शुष्क शौचालयों की सफाई या सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा हालांकि संज्ञेय अपराध है।
इस व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र व राज्य सरकारें कई वित्तपोषित योजनाऐं चलाती रही हैं, लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत है। इसके निदान हेतु अब तक कम से कम 10 अरब रुपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले 'सफेद हाथियों' के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है लेकिन हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। मैला ढोने वाले एक तबके की आर्थिक-सामाजिक हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया है।
उत्तर प्रदेश में करीब पैंतालीस लाख रिहाइशी मकान हैं। इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय नहीं हैं या सीवर व्यवस्था नहीं है। तभी यहां तकरीबन ढाई लाख लोग मैला ढोने के अमानवीय कृत्य में लगे हैं। इनमें से अधिकतर राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपये दे चुकी है । यह किसी स्वयंसेवी संस्था की सनसनीखेज रिपोर्ट या सियासती शोशेबाजी नहीं, बल्कि सरकारी सर्वेक्षण के नतीजे हैं।
शुष्क शौचालयों को दंडनीय अपराध बनाने में हमारी 'हरिजन प्रेमी' सरकारों को पूरे 45 साल लगे। तब से सरकार सामान्य स्वच्छ प्रसाधन योजना के तहत 50 फीसद कर्जा देती है। बकाया 50 फीसद राज्य सरकार बतौर अनुदान देती है। स्वच्छकार विमुक्ति योजना में भी ऐसे ही वित्तीय प्रावधान है। लेकिन अनुदान और कर्जे, अफसर व बिचौलिए खा जाते हैं। सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए आयोग बनाया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य आयोगों के कार्यकाल की कोई सीमा निर्धारित नहीं हुई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढाई साल का समय मिला। सफाई कर्मचारी आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा मिला। समाज कल्याण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीन आयोगों को सिविल कोर्ट के अधिकार हैं जबकि सफाईकर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं हैं। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारें सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देती। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च का प्रावधान था। पर अन्य महकमों की तरह घपले, घूसखोरी और घोटालों से यह विभाग भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले आयोग के उत्तर प्रदेश कार्यालय में दो अरब की गड़बड़ी का खुलासा हुआ था।
आयोग व समितियों के जरिए आजादी के बाद से सफाईकर्मियों की मुक्ति के सरकारी स्वांग जारी हैं। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उप्र) ने इस बाबत समिति गठित की थी। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे पर वह रद्दी का टुकड़ा साबित हुआ। 1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चौकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्त दिया जाए परंतु आज तक इस पर अमल नहीं हो पाया है। 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे पर उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाइलें तक उपलब्ध नहीं हैं। 1968 में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें 21 वीं सदी के मुहाने पर पहुंचते हुए भी लागू नहीं हो पाई हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि हरियाणा के 40.3 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास टेलीविजन हैं, पर शौचालय महज आठ फीसद हैं। पंजाब में 38.6 प्रतिशत लोगों के पास टीवी है परंतु शौचालय मात्र 19.8 की पहुंच में हैं। 1990 में बिहार की आबादी 1.11 करोड़ थी। उनमें से सिर्फ 30 लाख लोग ही शौचालय की सेवा पाते हैं। सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन व कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय जोड़ें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। इस धन को सीधे सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर परिवार सुखी समृद्ध होता। यदि सरकार या सामाजिक संस्थाएं वास्तव में सफाई कर्मचारियों को अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा से मुक्त करना चाहती हैं तो आईआईटी सरीखे तकनीकी शोध संस्थानों में 'सार्वजनिक सफाई' जैसे विषयों को अनिवार्य करना होगा। जिस रफ्तार से शहरों का विस्तार हो रहा है, उसके मद्देनजर आने वाले दशक में स्वच्छता एक गंभीर समस्या होगी।
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