मानसून की पहेली

भारतीय मौसम विभाग ने भविष्यवाणी कर दी है कि भारत में सन् 2014 में औसत से कम बारिश होगी। वहीं दूसरी ओर विश्व मौसम संगठन ने कहा है कि पूरे दक्षिण एशिया में गर्मी के मानसून के मौसम में सामान्य से कम वर्षा होगी। विश्व मौसम संगठन की विज्ञप्ति के अनुसार इस वर्ष अलनीनो की स्थिति समुद्र की सतह के तापमान के बढ़ने की वजह से प्रशांत महासागर का भी गरम हो जाने से उत्पन्न हुई है। अलनीनो की स्थितियां दक्षिण एशिया में मानसून की आवाजाही को प्रभावित करती हैं जिसकी वजह से इस क्षेत्र की वर्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत में आम चुनाव के नतीजे अब आ चुके हैं। वैसे तो अनेक राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में समावेशी विकास के साथ आर्थिक विकास की बात कही थी। भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत चुकी है। लेकिन मौसम की भविष्यवाणी बता रही है कि इसे अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन में कठिनाई आ सकती है, क्योंकि भारत के मौसम में लगातार जबरदस्त उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं।

इस वर्ष फरवरी-मार्च में गैर मौसमी बरसात के साथ गिरे ओलों ने भारत के छः राज्यों पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं आंध्र प्रदेश के किसानों के जीवन में हाहाकार मचा दिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। यह कहर करीब 20 दिनों तक चला और यह सब कुछ उस दौरान हुआ जबकि किसान अपनी फसल काटने को तैयार थे। ऋण संबंधी चिंताओं के चलते सौ से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

सन् 2013 में भी भारत को मौसम की व्यापक मार पड़ी और वह बाढ़, समुद्री तूफान से लेकर अकाल तक भुगत चुका है। इस वजह से उसे बड़ी मात्रा में जीवन, जीविका व संपत्ति का नुकसान भी उठाना पड़ा है। इस दौरान उत्तरी भारत के पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में बाढ़ों का जबरदस्त असर पड़ा। पूर्वी तट पर खासकर आंध्र प्रदेश में लगातार समुद्री तूफान आए और वहीं सामान्यतः सूखे/बंजर रहने वाले क्षेत्रों मे बेतहाशा हुई बारिश से इस विपदा से पूर्व में अनजान समुदायों को भारी हानि उठानी पड़ी। इस तरह की घटनाओं का अब नियमित तौर से सामने आना शुभ संकेत नहीं है।

खतरे की घंटी


अंतर सरकार जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट में बतलाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत को काफी बुरे परिणाम भुगतने पड़ेंगे। रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन से जोखिम गहराते जा रहे हैं और विश्व के गरीबों का जीवन दांव पर लगा हुआ है। भारत को इससे विशेष खतरा है, क्योंकि यहां पर पूरी दुनिया के 33 प्रतिशत निर्धनतम लोग निवास करते हैं। पैनल के कार्यबल ने भारत के सम्मुख आसन्न निम्न खतरों पर प्रकाश डाला है:

1. मानसून अंतराल दिवसों की संख्या में वृद्धि और मानसून दबावों की संख्या में कमी से कुल मिलाकर मौसम में बरसात कम होगी।
2. भारत में गर्मी के मानसून में सामान्य व अत्यधिक वर्षा में वृद्धि।
3. बारिश के उतार-चढ़ाव या परिवर्तन से ताजे पानी के स्रोतों पर प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के साथ ही बर्फ या ग्लेशियर के नदी के जलग्रहण क्षेत्र में पहुंचने और वाष्पीकरण की दर में वृद्धि होगी।
4. सन् 2100 तक वन क्षेत्र के एक तिहाई से अधिक क्षेत्रों में परिवर्तन सामने आएंगे। यह अधिकांशतः पतझड़ी (पर्णपाती) से बारहमासी सभी प्रकार के वनों में होंगे। वैसे बिखराव व मानव दबाव से इन परिवर्तनों की गति धीमी पड़ने की आशा है।
5. ऐसी उम्मीद है कि सन् 2100 तक एशिया की उष्णकटिबंधी व उप उष्णकटिबंधी निचली भूमि को वर्तमान वैश्विक पैमाने की बनिस्बत अलग तापमान व वर्षा का सामना करना पड़ेगा।
6. बदलती जलवायु के चलते यह अनुमान लगाया गया है कि मानसून के कम होने से सन् 2020 तक भारत में खाद्यान्नों की उपज में 2 से 14 प्रतिशत तक की कमी आएगी और उपज की यह स्थिति सन् 2050 से 2080 तक और भी बदतर हो जाएगी।
7. यह भी अनुमान लगाया गया है कि यदि ठीक प्रकार की फसल प्रबंध प्रणाली नहीं अपनाई गई तो भारत के गंगा के पठार में होने वाले गेहूं की पैदावार में असाधारण गिरावट आएगी। इस इलाके में अभी प्रति वर्ष 9 करोड़ टन खाद्यान्न पैदा होता है जो कि वैश्विक गेहूं उत्पादन का 14-15 प्रतिशत बैठता है।
8. भारत, बांग्लादेश एवं चीन में बाढ़ का जोखिम और उससे जुड़ी जान माल की हानि भी सर्वाधिक होगी।

कृषि संबंधित अनुमान भी स्तंभित कर देने वाले हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2030 तक भारत को कृषि में 7 खरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा का नुकसान हो चुका होगा। बढ़ती गर्मी, बढ़ता तापमान और अनियमित मानसून इसमें काफी योगदान करेंगे। कृषि भारत की रीढ़ की हड्डी है और देश की आधे से अधिक आबादी की आजीविका की सुरक्षा इसी पर निर्भर है।

इतना ही नहीं भारत की तकरीबन 60 प्रतिशत कृषि वर्षा पर आधारित है और फसलों की वृद्धि हेतु किसान उसी पर निर्भर हैं। केलिफोर्निया के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के एक दल ने भी इस तथ्य की पुनः पुष्टि की है। उन्होंने बताया है कि सन् 1951-1980 एवं सन् 1981-2011 के मध्य भीगे (बारिश व शुष्क) दौर कैसे बदले। पाए गए तथ्य भारत की समावेशी और सुस्थिर विकास की योजना के लिए चिंताजनक हैं।

भारत में मानसून किस प्रकार बदला?


अध्ययन में पाया गया कि मानसून के मौसम के चरम में बारिश में कमी आई है, प्रतिदिन होने वाली बारिश में भी असमानता बढ़ी है, बारिश की तीव्रता में वृद्धि हुई है और शुष्क दौरों में बढ़ोतरी हुई है। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के पर्यावरण प्रणाली विज्ञान विभाग की दीप्ती सिंह का कहना है, “मानसून के मौसम में बारिश के कुल दिनों में कमी आ रही है और वर्षा की मात्रा भी कमोवेश अस्थिर हो गई है। इसकी वजह से इन महीनों (जुलाई-अगस्त) की औसत वर्षा में कुल मिलाकर कमी आई है लेकिन दूसरी ओर वर्षा की मात्रा में भी दिन ब दिन उतार-चढ़ाव हो रहा है।

इस धुंधले दृश्य पटल पर भारतीय मौसम विभाग ने भविष्यवाणी कर दी है कि भारत में सन् 2014 में औसत से कम बारिश होगी। वहीं दूसरी ओर विश्व मौसम संगठन ने कहा है कि पूरे दक्षिण एशिया में गर्मी के मानसून के मौसम (जून से सितंबर) में सामान्य से कम वर्षा होगी। विश्व मौसम संगठन की विज्ञप्ति के अनुसार इस वर्ष अलनीनो की स्थिति समुद्र की सतह के तापमान के बढ़ने की वजह से प्रशांत महासागर का भी गरम हो जाने से उत्पन्न हुई है।

अलनीनो की स्थितियां दक्षिण एशिया में मानसून की आवाजाही को प्रभावित करती हैं जिसकी वजह से इस क्षेत्र की वर्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गौरतलब है यह अनियमित मानसून तब तक लोगों के जीवन में तबाही लाता रहेगा जब तक कि देश के लोगों, खासकर गरीब जनता के लिए भोजन एवं आजीविका की सुरक्षा के लिए पूर्वानुमान के आधार पर कदम नहीं उठा लिए जाते।

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