भारत में विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र सुन्दरवन स्थित है। मैंग्रोव क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप को नियंत्रित करने की आवश्यकता है क्योंकि मानव द्वारा अतिक्रमण के कारण इनके क्षेत्रफल में कमी आ रही है।
मैंग्रोव पर्यावरण गतिशील व सक्रिय है। मानवीय गतिविधियों के दबाव के कारण इन क्षेत्रों में पौधों की मृत्युदर बढ़ रही है और पुनरूत्पादन क्षमता कम हो रही है। उदाहरणतः मैंग्रोव पौधों की खुली जड़ों के वातरंध्र कच्चे तेल तथा अन्य प्रदूषक तत्वों से बन्द हो जाते हैं। कृत्रिम नहरों तथा पक्के नदीपथ (काज-वे) के कारण जलस्तर बढ़ जाता है और अधिक समय तक पानी में डूबी रहने पर जड़ें श्वसन नहीं कर पाती हैं ।
मैंग्रोव वनों को काफी समय तक अनुपयोगी मानकर कृषि भूमि के लिये, पर्यटन क्षेत्रों के विकास के लिये, झींगा पालन के लिये तथा नमक उत्पादन के लिए इन क्षेत्रों को साफ किया जाता रहा तथा यह दलील दी जाती रही कि ये गतिविधियां आर्थिक रूप से अधिक लाभदायक हैं। इस तथ्य की ओर से आंखें मूंद ली गई कि झींगा उत्पादन के आर्थिक लाभ बहुत थोड़े समय के लिये हैं। जबकि पर्यावरणीय तथा सांस्कृतिक नुकसान बड़े तथा लम्बे समय तक प्रभाव रखने वाले हैं। पिछले 3 दशकों में 40 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्रों को कृषि कार्य हेतु साफ किया गया है। इसका परिणाम यह है कि विश्व के 35 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्र पहले ही समाप्त हो चुके हैं तथा बचे हुए भी उष्णकटिबन्धीय वनों से अधिक तेजी से समाप्त हो रहे है।
बांधों के निर्माण तथा सिंचाई के लिये पानी के उपयोग के कारण नदियों द्वारा मैंग्रोव वनों में पहुंचने वाला पानी कम हुआ है जिससे वन क्षेत्रों में खारापन बढ़ा है जिससे समस्या और अधिक जटिल हो गयी है। ताजे पानी की कमी के कारण मैंग्रोव वन सूख सकते हैं। मैदानी इलाकों में वनों की कटाई के कारण भूक्षरण बढ़ा है जिससे नदियों में बह कर आने वाली तलछट समुद्र तटों पर जमा हो रही है। इसका सीधा असर ज्वार के समय पानी के स्तर पर पड़ता है।
समुद्र में क्षमता से अधिक मछलियों के शिकार के कारण तटों के पास के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव आ रहे हैं जो मैंग्रोव क्षेत्रों में मछलियों की संख्या को प्रभावित करते हैं।
मूंगे की चट्टानें समुद्री धाराओं तथा तीव्र लहरों के सामने प्रथम अवरोधक की तरह कार्य करती हैं। इन चट्टानों के न रहने पर तीव्र धाराएं या लहरें अधिक वेग से तटों तक आती हैं और उस मिट्टी का कटाव करती हैं जिसमें मैंग्रोव उगते हैं। फलस्वरूप पोषक तत्व लहरों के साथ बह जाते हैं और छोटे पौधे जड़ नहीं जमा पाते हैं। नदियों में बह कर आने वाले रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक तथा दूसरे मानव निर्मित विषैले रासायन मैंग्रोव वनों में रहने वाले जीवों के लिये खतरा हैं। फसलों में डाले जाने वाले खरपतवार नाशक रसायनिक पदार्थ भी मैंग्रोव वनों के लिये खतरा हैं।
कृत्रिम झींगा पालन क्षेत्रों के हजारों हेक्टेयर मैंग्रोव वनों को काटा जा चुका है। मैंग्रोव वनों को मानव द्वारा पहुंचायी जाने वाली हानि मुख्यतः कृषि तथा झींगा उत्पादन हेतु भूमि, ईंधन तथा इमारती लकड़ी के लिये पेड़ों के कटाव के रूप में होती है। समुद्र में मछलियों के अंधाधुंध शिकार तथा अन्य आर्थिक कारणों से समुद्री संसाधनों के दोहन के कारण मैंग्रोव क्षेत्रों की जैव विविधिता में कमी आई है।
मैंग्रोव पौधों से पशुओं के लिये उत्तम चारा प्राप्त होता है। भैंसों, गायों तथा बकरियों को गर्मियों में चरने के लिये इन वनों में छोड़ दिया जाता है। ये पशु घास तथा ऐविसेनिया प्रजाति के पत्ते खाते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में ये पत्तियां एकत्र कर पशुओं को खिलायी जाती हैं। यह माना जाता है कि ऐविसेनिया जाति के पौधों की पत्तियां खिलाने पर भैंस अधिक दूध देती है।
मैंग्रोव वृक्षों की लकड़ी को जलाने के लिये बहुत अधिक उपयोग किया जाता है। मैंग्रोव वृक्ष की 1 टन लकड़ी 2-5 टन कोयले की बराबर ऊर्जा उत्पन्न करती है और जलने पर धुआं नहीं होता। इन क्षेत्रों में बहुत से गांव वाले जंगल से लकड़ी काट कर ही जीविकोपार्जन करते हैं। इन क्षेत्रों को एक बड़ा खतरा काजू तथा अन्य आर्थिक रूप से लाभप्रद फसलों तथा नमक उत्पादन के लिये वनों की कटाई से है। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में उगने वाले मैंग्रोव वन आज विश्व के सर्वाधिक संकटग्रस्त क्षेत्रों में शामिल हैं।
मैंग्रोव पर्यावरण गतिशील व सक्रिय है। मानवीय गतिविधियों के दबाव के कारण इन क्षेत्रों में पौधों की मृत्युदर बढ़ रही है और पुनरूत्पादन क्षमता कम हो रही है। उदाहरणतः मैंग्रोव पौधों की खुली जड़ों के वातरंध्र कच्चे तेल तथा अन्य प्रदूषक तत्वों से बन्द हो जाते हैं। कृत्रिम नहरों तथा पक्के नदीपथ (काज-वे) के कारण जलस्तर बढ़ जाता है और अधिक समय तक पानी में डूबी रहने पर जड़ें श्वसन नहीं कर पाती हैं ।
मैंग्रोव वनों को काफी समय तक अनुपयोगी मानकर कृषि भूमि के लिये, पर्यटन क्षेत्रों के विकास के लिये, झींगा पालन के लिये तथा नमक उत्पादन के लिए इन क्षेत्रों को साफ किया जाता रहा तथा यह दलील दी जाती रही कि ये गतिविधियां आर्थिक रूप से अधिक लाभदायक हैं। इस तथ्य की ओर से आंखें मूंद ली गई कि झींगा उत्पादन के आर्थिक लाभ बहुत थोड़े समय के लिये हैं। जबकि पर्यावरणीय तथा सांस्कृतिक नुकसान बड़े तथा लम्बे समय तक प्रभाव रखने वाले हैं। पिछले 3 दशकों में 40 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्रों को कृषि कार्य हेतु साफ किया गया है। इसका परिणाम यह है कि विश्व के 35 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्र पहले ही समाप्त हो चुके हैं तथा बचे हुए भी उष्णकटिबन्धीय वनों से अधिक तेजी से समाप्त हो रहे है।
बांधों के निर्माण तथा सिंचाई के लिये पानी के उपयोग के कारण नदियों द्वारा मैंग्रोव वनों में पहुंचने वाला पानी कम हुआ है जिससे वन क्षेत्रों में खारापन बढ़ा है जिससे समस्या और अधिक जटिल हो गयी है। ताजे पानी की कमी के कारण मैंग्रोव वन सूख सकते हैं। मैदानी इलाकों में वनों की कटाई के कारण भूक्षरण बढ़ा है जिससे नदियों में बह कर आने वाली तलछट समुद्र तटों पर जमा हो रही है। इसका सीधा असर ज्वार के समय पानी के स्तर पर पड़ता है।
समुद्र में क्षमता से अधिक मछलियों के शिकार के कारण तटों के पास के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव आ रहे हैं जो मैंग्रोव क्षेत्रों में मछलियों की संख्या को प्रभावित करते हैं।
मूंगे की चट्टानें समुद्री धाराओं तथा तीव्र लहरों के सामने प्रथम अवरोधक की तरह कार्य करती हैं। इन चट्टानों के न रहने पर तीव्र धाराएं या लहरें अधिक वेग से तटों तक आती हैं और उस मिट्टी का कटाव करती हैं जिसमें मैंग्रोव उगते हैं। फलस्वरूप पोषक तत्व लहरों के साथ बह जाते हैं और छोटे पौधे जड़ नहीं जमा पाते हैं। नदियों में बह कर आने वाले रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक तथा दूसरे मानव निर्मित विषैले रासायन मैंग्रोव वनों में रहने वाले जीवों के लिये खतरा हैं। फसलों में डाले जाने वाले खरपतवार नाशक रसायनिक पदार्थ भी मैंग्रोव वनों के लिये खतरा हैं।
कृत्रिम झींगा पालन क्षेत्रों के हजारों हेक्टेयर मैंग्रोव वनों को काटा जा चुका है। मैंग्रोव वनों को मानव द्वारा पहुंचायी जाने वाली हानि मुख्यतः कृषि तथा झींगा उत्पादन हेतु भूमि, ईंधन तथा इमारती लकड़ी के लिये पेड़ों के कटाव के रूप में होती है। समुद्र में मछलियों के अंधाधुंध शिकार तथा अन्य आर्थिक कारणों से समुद्री संसाधनों के दोहन के कारण मैंग्रोव क्षेत्रों की जैव विविधिता में कमी आई है।
मैंग्रोव पौधों से पशुओं के लिये उत्तम चारा प्राप्त होता है। भैंसों, गायों तथा बकरियों को गर्मियों में चरने के लिये इन वनों में छोड़ दिया जाता है। ये पशु घास तथा ऐविसेनिया प्रजाति के पत्ते खाते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में ये पत्तियां एकत्र कर पशुओं को खिलायी जाती हैं। यह माना जाता है कि ऐविसेनिया जाति के पौधों की पत्तियां खिलाने पर भैंस अधिक दूध देती है।
मैंग्रोव वृक्षों की लकड़ी को जलाने के लिये बहुत अधिक उपयोग किया जाता है। मैंग्रोव वृक्ष की 1 टन लकड़ी 2-5 टन कोयले की बराबर ऊर्जा उत्पन्न करती है और जलने पर धुआं नहीं होता। इन क्षेत्रों में बहुत से गांव वाले जंगल से लकड़ी काट कर ही जीविकोपार्जन करते हैं। इन क्षेत्रों को एक बड़ा खतरा काजू तथा अन्य आर्थिक रूप से लाभप्रद फसलों तथा नमक उत्पादन के लिये वनों की कटाई से है। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में उगने वाले मैंग्रोव वन आज विश्व के सर्वाधिक संकटग्रस्त क्षेत्रों में शामिल हैं।
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