![](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9C%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%A8_5.jpg?itok=S7hiBr7b)
दिल्ली के ईस्ट पटेल नगर की बेहद उदास और सुनसान सड़क पर एक फ्लैटनुमा मकान में सफाई कर्मचारी आन्दोलन का दफ्तर है। दफ्तर में बामुश्किल एक दर्जन लोग काम करते होंगे। दफ्तर की दीवारों पर बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की कई सफेद-स्याह तस्वीरें और भीम यात्रा की पोस्टर लगी हैं। इसी दफ्तर में बैठते हैं संगठन के नेशनल कनवेनर बेजवाड़ा विल्सन। बेजवाड़ा विल्सन को इस वर्ष रेमन मैगसेसे अवार्ड मिला है। रेमन मैगसेसे अवार्ड को एशिया का नोबेल पुरस्कार माना जाता है।
उनके दफ्तर का रंग-रूप कॉरपोरेट दफ्तरों से बिल्कुल अलग है। एकदम साधारण-बेजवाड़ा विल्सन की तरह ही। अपनी बात भी वे बेहद सामान्य तरीके से रखते हैं।
तमाम तरह की व्यस्तताअों के बावजूद इसी दफ्तर में उनसे मुलाकात हुई जिसमें उन्होंने मैला ढोने के प्रथा के खिलाफ चलाए जा रहे आन्दोलन और सरकार के रवैए पर अपनी बेबाक राय रखी। बेजवाड़ा विल्सन का जन्म 1966 में कर्नाटक में हुआ। उनका परिवार उसी जाति से आता है जो सदियों से हाथ से मैला ढोने का काम करती है।
कहा जाता है कि बचपन में वे स्कूल जाते थे तो दूसरे बच्चे उन्हें चिढ़ाया करते थे क्योंकि उनके पिता मैला ढोने का काम करते थे। यह बात उन्हें जब पता चली तो उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। सन 1986 में वे इस कुप्रथा के खिलाफ मैदान में आ गए। देश पर काले धब्बे की तरह चस्पाँ इस कुरीति के खिलाफ उनकी मुठभेड़ अब भी जारी है। पेश है बेजवाड़ा विल्सन से उमेश कुमार राय द्वारा की गई बातचीत पर आधारित साक्षात्कार-
सबसे पहले तो ये बताइए कि इस आन्दोलन से कब और किस तरह जुड़े?
मैं बहुत पहले से इस आन्दोलन से जुड़ा हूँ। चूँकि मैं इसी समुदाय से हूँ इसलिये शुरू से ही इस आन्दोलन का हिस्सा रहा हूँ। अलग-अलग भूमिकाओं में काम किया। अभी बतौर नेशनल कनवेनर काम कर रहा हूँ।
मैं बचपन से ही इस कुप्रथा के खत्म करने को लेकर सोचने लगा था। इसी बीच, सफाई कर्मचारी आन्दोलन आया तो मैं इसमें शामिल हो गया। यह आन्दोलन हमारी जाति की मुक्ति के लिये हो रहा था इसलिये मुझे लगा कि यह सार्थक आन्दोलन है और इससे जुड़ गया।
आन्दोलन के शुरुआती दौर में किस तरह की प्रतिक्रिया मिली?
शुरू का दौर बहुत अच्छा नहीं था। जब मैं इस आन्दोलन से जुड़ा तो अपने समुदाय से ही मुझे सहयोग नहीं मिला। लोगों को जेहन में यही खयाल था कि अगर वे आन्दोलन से जुड़े जाएँगे तो उनकी रोजीरोटी का जुगाड़ कैसे होगा। सरकारी अफसर भी गरीबों की बात नहीं सुनते हैं, वे पैसे वालों की सुनते हैं। लिहाजा मैं अफसरों से मिला तो उन्होंने भी मेरी नहीं सुनी। किसी तरह मैंने आन्दोलन जारी रखा। काफी समय तक आन्दोलन करने के बाद लोग मेरी सुनने को तैयार हो गए। वे आन्दोलन का हिस्सा बनने लगे। कई संगठनों ने भी सहयोग का हाथ बढ़ाया।
कभी आपको यह खयाल आया कि आन्दोलन विफल हो सकता है?
यह आन्दोलन किसी व्यक्ति का आन्दोलन नहीं है इसलिये इसके विफल होने की बात ही नहीं है। व्यक्ति विशेष पास-फेल होता है। आम आदमी के आन्दोलन में जीतने-हारने की बात ही नहीं है। जनता की लड़ाई में कभी हार नहीं होती है, लोगों का एक साथ मिलकर आन्दोलन करना ही जीत है।
इस कुप्रथा के लिये आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
इसके लिये केवल और केवल सरकार जिम्मेदार है। देश आजाद है और आजाद भारत में कुछ भी होता है तो इसके लिये शत-प्रतिशत सरकार जिम्मेदार है, दूसरा कोई नहीं। अगर कोई कहता है कि यह सामाजिक या आर्थिक समस्या है तो मैं कहूँगा कि ऐसा करना राजनीति है। यह न तो सामाजिक मुद्दा है और न ही आर्थिक।
लोग कहते हैं कि यह प्रथा सदियों से चली आ रही है, फिर सरकार कैसे जिम्मेदार है?
देखिये, सरकार का काम है किसी भी तरह की जातिप्रथा और कुप्रथा को खत्म करना। सरकार अगर ऐसा नहीं करेगी तो क्या करेगी, केवल अमीरों को लोन देगी, टैक्स माफ करेगी? सामाजिक स्तर पर कोई कुरीति है उसे खत्म करने की जिम्मेदारी सरकार की है।
छुआछूत एक समस्या है, इसे खत्म करने के लिये कानून बनाने और उसे सख्ती से लागू करने की जरूरत है। लोग ऐसा कह सकते हैं कि बदलाव घर से होना चाहिए, यह ठीक है लेकिन सरकार की भी तो जिम्मेदारी है क्योंकि सरकार के नुमाइंदे हर जगह हैं। कानून के दायरे में आने वाली चीजों पर सरकारी तंत्र की ही कार्रवाई होगी।
वर्ष 1993 में बने इम्प्लायमेंट फॉर मैनुअल स्केवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन अॉफ ड्राइ लैट्रिन (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993 से कितना फायदा हुआ है?
इस कानून से स्थिति में एक इंच भी बदलाव नहीं हुआ है। सरकार घोर जातिवादी है इसलिये इस कानून को लागू नहीं किया गया है। हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा को प्राथमिकता की सूची में रखकर सरकार को इस पर काम शुरू करना चाहिए। देश के 1 लाख 60 हजार लोग अब भी हाथ से मैला उठाते हैं, इनके लिये काम करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, यह देश के लिये शर्म की बात है।
आपको लगता है कि यह कुप्रथा खत्म हो जाएगी?
ऐसा है कि सरकार के पास अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो 24 घंटों में यह समस्या खत्म हो जाएगी लेकिन सरकार चाहती ही नहीं कि यह समस्या खत्म हो जाये। सरकारी मशीनरी अगर सक्रिय हो जाएँ तो तुरन्त यह कुप्रथा समाप्त हो जाएगा।
आप 1986 से आन्दोलन कर रहे है, क्या आन्दोलन से बड़ा बदलाव सम्भव है?
आन्दोलन का काम सरकार पर दबाव डालना है और सरकार का काम है इन पर गम्भीरता से काम करना। आन्दोलन का काम पुनर्वास करना और संगठनों से पैसा लेना नहीं है। आन्दोलन के जरिए यह बताना है कि सरकार को क्या करना चाहिए। आन्दोलन बिजनेस करने के लिये नहीं है। सरकार अगर बेपटरी हो जाये तो उसे पटरी पर लाना है आन्दोलन का काम। हम सरकार को कई बार बता चुके हैं कि क्या करना चाहिए।
वर्तमान सरकार का इस पर कैसा रवैया है?
वर्तमान सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति बेहद कमजोर है। प्रधानमंत्री जी से मिलकर कई बार अपील की गई लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। 15 अगस्त के भाषण में प्रधानमंत्री इस समस्या पर कुछ बोल सकते थे लेकिन उन्होंने एक शब्द नहीं कहा। वे सीमा पार कर बलूचिस्तान चले गए लेकिन घर की गन्दगी पर उनकी नजर नहीं जाती है।
पिछले 2 सालों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कई ज्ञापन सौंपे गए। ज्ञापन में वर्ष 1993 के कानून को लागू करने, नया कानून बनाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने को कहा गया था लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। केन्द्र सरकार सफाई कर्मचारियों के लिये आवंटित पुनर्वास पैकेज को खर्च नहीं करती है। इन्हीं वजहों से यह कुप्रथा अब भी बनी हुई है।
21वीं सदी में भी अगर लोग हाथ से मैला ढोते हैं तो बहुत दुःखद है।
यह दुःखद नहीं भयानक स्थिति है। प्रधानमंत्री को इसका जवाब देना चाहिए। मैं नागरिकों से अपील करता हूँ कि जब भी प्रधानमंत्री मिलें तो उनसे यही पूछें कि मैला ढोने की प्रथा कब खत्म होगी। लोग जब भी उनसे मिलने जाएँ तो यह सवाल करें, इससे प्रधानमंत्री पर दबाव बनेगा और तीसरे दिन ही वे इस कुप्रथा को खत्म करने के लिये घोषणाएँ करेंगे।
इस समस्या के खात्मा के लिये आपका अगला कदम क्या होगा?
हम लोग अब सीधे कार्रवाई करेंगे। दो महीने का वक्त है। दो महीने हमलोग देखेंगे अगर सरकार ठोस कदम नहीं उठाएगी तो सीधी कार्रवाई करेंगे। जहाँ-जहाँ टायलेट बने हुए हैं, सभी को तोड़ा जाएगा।
/articles/maailaa-dhaonae-kae-khailaapha-saidhai-kaararavaai-kae-mauuda-maen-vailasana