परिचय
देश के मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, जल तथा जैव विविधता इत्यादि की गुणवत्ता दिनोंदिन अत्यधिक तेजी से घटती जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन व अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ इसके प्रमुख कारण हैं। देश की खाद्यान्न एवं पोषण की सुरक्षा को स्थिर रखने के लिए कृषि अनुसंधान तथा विकास के हमारे वर्तमान दृष्टिकोण में एक बड़े बदलाव की आवश्यकता है। इसमें हमने देखा है कि पूर्व में सिंचित कृषि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन आने वाले समय में देश में सिंचाई संसाधनों के घटने के कारण इस योगदान में कमी आती जा रही है। उचित जलनिकास के बिना सिंचाई क्षेत्र का दायरा बढ़ाना, जलभराव की समस्या, लवणीयता एवं क्षारीयता जैसी मूलभूत समस्याओं को बढ़ाने में अहम कारक होगा। देश में वर्तमान समय में लवणग्रस्त क्षेत्र 6.74 मिलियन हैक्टर है तथा 2025 तक बढ़कर 11.7 मिलियन हैक्टर होने की संभावना है।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से खेती को बचाने के लिए संसाधनों का न्यायसंगत प्रयोग करना होगा। इसके लिए हमें भारतीय जीवन दर्शन को भलीभांति से अपनाकर पारंपरिक ज्ञान को जीवन शैली में अपनाना होगा। हमें इस समय खेती में ऐसे पर्यावरण भिन्न तरीकों को स्थान देना होगा जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को स्थिर रख सकें तथा अपने प्राकृतिक संसाधनों को भी बचा सकें।
निम्न गुणवत्ता के भूमि जल द्वारा सिंचाई करके अपारंपरिक फसलों को उगाकर अपनी आय को बढ़ाने के साथ-साथ देश की खाद्यान समस्या का भी समाधान कर सकते हैं। अपारंपरिक फसलों में तेल वाली फसल जैसे तिल को खारे पानी में उगाकर अच्छी पैदावार ली जा सकतीहै। इसी प्रकार तुलसी, ईसबगोल, ग्वार पाठा जो कि आयुर्वेदिक दवाओं में प्रयोग में लाये जाते हैं, को खारे पानी की वैद्युत चालकता 8 डेसी. / मीटर तक उगाकर अच्छी पैदावार ली जा सकती है। मेथी, सौंफ, प्याज व लहसुन को दवाओं में तो इस्तेमाल किया ही जाता है, साथ हीं इनका भारतीय रसोई में मसाले के रूप में भी उपयोग होता है। मेथी डालकर बहुत सी सब्जियां पकाई जाती है तथा इसके दानों का पाउडर डाइबिटीज में फायदेमंद होता है। सौंफ भी मसाले
के साथ-साथ उपचार तथा बच्चों के ग्राइपवाटर में इस्तेमाल होती है। लहसुन की पत्तियां कच्ची खाने से हृदय रोग में फायदा होता है तथा इसे मसाले के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
गैंदा तथा गुलाब का उपयोग माला बनाने, सजावट करने, गुलदस्ता बनाने तथा इत्र में भी किया जाता है। गुलाब से गुलाबजल, गुलकंद व दवाओं में भी उपयोग किया जाता है।
इन सब गुणों को ध्यान में रखते हुये अपारंपरिक फसलों को लवणीय जल में उगाने के परीक्षण किये गये। परिणामों के आधार पर उपयोगी जानकारी प्रदान की जा रही है, जिसे अपनाकर किसान भूमि के कुछ भाग में इन फसलों की खेती कर अच्छी आमदनी प्राप्त कर सकते हैं।
तुलसी (ओसिमम सेंक्टम) तुलसी लेमिएसी कुल का एक झाड़ीदार एवं छोटा पौधा है। भारत में इसकी कई प्रजातियाँ पाई जाती है, जिसमें से जंगली रूप में पायी जाने वाली ओसिमम विरिडी को छोड़कर शेष सभी प्रजातियों की खेती की जाती है। ओसिमम सेंक्टम प्रजाति पवित्र पौधे के रूप में घरों एवं मंदिरों में लगाई जाती है। हरे पत्तों वाली प्रजाति श्रीतुलसी (राम तुलसी) एवं बैंगनी पत्तों वाली प्रजाति
कृष्ण तुलसी कहलाती है। तुलसी हिन्दू धर्म की आस्था से जुड़ी है इसलिए इसे पवित्र पौधा भी मानते हैं। इसके पत्तों, तने, जड़ एवं बीजों का उपयोग विभिन्न रोगों जैसे खाँसी, ज्वर, जुकाम, श्वास, दन्तरोग आदि के निदान हेतु किया जाता है। इसके बीजों से तेल प्राप्त किया जाता है । जिसमें कई तरह के रासायनिक तत्व जैसे युजिनॉल ( 71 प्रतिशत), यूजिनॉल मिथाइल ईथर (20 प्रतिशत) एवं कारवेक्राल ( 3 प्रतिशत) पाया जाता है। तुलसी की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूं, मुरादाबाद और सीतापुर जिलों में की जाती है।
जलवायु
तुलसी की खेती उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है। कम उपजाऊ जमीन जहाँ जलनिकास का उचित प्रबन्ध हो, में भी तुलसी को अच्छी तरह से उगाया जा सकता है।
मृदा
दोमट एवं बलुई दोमट मृदा, जिसका पीएच मान 5 से 6 के बीच हो, जैविक पदार्थ की प्रचुर मात्रा और जलनिकास का अच्छा प्रबन्ध हो, ऐसी भूमियाँ तुलसी की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। जंगलों में यह कंकरीली एवं पथरीली मिट्टी में भी उग आती है।
भूमि की तैयारी: एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व दो जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए। पाटा लगाना आवश्यक है ताकि खेत में मिट्टी के ढेले न रह पायें।
पौधशाला प्रबंधन
तुलसी के बीज की बुवाई उठी क्यारियों में कतारों में करनी चाहिए। पौधशाला के लिए उपजाऊ एवं अच्छे जलनिकास वाली भूमि का चयन करना चाहिए। मैदानी भागों में बीज की बुवाई अप्रैल-मई माह में की जाती है। एक हेक्टेयर के लिए बीज की मात्रा 200-300 ग्राम पर्याप्त रहती है। बीज को बुवाई से पहले उपचारित अवश्य कर लेना चाहिए। बीज बहुत छोटे होने के कारण बीज की गहराई 2 सेंमी. से अधिक नहीं होनी चाहिए अथवा बीज को बोने के बाद मृदा के मिश्रण से हल्का सा ढंक देना चाहिए ।
पौध रोपण
जब पौध 5-6 सप्ताह की हो जाए और 4-5 पत्तियां निकल आये तो यह पौध रोपाई के लिए तैयार है। पौधों की रोपाई कतारों में करना चाहिए, कतार से कतार की दूरी 40-60 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 40 सेमी. रखनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
औषधीय पौधों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग आवश्यकता होने या मृदा नमूने की जांच की सिफारिश के आधार पर करना चाहिए। रोपाई (बुवाई से पूर्व मृदा की जांच आवश्यक है। खेत की तैयारी के समय 200 से 250 कुंटल / हैक्टर सड़ी गोबर की खाद अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें। नत्रजन 60 कि.ग्रा. की आधी मात्रा, फॉस्फोरस 30 कि.ग्रा. तथा पोटाश 30 कि.ग्रा. की सम्पूर्ण मात्रा प्रति हैक्टर की दर से अंतिम जुताई के समय डाल देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा पौधरोपण के 25-30 दिन बाद निराई-गुड़ाई करके दो बार में खेत में डालनी चाहिए।
सिंचाई
खेत में पौध की रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। उचित मात्रा में उपज प्राप्त करने के लिए 5-7 दिन के अन्तराल पर लगभग 12 सिंचाईयाँ आवश्यक हैं।
निराई-गुड़ाई
फसल वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में खरपतवार शीघ्र ही निकाल देने चाहिए, अन्यथा बढ़वार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल में निराई-गुड़ाई दो बार पहली रोपाई के 30 दिन बाद और दूसरी 60 दिन पर करनी चाहिए। निराई-गुड़ाई से खरपतवार तो नष्ट होते ही हैं साथ ही मृदा में उचित वायु संचार भी होता रहता है।
कीट नियंत्रण
तुलसी में पत्ती मोडक एवं लेसवींग कीट का प्रकोप देखा जाता है जो पौधे की पत्तियों तथा शाखाओं को क्षतिग्रस्त करके नुकसान पहुँचाता है। इसके नियंत्रण के लिए 10,000 पी.पी.एम. सांद्रता के नीमयुक्त कीटनाशी दवा की 5 मिली. प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें। पौधगलन एवं धब्बा रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम 1.0 ग्राम दवा का प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें।
कटाई व उपज
फसल की बुवाई के लगभग 65-70 दिनों के बाद कटाई कर लेनी चाहिए । तुलसी की औसत उपज 200 से 250 कुंटल / हेक्टेयर तथा तेल की मात्रा 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है।
लवणीय जल सिंचाई
लवणीय जल का कृषि में प्रयोग परियोजना के अन्तर्गत राजा बलवन्त सिंह महाविद्यालय, बिचपुरी, आगरा के प्रक्षेत्र पर तुलसी फसल पर कई वर्षों तक परीक्षण किया गया। तालिका 1 में तुलसी पर लवणता का प्रभाव एवं लाभ/लागत अनुपात देखने पर ज्ञात होता है कि लवणीय जल से तुलसी के पौधों की ऊँचाई, प्रति पौधा शाखाएं प्रति पौधा शुद्ध भार (ग्राम) तथा सम्पूर्ण भाग की उपज सांख्यिकी दृष्टि से सार्थक थी। तुलसी के पौधों की ऊँचाई सार्थक रूप से नहरी जल सिंचाई में सबसे अधिक तथा लवणीय जल (8 डेसी. / मी.) में सबसे कम पाई गई। इसी प्रकार तुलसी में अन्य कारक जैसे शाखाओं की संख्या, प्रति पौधा शुद्ध भार (ग्राम) भी तुलसी के पौधे की ऊँचाई के परिणाम की तरह थे। तालिका 1 के अवलोकन से ज्ञात होता है कि नहरी जल व विद्युत चालकता 2 डेसी. / मीटर लवणीय जल से सिंचाई करने पर हरे भाग की पैदावार लगभग एक समान प्राप्त होती है। इसी प्रकार विद्युत चालकता 4 एवं 6 डेसी/ मीटर लवणता में भी समान पैदावार प्राप्त होती है। सांख्यिकी रूप से सबसे कम पैदावार विद्युत चालकता 8 डेसी. / मीटर लवणीय जल सिंचाई में प्राप्त होती है। तालिका 2 में आगरा एवं अलीगढ़ मंडल में अपारंपरिक फसलों के लिए उपयुक्त क्षेत्रों की जानकारी प्रस्तुत की गयी है।
तालिका 1. सिंचाई जल की लवणता का तुलसी की उपज पर प्रभाव
उपचार | पौधे की ऊँचाई (सॅमी.) | शाखाओं की संख्या / पौधा | शुद्ध भार पौधा (ग्राम) | सम्पूर्ण भाग की उपज (कुटल/हेक्टर) | संबंधित उपज (प्रतिशत) |
शुद्ध आय (पये / हैक्टर) |
लाभ लागत अनुपात |
सिंचाई जल की लवणता (वैद्युत चालकता, डेसी. / मीटर) | |||||||
नहरी जल | 66.8 | 10.9 | 468.0 | 190.0 | 100 | 81,740 | 3.27 |
2 | 65.1 | 10.7 | 441.3 | 184.0 | 96.8 | 79,870 | 3.19 |
4 | 61.8 | 9.3 | 415.7 | 169.0 | 88.9 | 78,620 | 3.14 |
6 | 59.4 | 8.4 | 388.0 | 157.0 | 82.6 | 68,250 | 2.73 |
8 | 58.3 | 7.8 | 362.0 | 147.0 | 77.4 | _ | 2.20 |
क्रांतिक अन्तर (0.05) | 2.5 | 0.5 | 28.2 | 20.0 | _ | _ | _ |
तालिका 2. आगरा एवं अलीगढ़ मंडल में अपारंपरिक फसलों के लिए उपयुक्त क्षेत्र
जनपद | विकास खण्ड |
आगरा | अछनेरा,अकोला, बाह, बरौली अहीर, बिचपुरी एत्मादपुर, फतेहाबाद, खन्दौली,खेरागढ़, पिनाहट,सैया एवं शमशाबाद |
एटा | अलीगंज, अवागढ़, जेबरा, जलेसर, मारहरा, निधौली कला एवं शीतलपुर |
कासगंज | अमांपुर, कासगंज, गंजडुण्डवारा, पटियाली, सहावर सिद्धपुरा एवं सौरों |
अलीगढ़ | टकराबाद, अतरौली, बिजौली, धनीपुर, गंगीरी, इगलास, अवां एवं कौल |
हाथरस | मुरसान सासनी, सिकन्दरा राइ हसायन सादाबाद एवं सहपुर |
मैनपुरी | बसाहल, बेवर, घिरोर, करहल किशनी, कुरावली एवं सुल्तानगंज |
फिरोजाबाद | अराव, एका, फिरोजाबाद, जसराना, खैरगढ़, कोटला मदनपुर शिकोहाबाद एवं टूण्डला |
मथुरा | बलदेव, छाता, चौमुहा, गोवर्धन, फरह एवं राया |
स्रोत- अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:
प्रभारी अधिकारी
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना लवणग्रस्त मृदाओं का प्रबंध एवं खारे जल का कृषि में उपयोग" राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय, बिचपुरी, आगरा-283105 (उत्तर प्रदेश)
ईमेल: aicrp.salinity@gmail.com
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