित करती है। ऐसा एक सम्पर्क अल निनो दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) है। यह प्रशान्त महासागर के गर्म और ठंडा होने का एक अन्तर-दशकीय, प्रत्यावर्ती पद्धति को सूचित करता है। गर्म होने के दौर में पूर्वी प्रशान्त क्षेत्र का गर्म होना अल निनो की विशेषता होती है जिसका प्रभाव केन्द्रीय प्रशान्त क्षेत्र पर भी होता है। श्री राजीवन बताते हैं कि पूर्वी प्रशान्त क्षेत्र के गर्म होने के कारण दक्षिण-पूर्वी हवाओं के रास्ते में विचलन आता है और यह भारतीय मानसून को दबा देता है। इसका एक उदाहरण 2009 का सूखा है।
इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ ट्राॅपिकल मेटेरोलाॅजी (आईआईटीएम), पूना के जलवायु परिवर्तन शोध केन्द्र के कार्यक्रम प्रबन्धक आर कृष्णन बताते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप के पूरब में समुद्र के अत्यधिक गर्म होने के कारण हवाओं का झोंका पूर्व की ओर जाता है, दक्षिण एशिया की ओर नहीं। मानसून की हवाएँ भारतीय उपमहाद्वीप की ओर एकदम नहीं आई और समुद्र में एक संवहन क्षेत्र का सृजन हुआ। इसी वजह से 2009 में वर्षा में भीषण कमी हो गई।
जलवायुविदों का विश्वास है कि इनसो और भारत में सूखा पड़ने के बीच गहरा अन्तर-सम्बन्ध है। वर्षापात के आँकड़ों के एक संक्षिप्त विश्लेषण से पता चलता है कि 1951 से 2014 के बीच पड़े 15 सूखाड़ों में से आठ इनसो की वजह से आये। राष्ट्रीय मानसून मिशन के एसोसिएट निदेशक सूर्यचंद्र ए राव ने कहा कि 2015 में इनसो के संकेत प्रभावशाली थे और यही कारण है कि विश्व के सभी पूर्वानुमानों में उनका उल्लेख हुआ था।
कतिपय प्रेक्षणों ने अल निनो वर्षों के दौरान भी मानसून सामान्य या सामान्य से कींचित अधिक होता दिखाया है। हाल के वर्षों में ऐसी अटकलों को बल मिला है कि इनसो और भारतीय मानसून के बीच सम्बन्ध कमजोर हो रहा है। लेकिन ऐसी अटकलें अपरिपक्व हो सकती हैं क्योंकि इनसो मानसून की ताकत को निर्धारित करने वाला केवल एक कारक है।
दूसरा कारक भारतीय महासागर के अरब सागर और बंगाल की खाड़ी जिन्हें भारतीय समुद्री ध्रुव (आईओडी) कहते हैं, के गर्म होने की भिन्नता है। इसे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में बारी-बारी से होते देखा गया है। श्री राजीवन के अनुसार, ‘आईओडी और उससे जुड़ी वातारणीय अवयवों जिसे विषवत रेखीय भारतीय महासागर विचलन (ईक्यूयूआईएनओओ) कहा जाता है, को कतिपय वर्षों में अल निनो के प्रभाव को व्यर्थ कर देने का जिम्मेवार मानना होगा।’ ‘‘हमने देखा है कि अल निनो वर्षों के दौरान अगर अरब सागर का तापमान बंगाल की खाड़ी से अधिक दिखता हो तो यह इनसो के मानसून को दबा देने वाले प्रभाव को व्यर्थ कर देता है। लेकिन अगर अल निनो के दौरान बंगाल की खाड़ी, अरब सागर से अधिक गर्म हो तो यह भारत में मानसूनी वर्षा की मात्रा को कम कर देता है।’’
गाडगिल विश्वास करती हैं कि यह इक्यूनो है जो किन्हीं वर्षों में अल निनो के प्रभाव को निष्प्रभावी कर देता है। उन्होंने कहा कि 1997-98 का मानसून इसका बेहतरीन उदाहरण है।
सक्रिय और निष्क्रिय चरणों की लुकाछिपी
भारत में वर्षापात के लिये अभिसरण क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं, यह अन्तर मौसमी विचलन के लिये भी जिम्मेवार है। जब मानसून का पहली बार अध्ययन किया गया, तभी से एक वर्ष के भीतर मानसून की शक्ति का बारी-बारी से आने की आवर्ती पद्धति देखी गई है। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तीन-नौ दिनों का सक्रिय और निष्क्रिय चरणों का चक्र दिखता है जिसे नियंत्रणकारी व्यवस्था का एक प्रकार माना जाता है। हिन्द महासागर के ऊपर खासकर बंगाल की खाड़ी के समानान्तर बने अभिसरण क्षेत्र से निकली संवहनी प्रणाली के स्थानान्तरण के कारण इन चरणों की उत्पत्ति होती है।
सक्रिय चरणों की विशेषता गहरे दबाव और तूफानी हवाओं खासकर बंगाल की खाड़ी के ऊपर को बताया जाता है, निष्क्रिय चरणों के दौरान ऐसी कोई प्रणाली विकसित नहीं होती। निष्क्रिय चरणों की उत्पत्ति आईटीसीजेड के स्थानान्तरण की वजह से संवहनी बादल के क्षेत्रों के उत्तरमुखी बढ़त से होती है। इसकी विशेषता हिमालय तराई और प्रायद्वीप के दक्षिणी हिस्सों में वर्षापात होती है, जबकि भारत के बाकी इलाके केन्द्रीय भारत और उपमहाद्वीप में मानसून के प्रमुख क्षेत्रों में सूखा का अनुभव होता है।
भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु में जलवायु परिवर्तन पर दिवेचा केन्द्र के अध्यक्ष जे श्रीनिवासन बताते हैं कि निष्क्रिय चरणों की उत्पत्ति तब होती है जब वायुमण्डल की नीचली सतह के ऊपरी हिस्से की हवा नीचे उतर कर मानसून की गति को बाधित करती है। वायुमण्डल की ऊपरी सतह वैश्विक सम्पर्को द्वारा संचालित होती है, हालांकि इसकी प्रक्रिया स्पष्ट नहीं है जिससे सटीक पूर्वानुमान करना असम्भव बना हुआ है।
दुर्भाग्यवश, ये कम अवधि के संक्षिप्त चक्र किसानों के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। श्री राजीवन कहते हैं कि हमने दस दिन पहले पूर्वानुमान करने में 70-80 प्रतिशत की परिशुद्धता हासिल कर ली है, लेकिन किसानों को पूर्व योजना बनाने के लिहाज से यह बहुत छोटी अवधि है। हम उम्मीद करते हैं कि पूर्वानुमान की परिशुद्धता की इस अवधि को 15-20 दिन पहले तक बढ़ा सकेंगे जो अधिक उपयोगी हो सकेगा।
वर्षापात के 1871 से दर्ज आँकड़े बताते हैं कि निष्क्रियता का यह दौर मानसून के मौसम का अनिवार्य गुण नहीं है, हालांकि वर्षा और सूखे के दौर का अनुभव हर साल होता है। 1951 और 2007 के बीच के आँकड़ों का अध्ययन बताता है कि एक चौथाई वर्षों में निष्क्रिय दौर नहीं आया। हालांकि निरन्तर निष्क्रिय दौर, जैसाकि 2002 में अनुभव किया गया, वार्षिक वर्षापात पर विनाशकारी असर डाल सकता है।
अमेरिका के स्टैंडफोर्ड वूड्स इंस्टीट्यूट फाॅर एनवायरनमेंट द्वारा 2014 में प्रकाशित एक आलेख जिसमें 1951-2011 के वर्षापात आँकड़ों का इस्तेमाल हुआ है, दिखाता है कि सूखे और वर्षा के दौर की प्रकृति बदल रही है। अध्ययन के अनुसार, मानसून के मौसम के दौरान आर्द्र-दौर की तीव्रता में 1980 से उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है, इसके साथ-साथ शुष्क-दौर की बारम्बारता में भी बढ़ोत्तरी हुई है। अध्ययन में दिखा है कि 1981 और 2011 के बीच शुष्क-दौर की बारम्बारता में 1951-1980 की तुलना में 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु के एक अन्य शोधपत्र 1951 से 2013 के बीच दर्ज आँकड़ों का विश्लेषण करता है। यह शोधपत्र 2015 में एनवायरनमेंट रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ। इसने सक्रिय और निष्क्रिय चरणों की निम्न बारम्बारता, अन्तर-मौसम विचलन (20-60 दिन) में कमी और उच्च बारम्बारता (3-9 दिन) में पूरक बढ़ोत्तरी को दर्ज किया।
मानसून वही नहीं है
वर्षापात के 146 वर्षों के दर्ज आँकड़े मानसून के 31 वर्ष के चक्र के युगान्तर को प्रदर्शित करते हैं। आँकड़े हर 31 साल पर बारी-बारी से अधिक और कम वर्षा के रुझान को दिखाते हैं। पूर्ववर्ती दौर वर्षा में कमी का था, जो 1960 के आरम्भ से 1990 के मध्य तक चला। आदर्श रूप में वर्तमान चरण जिसमें हम अभी हैं, अधिक वर्षा का होना चाहिए लेकिन सांख्यिकी दूसरी तस्वीर दिखाती है। (देखेंः-ग्रीष्म मानसून के बदलते रुझान)। हालांकि 1990 और 1999 में जून-सितम्बर के बीच औसत वर्षा 894.05 मिलीमीटर रहा जो दीर्घ मियादी औसत 852 मिमी से पाँच प्रतिशत अधिक था। वर्ष 2000 से वर्षापात में लगातार गिरावट दिख रही है। वर्ष 2000-2012 के दौरान औसत मानसून वर्षा 842 मिमी दर्ज की गई। कुछ वैज्ञानिक दलील देते हैं कि यह कमी सामान्य विचलन की सीमाओं के भीतर है लेकिन वास्तव में औसत कमी लगातार जारी रही, अत्यधिक वर्षा के युगान्तरकारी दौर में ऐसा होना चिन्ताजनक है।
बाढ़ वाला कोई वर्ष 1994 से नहीं आया जब वार्षिक वर्षापात दीर्घकालीन औसत से 10 प्रतिशत से अधिक हो। श्री कृष्णन के अनुसार, इसका कारण है कि मानसून बदल रहा है। अनेक अध्ययनों ने हर साल औसत वर्षापात में कमी को लक्ष्य किया है। 2015 का एक अध्ययन जिसे आईआईटीएम के शोधकर्ताओं ने किया और नेचर कम्युनिकेसन्स नामक जर्नल में प्रकाशित कराया, में 1901 से 2012 तक के वर्षा के आँकड़ों पर विचार किया गया और चेतावनी दी गई कि भारतीय मानसून में गिरावट का रुझान स्पष्ट दिखता है। इस अध्ययन ने दर्ज किया कि केन्द्रीय भारत जहाँ कृषि मुख्यतः वर्षा आधारित है, में औसत वर्षापात में 20 प्रतिशत तक की उल्लेखनीय कमी आई है।
यह प्रेक्षण अनेक वैज्ञानिकों के उस पूर्वानुमान के विपरीत है जिसमें कहा गया है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से वर्षापात में बढ़ोत्तरी होगी। इस अध्ययन ने मानसून के घटते रुझान के कारण के तौर पर हिन्द महासागर के तापमान में बढ़ोत्तरी का उल्लेख किया है। हिन्द महासागर के पश्चिमी हिस्से में सतह का तापमान 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म हो गया है जो अन्य गोलार्द्धीय महासागरों के गर्म होने के रुझानों के मुकाबले बहुत अधिक है। गर्म होने से धरती-समुद्र के तापमान का अनुपात घट जाता है जो आर्द्रता से बोझिल हवाओं के प्रवाह को प्रभावित करता है।
श्री कृष्णन कहते हैं कि निम्नतर प्रवणता भारतीय क्षेत्र में मानसून के प्रवाह को कमजोर कर देता हैं। इसी अध्ययन ने बीते वर्षों में वर्षापात के स्थानिक विचलन को भी दर्ज किया है। पश्चिमी घाट के समानान्तर और केन्द्रीय भारत में मानसूनी वर्षा के परम्परागत क्षेत्र में इसका कमजोर रुझान दिखा, जबकि पश्चिमी घाट के उत्तर के इलाके में वर्षा में बढ़ोत्तरी हुई। यह मानसून की हवाओं के ध्रुवों की ओर गमन का संकेत है।
वर्षापात का 1951 से 2010 के बीच रुझान दिखाता है कि 28 राज्यों में से केवल छह में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। कमी का अधिकांश हिस्सा पश्चिमी, केन्द्रीय और प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में रहा जहाँ कर्नाटक को छोड़कर सभी राज्यों में कमी दर्ज की गई। गोवा, छत्तीसगढ़, केरल, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में एक मिमी प्रतिवर्ष की कमी दर्ज की गई।
अत्यधिक बदलाव
मानसून की हवाओं के ध्रूवमुखी स्थानान्तरण के साथ-साथ अत्यधिक वर्षापात की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। आईआईटीएम के पूर्व निदेशक बी एन गोस्वामी का एक अध्ययन जो साइंस में 2006 में प्रकाशित हुआ, बताता है कि 1951 से 2000 के बीच केन्द्रीय भारत में भारी वर्षा (एक दिन में 100 मिमी से अधिक) के दिनों और अत्यधिक भारी वर्षा (150 मिमी प्रतिदिन) की बारम्बारता में बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि सामान्य वर्षा के दिनों की बारम्बारता में कमी आई।
श्री गोस्वामी ने उल्लेख किया है कि यद्यपि मौसमी औसत इस रुझान से मोटे तौर पर अप्रभावित रहा है, लेकिन समय की छोटी अवधि में वर्षा तीव्रतर हुई। इन अवलोकनों को 2011 में वी कृष्णमूर्ति की तकनीकी रिपोर्ट ने पुष्ट किया जो अमेरीका के मेरीलैण्ड में इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल एनवायरनमेंट एंड सोसाइटी में कार्यरत वैज्ञानिक हैं। श्री कृष्णमूर्ति के अनुसार, ‘जिन्होंने अपने विश्लेषण में 1888-2003 के वर्षापात के आँकड़ों का उपयोग किया, अत्यधिक वर्षा का रुझान मानसून के दौरान निम्न दबाव प्रणाली के विकास से जुड़ा है। निम्न दबाव प्रणाली में निम्न दबाव, अवसाद, चक्रवाती आँधी, भीषण चक्रवाती आँधी और तूफानों की वजह से भिन्नता होती है। इनमें से अधिकांश वर्षा निम्न दबाव और अवसाद के कारण होती हैं।
1990 के मध्य से निम्न दबाव के बढ़ने और अवसादों के घटने का एक पैटर्न देखा गया है, जबकि हाल के दशक में निम्न दबाव की बनावट के अन्तर्गत दिनों की कुल संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इस प्रेक्षण में निम्न दबाव की प्रवणता में बढ़ोत्तरी प्रकट हुई है जिसका विकास ऐसी प्रणाली में हो जाता है जो भारी वर्षा लाती है। 2000 से भारत ने तीन ऐसे वर्षों (2002, 2010 और 2012) का अनुभव किया है जब मानसून के दौरान अवसाद नहीं बना।
श्री कृष्णन मानते हैं कि इस रुझान का सम्पर्क समुद्री क्षेत्र के गर्म होने से है जिससे निम्न दबाव की प्रणाली आरम्भ होती है। उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में हमने अनेक निम्न दबाव देखे लेकिन वे अवसाद के घटित होने के कारण नहीं बने। इससे अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई जबकि सामान्य वर्षा के दिनों में कमी आई।
मानवीय स्पर्श
अनेक वैज्ञानिकों ने यह विचार दिया है कि मानसून में दिखता परिवर्तन बहुत हद तक मानवीय कारणों जैसे जमीन के उपयोग में परिवर्तन और एयरोसोल और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन आदि से प्रभावित है। दिवेचा सेंटर फाॅर क्लाइमेट चेंज द्वारा 2015 में संचालित एक अध्ययन में पता चला कि उष्ण कटिबन्धों, शीतोष्ण कटिबन्धों और उच्च अक्षांश के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वन-विनाश के कारण उत्तरी गोलार्द्ध के मानसूनी क्षेत्र खासकर दक्षिण एशिया में वर्षापात घट गया।
इस अध्ययन में पता चला कि वैश्विक, बोरीयल, टेंपरेट और उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वन-विनाश की वजह से औसत वैश्विक वर्षापात में क्रमशः 3.21 प्रतिशत, 1.70 प्रतिशत, 1.01 प्रतिशत और 0.50 प्रतिशत गिरावट आई है। वैश्विक वन विनाश ने दक्षिण एशियाई मानसून को सर्वाधिक प्रभावित किया है जिससे वर्षापात में 12 प्रतिशत तक गिरावट आई है। एक दूसरा अध्ययन जो 2015 में एटमोस्फेरिक केमिस्ट्री और फिजिक्स में प्रकाशित हुआ है, वह बताता है कि स्थानीय स्तर पर वायवीय उत्सर्जन का कुल मिलाकर मानसून पर नकारात्मक प्रभाव होता है। चूँकि कुछ एयरोसोल सौर्य रेडिएशन को पीछे लौटा देते हैं, उनका शीतलकारी प्रभाव होता है और वे धरती से वाष्पीकरण को रोकते हैं। साथ ही धरती-समुद्र के तापमान की प्रवणता को भी घटा देते हैं।
श्री कृष्णन पूर्वानुमान की गणना का उदाहरण देते हैं जो मानवीय शक्तियों के प्रभाव का स्पष्ट संकेत देते हैं। उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा कि हमने मानसून के वितरण का अध्ययन करने के लिये उच्च वियोजन ग्रिडों के सहारे दो प्रायोगिक गणना किया-पहला केवल प्राकृतिक कारकों के साथ और दूसरा प्राकृतिक के साथ ही मानवीय कारकों जैसे वायवीय उत्सर्जन और भू-उपयोग में परिवर्तन आदि के साथ। हम स्पष्ट तौर से देख सकते हैं कि मानवीय ताकतें किस तरह से मानसून के वितरण को कमजोर करती हैं।
हालांकि वैज्ञानिकों में एक मोटी सर्व सम्मति है कि जलवायु परिवर्तन ने मानसून को प्रभावित किया है, लेकिन इसे लेकर कोई पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। श्री राजीवन के अनुसार, यह सम्भव है कि मानसून पर मानवीय गतिविधियों का प्रभाव पड़ा हो, लेकिन जब तक इस प्रभाव की मात्रा का ठीक-ठीक आकलन नहीं हो जाये हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए। इस जटिल परिघटना की सम्पूर्ण समझदारी बनाने के प्रयत्न जारी हैं, केवल एक चीज को आज हम जानते हैं कि काफी धुँधलापन बरकरार है।
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