अनियमित अवलोकन करने पर यह अकल्पित ही समझा जाएगा कि मैंग्रोव वनस्पतियां उनके आवास (भूमि और सागर के अंतरापृष्ठीय क्षेत्र) में किस प्रकार जीवित रह पाती हैं। सामान्यतः यह देखने में आता है कि यदि किसी पौधे को समुद्र के पानी से सींच दिया जाये तो पानी में उपस्थित नमक उस पौधे के सारे पानी को सोख लेता है और पौधा निर्जलीकरण से मर जाता है। इसके विपरीत मैंग्रोव पौधे लगातार खारे पानी में रह कर भी जीवित रहते हैं और फलते-फूलते है। ऐसा लगता है कि जो पौधा पूरे समय पानी में ही खड़ा है उसे पानी की क्या कमी? लेकिन वास्तविकता यह है कि ताजे पानी की कमी के कारण जैविक रूप से ये पौधे लगातार सूखे की स्थिति का सामना कर रहे होते हैं। अपनी कुछ अद्वितीय विशेषताओं के कारण ही ये पौधे खारे पानी में विषम परिस्थितियों का सामना करते हुये भी स्वयं को जीवित रख पाते हैं।
मैंग्रोव पौधे विषम जलवायु का सामना करने के लिये अनुकूलन की विशेष क्षमता रखते हैं। अपनी विशेष संरचना के कारण ही ये पौधे मजबूती से धरती से जुड़े होते हैं। इनमें विशेष श्वसन जड़ें होती हैं जिनकी सहायता से ये वातावरण से पर्याप्त ऑक्सीजन अवशोषित कर पाते हैं और कुछ विशेष जैवरासायनिक क्रियाओं की मदद से ये स्वयं को निर्जलीकरण से बचाते हैं। अनुकूलन की इन विशेषताओं के बिना इन पौधों का अपने प्रतिकूल वातावरण में जीवित रह पाना सम्भव नहीं है। आईए देखें कि ये पौधे ऐसा कैसे कर पाते हैं?
प्राकृतिक अनुकूलन के बिना मैंग्रोव वनस्पतियां इतने विषम क्षेत्र में नहीं उग पातीं। किसी क्षेत्र के अनुकूलन जैसे सागर या उसके पास वृद्धि के लिए मैंग्रोव को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन विशिष्ट अनुकूलनों के द्वारा मैंग्रोव वनस्पतियां वहां के पर्यावरण की विषम स्थिति के प्रति अपने को ढाल लेती हैं।
विभिन्न समूहों में रहने वाली मैंग्रोव वनस्पतियों ने शारीरिक अनुकूलनों के विकास द्वारा अपने आवास से संबंधित अनेक समस्याओं को हल करना सीख लिया है। सभी मैंग्रोव पौधे अपनी जड़ों से पानी का अवशोषण करते समय नमक की कुछ मात्रा को अलग कर देते हैं साथ ही ये पौधे दूसरे पौधों की अपेक्षा नमक की अधिक मात्रा अपने ऊतकों में सहन कर सकते हैं। कुछ मैंग्रोव पौधे जड़ों के स्तर पर ही नमक की काफी मात्रा को निस्यन्दन (फिल्टरेशन) द्वारा अलग कर देते हैं। यह कहा जाता है कि मैंग्रोव पौधों की जड़ें नमक को पानी से अलग करने में इतनी सक्षम होती हैं कि एक प्यासा व्यक्ति जड़ को काट कर उससे निकलने वाले पानी से अपनी प्यास बुझा सकता है। इस निस्यन्दन के पश्चात भी जो नमक पानी में शेष रह जाता है उसे अलग कर पुरानी पत्तियों में संचित कर लिया जाता है जो कुछ समय बाद गिर जाती हैं। कुछ प्रजातियों में अतिरिक्त नमक को बाहर निकालने से पूर्व रिक्तिकाओं में संचित किया जाता है। रिक्तिकाओं में होने के कारण यह नमक कोशिका की सामान्य प्रक्रियाओं में बाधा उत्पन्न नहीं करता है। कुछ प्रजातियों में विशेष ग्रन्थियां होती हैं जिनसे छोटी बून्दों के रूप में पानी के साथ अतिरिक्त नमक को उत्सर्जित किया जाता है। इन ग्रन्थियों से निकलने वाले पानी के कारण ये पौधे रोते हुए प्रतीत होते हैं।
कुछ मैंग्रोव पौधे अपने ऊतकों में नमक की अधिक मात्रा को सहन कर सकते हैं। उनके ऊतकों में पाये जाने वाले द्रव में नमक की सांद्रता समुद्री पानी की सांद्रता के दसवें भाग तक हो सकती है। ये पौधे अपनी पत्तियों पर पायी जाने वाली विशेष कोशिकाओं द्वारा अतिरिक्त नमक को बाहर निकाल देते हैं। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधे इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। खारापन अधिक होने पर कभी-कभी यह अकेला पौधा ही उस क्षेत्र में जीवित बच पाता है। कुछ अन्य प्रजातियों जैसे ऐकैन्थस (सी होली) के पौधों में भी यह विशेषता पायी जाती है। यद्यपि मैंग्रोव पौधे खारे पानी को सहन कर लेते हैं परन्तु इन्हें भी समय-समय पर मीठे पानी की आवश्यकता होती है अन्यथा कुछ समय बाद ये भी मर जाएंगे।
मैंग्रोव पौधे अस्थिर भूमि में उगते हैं। इनकी विलक्षण जड़ें इन्हें न केवल स्थायित्व प्रदान करती हैं बल्कि धाराओं के तेज बहाव और तूफानों में भी मजबूती से खड़ा रखती हैं और श्वसन में सहायता करती हैं। जिस प्रकार पानी के अन्दर एक तैराक एक नली के माध्यम से सांस लेता है जिसका सिरा पानी के ऊपर रहता है, उसी प्रकार मैंग्रोव पौधों में विशेष श्वसन जड़ों का विकास होता है जिनके माध्यम से ये पौधे ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान करते हैं। सभी श्वसन जड़ों में सूक्ष्म छिद्र या वातरंध्र होते हैं जिनसे गैसों का आदान-प्रदान होता है। इन सूक्ष्म छिद्रों से केवल हवा ही अन्दर प्रवेश कर सकती है, नमक अथवा पानी नहीं। सभी श्वसन जड़ों में विशेष प्रकार के वायवीय ऊतक होते हैं जिनमें हवा का संचय हो सकता है ताकि ज्वार के समय भी जब जड़ें पानी में डूबी रहती हैं, श्वसन चलता रहे। श्वसन जड़ों का मुख्य कार्य श्वसन के लिये गैसों का आदान-प्रदान करना तथा पौधे को स्थिरता प्रदान करना है। मैंग्रोव पौधों के तनों के केन्द्र में कठोर लकड़ी नहीं पायी जाती है। इसके स्थान पर पतली नलिकाएं होती हैं जो समान रूप से पूरे तने में फैली रहती हैं। इस कारण मैंग्रोव पौधे बाहरी छाल तथा तने को होने वाली क्षति को सहन कर सकते हैं।
इन पौधों में पायी जाने वाली वायवीय जड़ें कई रूप ले सकती हैं। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधों में ये जड़ें छोटी तथा तार जैसी होती हैं जो तने से निकल कर चारों ओर फैली होती हैं। इन जड़ों पर छोटी-छोटी पेन्सिल जैसी रचनाएं होती हैं जिन्हें श्वसन जड़ें या न्यूमैटोफोर्स (ग्रीक भाषा में इसका अर्थ ‘हवा का वाहक’ है) कहा जाता है। एक तीन मीटर लम्बे ऐविसेनिया वृक्ष पर लगभग 10,000 श्वसन जड़ें पायी जा सकती हैं। सोनेरेटिया प्रजाति में भी श्वसन जड़ें पायी जाती है लेकिन ये तिकोने आकार की होती है। ब्रूगेरिया प्रजाति की जड़े भूमि से बाहर आकर एक लूप के आकार में वापस धरती में चली जाती है। इन जड़ों का आकार मनुष्य के घुटने के आकार का होता है, इसलिये इन्हें नी रूटस् भी कहा जाता है। राइजोफोरा प्रजाति की शाखाओं और तनों से निकलने वाली स्थिर जड़े भूमि तक पहुंच कर स्थायित्व प्रदान करती हैं और हवा का आदान-प्रदान करती है।
जिन परिस्थितियों में बड़े वृक्षों का जीवन भी कठिन होता है उनमें छोटे पौधों का जीवन (जो अक्सर समुद्री पानी से भीगे रहते हैं) और भी कठिन हो जाता है। इसलिए अधिकांश पौधों में विशेष प्रकार की अनुकूलन क्षमता पायी जाती है जो उनके द्वारा उत्पन्न अगली पीढी के छोटे पौधों की प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने में सहायक होती है। बहुत सी प्रजाति के नव अंकुरित पौधों में पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित होते हैं और पानी पर तैरने के लिए विशेष संरचनायें पायी जाती हैं जो उन्हें जीवित रहने में सहायक होती हैं। कुछ प्रजातियों में फल पकने के बाद भी पेड़ो से गिरते नहीं है बल्कि गिरने से पहले ही बीज अंकुरित हो जाते हैं और नव अंकुरित पौधे उस वृक्ष से पोषण प्राप्त करते हैं जिससे उनकी उत्पत्ति होती है।
यह प्रक्रिया काफी हद तक प्राणियों द्वारा बच्चे जनने के प्रक्रिया जैसी है। कुछ प्रजातियों जैसे ऐविसेनिया में बढ़ता हुआ पौधा फल से बाहर केवल तभी निकलता है जब फल पेड़ से गिर जाता है। यह प्रक्रिया गूढ़जरायुजता (क्रिप्टो विविपैरी) कहलाती है। कुछ अन्य प्रजातियों में नव अंकुरित पौधा फल का आवरण तोड़ कर एक तना निर्मित करता है जिसे बीजपत्राधर (हाइपेाकोटाईल) कहते हैं। कुछ प्रजातियों जैसे राइजोफोरा तथा ब्रूगेरिया में जड़ों का निर्माण भी हो जाता है। इस प्रकार तैयार पौधा जो अभी तक मातृ पौधे पर ही लगा होता है प्रवर्ध्य (प्रोपेग्यूल) कहलाता है। कुछ अन्य प्रजातियों जैसे ऐजिसेरस में अंकुरित पौध मातृ वृक्ष से केवल ज्वार के समय ही गिरता है जो यह सुनिश्चित करता है कि नया पौधा लहरों के साथ दूर तक पहुंच सके।
प्रवर्ध्य जब पेड़ से अलग होता है तो क्षैतिज के समानान्तर तैरते हैं और ज्वार के साथ तैरते हुये दूर तक चले जाते हैं। ये पौधे समुद्र में लम्बे समय तक तैरते रह सकते हैं। इनका जड़ की ओर वाला भाग जल अवशोषक तथा शीर्ष की ओर वाला भाग जलरोधी होता है। कुछ सप्ताह बाद जड़ की ओर वाला भाग पानी सोख कर भारी हो जाता है और पौधा लम्बवत् तैरने लगता है तथा शीर्ष पर कुछ पत्तियां और निचले भाग से जड़ों को निर्माण होता है। भूमि के सम्पर्क में आते ही यह पौधा उससे चिपक जाता है तथा अधिक जड़ों का निर्माण कर मजबूती से खड़ा हो जाता है तब और अधिक पत्तियों का निर्माण होता है। लम्बा तना यह सुनिश्चित करता है कि पौधे के पानी में डूबने पर भी पत्तियों को ऑक्सीजन तथा सूर्य का प्रकाश मिलता रहे। एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि नये पौधे पूरी तरह पानी में डूबने पर भी जीवित रहते हैं जबकि वायवीय जड़ों का निर्माण 1-2 वर्ष की आयु में होता है। तब तक ये पौधे अपने तनों में पाये जाने वाले वायवीय ऊतक में संचित हवा की सहायता से जीवित रहते हैं।
ताजा मीठा पानी मैंग्रोव वृक्षों के लिये भी उतना ही आवश्यक है जितना कि रेगिस्तान में उगने वाले पौधे के लिये। मैंग्रोव पौधों को पानी की हर बूंद से नमक को अलग करने के लिये ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। इसलिये इन पौधों में रेगिस्तानी पौधों की तरह जल संरक्षण की योग्यता पायी जाती है। प्रथम दृष्टया यह कथन विरोधाभासी लगता है कि पानी की बहुतायत में उगने वाले पौधों में जल संरक्षण की क्षमता का विकास होता है। परन्तु जीव विज्ञानी इस तथ्य को भली-भांति समझ सकते हैं कि खारे पानी का वातावरण भी उतना ही निर्जलीकरण करता है जितना कि रेगिस्तानी वातावरण।
वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी के उत्सर्जन को रोकने के लिये इन पौधों में मोटी चिकनी पत्तियां होती हैं। पत्तियों की सतह पर पाये जाने वाले रोम पत्ती के चारों ओर वायु की एक परत को बनाये रखते हैं।
ये पौधे रसदार पत्तियों में पानी संचित भी कर सकते हैं। कुछ पौधों में कांटेदार तथा चिकनी पत्तियां पायी जाती हैं जो शाक भक्षियों से पौधों की रक्षा करती है। टैनिन्स की अधिक मात्रा तथा कुछ विषाक्त पदार्थ भी इसी प्रयोजनार्थ पाये जाते हैं।
मैंग्रोव पौधों को अक्सर ही पानी की अधिकता का सामना करना पड़ता है इसलिये उनकी जड़ें श्वसन के लिये धरती से बाहर आती हैं। साधारणतः वृक्षों की जड़ें सूर्य के प्रकाश से दूर गुरुत्वाकर्षण की ओर बढ़ती हैं। परन्तु मैंग्रोव पौधों में ऐसी जड़ें पायी जाती हैं जो गुरुत्वाकर्षण के विपरीत बढ़ती हैं और सतह के ऊपर आ जाती है। भूमि में हवा का संचार कम होने के कारण इन पौधों की जड़े अधिक गहराई तक नहीं जाती हैं। यद्यपि जड़ें गहरी नहीं होती हैं परन्तु उनमें बहुत अधिक शाखाएं पायी जाती हैं। अधिक शाखाओं के कारण पोषण के लिये अधिक क्षेत्रफल उपलब्ध होता है तथा पौधा मजबूती से खड़ा रह पाता है। जिन स्थानों पर मैंग्रोव पौधे उगते हैं वहां ऑक्सीजन की कमी रहती है। इस समस्या से निपटने के लिये मैंग्रोव पौधों में अतिरिक्त जड़ें पायी जाती हैं जो अनुकूलन जड़े कहलाती हैं।
मैंग्रोव पौधे विशेष प्रकार के पौधे हैं जिन्होंने प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने के लिये स्वयं को विकसित किया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्हें प्रकृति से उन स्थानों पर जीवित रहने का वरदान प्राप्त हैं जहां दूसरी प्रजातियां जीवित नहीं रह सकती।
मैंग्रोव पौधे विषम जलवायु का सामना करने के लिये अनुकूलन की विशेष क्षमता रखते हैं। अपनी विशेष संरचना के कारण ही ये पौधे मजबूती से धरती से जुड़े होते हैं। इनमें विशेष श्वसन जड़ें होती हैं जिनकी सहायता से ये वातावरण से पर्याप्त ऑक्सीजन अवशोषित कर पाते हैं और कुछ विशेष जैवरासायनिक क्रियाओं की मदद से ये स्वयं को निर्जलीकरण से बचाते हैं। अनुकूलन की इन विशेषताओं के बिना इन पौधों का अपने प्रतिकूल वातावरण में जीवित रह पाना सम्भव नहीं है। आईए देखें कि ये पौधे ऐसा कैसे कर पाते हैं?
प्राकृतिक अनुकूलन के बिना मैंग्रोव वनस्पतियां इतने विषम क्षेत्र में नहीं उग पातीं। किसी क्षेत्र के अनुकूलन जैसे सागर या उसके पास वृद्धि के लिए मैंग्रोव को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन विशिष्ट अनुकूलनों के द्वारा मैंग्रोव वनस्पतियां वहां के पर्यावरण की विषम स्थिति के प्रति अपने को ढाल लेती हैं।
पानी के खारेपन की समस्या
विभिन्न समूहों में रहने वाली मैंग्रोव वनस्पतियों ने शारीरिक अनुकूलनों के विकास द्वारा अपने आवास से संबंधित अनेक समस्याओं को हल करना सीख लिया है। सभी मैंग्रोव पौधे अपनी जड़ों से पानी का अवशोषण करते समय नमक की कुछ मात्रा को अलग कर देते हैं साथ ही ये पौधे दूसरे पौधों की अपेक्षा नमक की अधिक मात्रा अपने ऊतकों में सहन कर सकते हैं। कुछ मैंग्रोव पौधे जड़ों के स्तर पर ही नमक की काफी मात्रा को निस्यन्दन (फिल्टरेशन) द्वारा अलग कर देते हैं। यह कहा जाता है कि मैंग्रोव पौधों की जड़ें नमक को पानी से अलग करने में इतनी सक्षम होती हैं कि एक प्यासा व्यक्ति जड़ को काट कर उससे निकलने वाले पानी से अपनी प्यास बुझा सकता है। इस निस्यन्दन के पश्चात भी जो नमक पानी में शेष रह जाता है उसे अलग कर पुरानी पत्तियों में संचित कर लिया जाता है जो कुछ समय बाद गिर जाती हैं। कुछ प्रजातियों में अतिरिक्त नमक को बाहर निकालने से पूर्व रिक्तिकाओं में संचित किया जाता है। रिक्तिकाओं में होने के कारण यह नमक कोशिका की सामान्य प्रक्रियाओं में बाधा उत्पन्न नहीं करता है। कुछ प्रजातियों में विशेष ग्रन्थियां होती हैं जिनसे छोटी बून्दों के रूप में पानी के साथ अतिरिक्त नमक को उत्सर्जित किया जाता है। इन ग्रन्थियों से निकलने वाले पानी के कारण ये पौधे रोते हुए प्रतीत होते हैं।
कुछ मैंग्रोव पौधे अपने ऊतकों में नमक की अधिक मात्रा को सहन कर सकते हैं। उनके ऊतकों में पाये जाने वाले द्रव में नमक की सांद्रता समुद्री पानी की सांद्रता के दसवें भाग तक हो सकती है। ये पौधे अपनी पत्तियों पर पायी जाने वाली विशेष कोशिकाओं द्वारा अतिरिक्त नमक को बाहर निकाल देते हैं। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधे इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। खारापन अधिक होने पर कभी-कभी यह अकेला पौधा ही उस क्षेत्र में जीवित बच पाता है। कुछ अन्य प्रजातियों जैसे ऐकैन्थस (सी होली) के पौधों में भी यह विशेषता पायी जाती है। यद्यपि मैंग्रोव पौधे खारे पानी को सहन कर लेते हैं परन्तु इन्हें भी समय-समय पर मीठे पानी की आवश्यकता होती है अन्यथा कुछ समय बाद ये भी मर जाएंगे।
दलदल भूमि में स्थिरता
मैंग्रोव पौधे अस्थिर भूमि में उगते हैं। इनकी विलक्षण जड़ें इन्हें न केवल स्थायित्व प्रदान करती हैं बल्कि धाराओं के तेज बहाव और तूफानों में भी मजबूती से खड़ा रखती हैं और श्वसन में सहायता करती हैं। जिस प्रकार पानी के अन्दर एक तैराक एक नली के माध्यम से सांस लेता है जिसका सिरा पानी के ऊपर रहता है, उसी प्रकार मैंग्रोव पौधों में विशेष श्वसन जड़ों का विकास होता है जिनके माध्यम से ये पौधे ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान करते हैं। सभी श्वसन जड़ों में सूक्ष्म छिद्र या वातरंध्र होते हैं जिनसे गैसों का आदान-प्रदान होता है। इन सूक्ष्म छिद्रों से केवल हवा ही अन्दर प्रवेश कर सकती है, नमक अथवा पानी नहीं। सभी श्वसन जड़ों में विशेष प्रकार के वायवीय ऊतक होते हैं जिनमें हवा का संचय हो सकता है ताकि ज्वार के समय भी जब जड़ें पानी में डूबी रहती हैं, श्वसन चलता रहे। श्वसन जड़ों का मुख्य कार्य श्वसन के लिये गैसों का आदान-प्रदान करना तथा पौधे को स्थिरता प्रदान करना है। मैंग्रोव पौधों के तनों के केन्द्र में कठोर लकड़ी नहीं पायी जाती है। इसके स्थान पर पतली नलिकाएं होती हैं जो समान रूप से पूरे तने में फैली रहती हैं। इस कारण मैंग्रोव पौधे बाहरी छाल तथा तने को होने वाली क्षति को सहन कर सकते हैं।
अद्भुत जड़ें
इन पौधों में पायी जाने वाली वायवीय जड़ें कई रूप ले सकती हैं। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधों में ये जड़ें छोटी तथा तार जैसी होती हैं जो तने से निकल कर चारों ओर फैली होती हैं। इन जड़ों पर छोटी-छोटी पेन्सिल जैसी रचनाएं होती हैं जिन्हें श्वसन जड़ें या न्यूमैटोफोर्स (ग्रीक भाषा में इसका अर्थ ‘हवा का वाहक’ है) कहा जाता है। एक तीन मीटर लम्बे ऐविसेनिया वृक्ष पर लगभग 10,000 श्वसन जड़ें पायी जा सकती हैं। सोनेरेटिया प्रजाति में भी श्वसन जड़ें पायी जाती है लेकिन ये तिकोने आकार की होती है। ब्रूगेरिया प्रजाति की जड़े भूमि से बाहर आकर एक लूप के आकार में वापस धरती में चली जाती है। इन जड़ों का आकार मनुष्य के घुटने के आकार का होता है, इसलिये इन्हें नी रूटस् भी कहा जाता है। राइजोफोरा प्रजाति की शाखाओं और तनों से निकलने वाली स्थिर जड़े भूमि तक पहुंच कर स्थायित्व प्रदान करती हैं और हवा का आदान-प्रदान करती है।
जीवन के लिये संघर्षरत छोटे पौधे
जिन परिस्थितियों में बड़े वृक्षों का जीवन भी कठिन होता है उनमें छोटे पौधों का जीवन (जो अक्सर समुद्री पानी से भीगे रहते हैं) और भी कठिन हो जाता है। इसलिए अधिकांश पौधों में विशेष प्रकार की अनुकूलन क्षमता पायी जाती है जो उनके द्वारा उत्पन्न अगली पीढी के छोटे पौधों की प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने में सहायक होती है। बहुत सी प्रजाति के नव अंकुरित पौधों में पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित होते हैं और पानी पर तैरने के लिए विशेष संरचनायें पायी जाती हैं जो उन्हें जीवित रहने में सहायक होती हैं। कुछ प्रजातियों में फल पकने के बाद भी पेड़ो से गिरते नहीं है बल्कि गिरने से पहले ही बीज अंकुरित हो जाते हैं और नव अंकुरित पौधे उस वृक्ष से पोषण प्राप्त करते हैं जिससे उनकी उत्पत्ति होती है।
जरायुजता (विविपैरी)
यह प्रक्रिया काफी हद तक प्राणियों द्वारा बच्चे जनने के प्रक्रिया जैसी है। कुछ प्रजातियों जैसे ऐविसेनिया में बढ़ता हुआ पौधा फल से बाहर केवल तभी निकलता है जब फल पेड़ से गिर जाता है। यह प्रक्रिया गूढ़जरायुजता (क्रिप्टो विविपैरी) कहलाती है। कुछ अन्य प्रजातियों में नव अंकुरित पौधा फल का आवरण तोड़ कर एक तना निर्मित करता है जिसे बीजपत्राधर (हाइपेाकोटाईल) कहते हैं। कुछ प्रजातियों जैसे राइजोफोरा तथा ब्रूगेरिया में जड़ों का निर्माण भी हो जाता है। इस प्रकार तैयार पौधा जो अभी तक मातृ पौधे पर ही लगा होता है प्रवर्ध्य (प्रोपेग्यूल) कहलाता है। कुछ अन्य प्रजातियों जैसे ऐजिसेरस में अंकुरित पौध मातृ वृक्ष से केवल ज्वार के समय ही गिरता है जो यह सुनिश्चित करता है कि नया पौधा लहरों के साथ दूर तक पहुंच सके।
प्रवर्ध्य जब पेड़ से अलग होता है तो क्षैतिज के समानान्तर तैरते हैं और ज्वार के साथ तैरते हुये दूर तक चले जाते हैं। ये पौधे समुद्र में लम्बे समय तक तैरते रह सकते हैं। इनका जड़ की ओर वाला भाग जल अवशोषक तथा शीर्ष की ओर वाला भाग जलरोधी होता है। कुछ सप्ताह बाद जड़ की ओर वाला भाग पानी सोख कर भारी हो जाता है और पौधा लम्बवत् तैरने लगता है तथा शीर्ष पर कुछ पत्तियां और निचले भाग से जड़ों को निर्माण होता है। भूमि के सम्पर्क में आते ही यह पौधा उससे चिपक जाता है तथा अधिक जड़ों का निर्माण कर मजबूती से खड़ा हो जाता है तब और अधिक पत्तियों का निर्माण होता है। लम्बा तना यह सुनिश्चित करता है कि पौधे के पानी में डूबने पर भी पत्तियों को ऑक्सीजन तथा सूर्य का प्रकाश मिलता रहे। एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि नये पौधे पूरी तरह पानी में डूबने पर भी जीवित रहते हैं जबकि वायवीय जड़ों का निर्माण 1-2 वर्ष की आयु में होता है। तब तक ये पौधे अपने तनों में पाये जाने वाले वायवीय ऊतक में संचित हवा की सहायता से जीवित रहते हैं।
पानी में रहकर भी प्यासे
ताजा मीठा पानी मैंग्रोव वृक्षों के लिये भी उतना ही आवश्यक है जितना कि रेगिस्तान में उगने वाले पौधे के लिये। मैंग्रोव पौधों को पानी की हर बूंद से नमक को अलग करने के लिये ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। इसलिये इन पौधों में रेगिस्तानी पौधों की तरह जल संरक्षण की योग्यता पायी जाती है। प्रथम दृष्टया यह कथन विरोधाभासी लगता है कि पानी की बहुतायत में उगने वाले पौधों में जल संरक्षण की क्षमता का विकास होता है। परन्तु जीव विज्ञानी इस तथ्य को भली-भांति समझ सकते हैं कि खारे पानी का वातावरण भी उतना ही निर्जलीकरण करता है जितना कि रेगिस्तानी वातावरण।
वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी के उत्सर्जन को रोकने के लिये इन पौधों में मोटी चिकनी पत्तियां होती हैं। पत्तियों की सतह पर पाये जाने वाले रोम पत्ती के चारों ओर वायु की एक परत को बनाये रखते हैं।
ये पौधे रसदार पत्तियों में पानी संचित भी कर सकते हैं। कुछ पौधों में कांटेदार तथा चिकनी पत्तियां पायी जाती हैं जो शाक भक्षियों से पौधों की रक्षा करती है। टैनिन्स की अधिक मात्रा तथा कुछ विषाक्त पदार्थ भी इसी प्रयोजनार्थ पाये जाते हैं।
जड़ों की संरचना
मैंग्रोव पौधों को अक्सर ही पानी की अधिकता का सामना करना पड़ता है इसलिये उनकी जड़ें श्वसन के लिये धरती से बाहर आती हैं। साधारणतः वृक्षों की जड़ें सूर्य के प्रकाश से दूर गुरुत्वाकर्षण की ओर बढ़ती हैं। परन्तु मैंग्रोव पौधों में ऐसी जड़ें पायी जाती हैं जो गुरुत्वाकर्षण के विपरीत बढ़ती हैं और सतह के ऊपर आ जाती है। भूमि में हवा का संचार कम होने के कारण इन पौधों की जड़े अधिक गहराई तक नहीं जाती हैं। यद्यपि जड़ें गहरी नहीं होती हैं परन्तु उनमें बहुत अधिक शाखाएं पायी जाती हैं। अधिक शाखाओं के कारण पोषण के लिये अधिक क्षेत्रफल उपलब्ध होता है तथा पौधा मजबूती से खड़ा रह पाता है। जिन स्थानों पर मैंग्रोव पौधे उगते हैं वहां ऑक्सीजन की कमी रहती है। इस समस्या से निपटने के लिये मैंग्रोव पौधों में अतिरिक्त जड़ें पायी जाती हैं जो अनुकूलन जड़े कहलाती हैं।
मैंग्रोव पौधे विशेष प्रकार के पौधे हैं जिन्होंने प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने के लिये स्वयं को विकसित किया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्हें प्रकृति से उन स्थानों पर जीवित रहने का वरदान प्राप्त हैं जहां दूसरी प्रजातियां जीवित नहीं रह सकती।
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