लूट पानी की

कार्पोरेट्स की रुचि निजी पानी के व्यापार से अधिकाधिक लाभ कमाने की होने से पानी के उपयोग का प्राथमिकता क्रम और मात्रा को भी बदला गया है। जहां अधिक लाभ होगा वही अधिक मात्रा में पानी बेचा जाएगा। सिंचाई के लिए आरक्षित पानी उद्योग और व्यवसाय के लिए डायव्हर्ट किया जा रहा है और इसके लिए किसानों को यह कहकर बदनाम करने का प्रयास हो रहा है कि किसान सिंचाई के लिए बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी करते हैं।

गुलाम भारत की लूट की कहानी हम जानते ही हैं। अंग्रेज व्यापार करने के नाम से आये और भारत को गुलाम बनाकर लूट करते रहे। आजादी की लड़ाई ने लोगों के मन में यह उम्मीद जगाई थी कि अंग्रेजों कि गुलामी से मुक्ति के बाद यह लूट समाप्त होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत आजाद हुआ, लेकिन लूट जारी है, उसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी ही हो रही है। इस लूट के स्वरूप में कुछ बदलाव हुआ है। लूट के सिर्फ नये-नये रास्ते खोजे जा रहे है। श्रम के शोषण, औद्योगिक उत्पादन और सेवा उद्योग के माध्यम से की जाने वाली लूट के साथ-साथ अब देश के नैसर्गिक संसाधनों की खुली लूट भी की जा रही है। कोयला, खनिज, पेट्रोलियम, गैस, पानी, जमीन, जैव विविधता, जंगल आदि जैसी प्रकृति की देन को ही अब लूटा जा रहा है। इसमें से कई ऐसे स्रोत हैं, जिसके दोहन से वह हमेशा के लिए समाप्त होंगे। पानी जो जीवन, जीविका और प्रकृति चक्र का प्रमुख आधार है, जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध है और सजीव सृष्टि के लिए हवा और धूप की तरह ही प्रकृति ने उसे सबके लिए उपलब्ध कराया है, वह पानी, भारत में बाजार की वस्तु बन चुका है। अब यहां सतही जल और भूमिगत जल पर मालिकाना हक प्राप्त किया जा सकता है और उस हक को खरीदा-बेचा जा सकता है।

अब कोई व्यापारी/कंपनी किसी नदी, जलाशय या भूमिजल का हक खरीद सकता है, उसका मालिक बन सकता है और उस हक को बेच सकता है। या फिर अपने मलिकाना हक प्राप्त पानी से सिंचाई, पेय व घरेलू जल आपूर्ति, उद्योग, व्यवसाय, मछली उत्पादन, पन बिजली, मंनोरजन आदि सभी प्रकार के उपयोग के लिए पानी बेच सकता है। समुद्री मछली उत्पादन व नमक उत्पादन के लिए पानी के हक और पानी बेचा जा सकता है। अक्सर हम पानी बेचने का उल्लेख बोतलबंद पानी बेचने के संदर्भ में ही करते है। लेकिन अब उपरोक्त सभी कामों के लिए पानी बेचा जाएगा। देश में एक नया पानी उद्योग खड़ा हो रहा है। इस देश में जमीन तो पहले से ही बाजार की वस्तु बनी हुयी है, जमीन पर मालिकाना हक ने जमींदारों को जन्म दिया और अब जमीन के कार्पोरेटीकरण को आसान बनाया। इसी तरह पानी को भी बाजार की वस्तु बना दिया गया है। पानी पर मलिकाना हक से नई प्रकार की पानीदारी खड़ी होगी और पानी का कार्पोरेटीकरण आसान होगा। पानी के कार्पोरेटीकरण के लिए उपर से नीचे एक कानूनी व्यवस्था स्थापित की गयी है, देश के अनेक राज्यों में जल नीति और कानून बनाये गये है और अन्य राज्यों में बनाये जा रहे हैं।

जलचक्र से बारीश होती है, जिससे हर साल एक निश्चित मात्रा में सतही जल और भूमिजल तैयार होता है और इस प्रकार एक बड़ा विशाल जल भंडार हर साल उपलब्ध होता है। भारतवर्ष में प्रतिवर्ष औसतन लगभग 4000 बिलीयन घनमीटर (BCM) वर्षा होती है। इसमें से प्राकृतिक वाष्पीकरण -वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों एवं जलस्रोतों के माध्यम से औसतन वार्षिक प्राकृतिक प्रवाह 1869 BCM है। इसमें से वर्तमान कार्यनितियों से सतही जल 690 BCM और भूमिगत 433 BCM मिलाकर कुल केवल 1123 BCM जल उपयोग योग्य है। इस प्रकार उपयोग योग्य जल की सीमित मात्रा है। भारत में इस समय कुल 6.2 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो रही है। इस सिंचाई के लिए 688 BCM पानी, पेयजल के लिए 56 BCM पानी, तथा उद्योग, उर्जा व अन्य क्षेत्र में 69 BCM पानी, कुल मिलाकर 813 BCM पानी का उपयोग किया जा रहा है। परन्तु जनसंख्या वृद्धि, तेजी से हो रहे शहरीकरण, जीवन शैली में परिवर्तन, औद्योगीकरण और आर्थिक विकास के कारण जल की मांग में तेजी से वृद्धि हो रही है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार सिंचाई, पेयजल व घरेलू जल आपूर्ति, उद्योग, उर्जा व अन्य उपयोग के लिए जल की कुल मांग 2010 में 813 BCM, 2025 में 1093 BCM और 2050 में 1447 BCM रहेगी और प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता 2001 में 1820 घनमीटर थी, अब 2010 में 1588 घनमीटर, 2025 में 1341 घनमीटर और 2050 में 1140 घनमीटर रहेगी। नदी बेसिन के हिसाब से प्रतिवर्ष जल उपलब्धता अलग-अलग बेसिनों में अलग-अलग 300 घनमीटर से 13,393 घनमीटर है।

भारत का विशाल जल भंडार, सीमित जल उपलब्धता और बढ़ती मांग इन सभी स्थिति का लाभ उठाकर कार्पोरेट समूह, विश्व बैंक के माध्यम से पानी पर मालिकाना हक प्राप्त करके जल उपयोग के सभी क्षेत्रों में पानी का बड़ा व्यापार खड़ा करना चाहते हैं।

विश्व बैंक की जलसंसाधन रणनीति रिपोर्ट में डाब्लिन प्रिन्सिपल को आधार बनाकर दुनिया में पानी के निजीकरण के संदर्भ में अनेक मुद्दों पर विस्तृत चर्चा कि गयी। जिसमें जल क्षेत्र में ढाँचागत सुधार, संस्थागत ढाँचा, पानी को आर्थिक वस्तु मानकर व्यवहार करना, जलहक (Water right) निर्धारण, पानी की कीमत निर्धारण, सभी जल उपयोग के क्षेत्र के साथ-साथ सिंचाई के लिए भी घनमापन पद्धति का अवलंब, सतही जल और भूमिजल के संदर्भ में एकान्तिक दृष्टि अपनाना, कृषि क्षेत्र में पानी पर सब्सिडी समाप्त करना, सार्वजनिक निजी भागीदारी (PPP), निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना, जल साक्षरता और जलसंबंधी आंकड़ों के लिए डाटा बैंक आदि महत्वपूर्ण मुद्दों के संदर्भ में चर्चा करके नीति रिपोर्ट में विश्व बैक की भूमिका के लिए निर्देश दिये गये हैं। कार्पोरेट उद्योगों को बांध, नदी का पानी और उसका हक बेचा जा रहा है। राजनेता और अधिकारियों को दुनियाभर में चल रहे पानी के निजीकरण के प्रयोग दिखाने के लिए विदेश दौरे कराये जा रहे हैं। नदी जोड़ योजना को गति देने का प्रयास चल रहा है। गंगा और अन्य नदियों के शुद्धीकरण के लिए चल रहे जनआंदोलनों का लाभ उठाकर नदियों के पानी पर हक प्राप्त करने की कोशिश जारी है। ताप बिजली, जल उर्जा परियोजना के लिए बांध व नदियों का पानी और उसका हक कम्पनियों को बेचा जा रहा है। विदर्भ में प्रस्तावित 132 ताप बिजलीघरों में से 55 से अधिक को पानी का हक बेचा जा चुका है। पूरे देश में यही स्थिति है।

पानी के व्यापार से देश की जनता की कितनी लूट होगी इसका निश्चित आकलन करना इस समय मुश्किल है। लेकिन कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। आज घरेलू जल उपयोग या सिंचाई के लिए जो लोग जल स्रोतों से सीधे पानी लेते हैं उन्हें पानी की कीमत नहीं चुकानी पड़ती। जहां कहीं यह व्यवस्था सार्वजनिक है वहां सेवा शुल्क के रूप में शुल्क लिया जाता है, जो कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी बना रहता है। अभी पीने के लिए सेवा शुल्क 1.5 (डेढ़) पैसा प्रति लीटर के आसपास पड़ता है। यह शुल्क कम से कम दो गुना भी बढ़ाया गया तो पीने के लिये जरूरी 56 BCM पानी की कीमत 1 लाख 68 हजार करोड़ रुपए होगी। इसके अलावा बोतलबंद पानी के लिए 12 रु. लीटर, कैन का पानी 1.5 रुपए लीटर बेचा जा रहा है। इसके साथ पेय जल बेचने के कई नये तरीके अपनाये जा रहे है। इस तरह पेयजल के माध्यम से प्रतिवर्ष 2 लाख करोड़ रुपए जनता की जेब से कम्पनियों के पास पहुचेंगे। साथ ही उद्योग व अन्य उपयोग के लिए जरुरी 69 BCM पानी की कीमत के रूप में लगभग दो लाख करोड़ कम्पनियों के पास अलग से पहुचेंगे।

सिंचाई के क्षेत्र में 6 करोड़ हेक्टेयर सिंचित खेती के लिए नयी दरें लागू हुयी तो फल खेती और खाद्यान्न खेती के लिए लगभग एक लाख करोड़ रुपए पड़ेंगे। इस तरह कुल मिलाकर पानी के व्यापार द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख करोड़ रुपए जनता की जेब से कम्पनियों के पास पहुचेंगे। यह कीमत और अधिक हो सकती है। कार्पोरेट्स की रुचि निजी पानी के व्यापार से अधिकाधिक लाभ कमाने की होने से पानी के उपयोग का प्राथमिकता क्रम और मात्रा को भी बदला गया है। जहां अधिक लाभ होगा वही अधिक मात्रा में पानी बेचा जाएगा। सिंचाई के लिए आरक्षित पानी उद्योग और व्यवसाय के लिए डायव्हर्ट किया जा रहा है और इसके लिए किसानों को यह कहकर बदनाम करने का प्रयास हो रहा है कि किसान सिंचाई के लिए बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी करते हैं। दूसरी तरफ सिंचाई की आधुनिक पद्धति के लिए स्प्रिंकलर, डिबंक सिंचन आदि का बाजार खड़ा किया जा रहा है। इसी के साथ पानी निर्यात भी किया जायेगा।

पानी का सीधा निर्यात या प्रदूषणकारी निर्यातोन्मुखी उद्योगों के लिए पानी के उपयोग द्वारा निर्यात पानी के कार्पोरेटीकरण से एक तरफ पानी पर से जनता का अधिकार छीना गया तो दूसरी तरफ उसी पानी को उन्हें ही बेचा जाएगा जिनसे पानी का हक छिना गया है। पानी की दरें बढ़ने से देश की जनता जो कठिन परीश्रम करने पर ही दो वक्त की रोटी मुश्किल से प्राप्त कर सकती है उन्हें पानी के लिए भी तरसना पड़ेगा। उसी तरह जैसे आज अनाज के गोदाम भरे होने के बावजूद लोगों को भूखा सोना पड़ता है और अपने बच्चों को कुपोषित होकर मरते देखना पड़ता है।

लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और विश्व बैंक के भूतपूर्व नौकर डॉ. मनमोहन सिंह विश्व बैंक की बात को दोहराते हुये कह रहे हैं की पानी की बर्बादी और अकुशल प्रयोग से बचने या उसे नियंत्रित करने के लिए पानी की कीमत लगाना आवश्यक है। लेकिन क्या यह सच है कि देश की 3/4 जनता जो अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए रात दिन मेहनत करती है वह पानी की बर्बादी करती है या फिर वे लोग जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं और अपने उच्च जीवन शैली को बनाने के लिए पानी की बर्बादी करते है? क्या ऐसा कहीं उदाहरण है क्या कि खाद्यान्न हो या जीवन आवश्यक वस्तु या भौतिक सुविधा आदि की अधिक कीमत के कारण धनवान लोगों ने इन चीजों का संयमित इस्तेमाल किया हो? और बर्बादी नहीं कि हो। कीमतें बढा़कर अपने जिन गरीबों की पहले ही भूख छीन ली है अब आप उनकी प्यास भी छीनना चाहते है।

कल तक जिस पानी पर जनता का अधिकार था, कोई व्यक्ति या कंपनी उसका दुरुपयोग करती है तो जनता उस पर कार्रवाई कर सकती थी लेकिन आज धारक कंपनी के क्षेत्र में कोई व्यक्ति, किसान कीमत चुकाये बिना अपनी आवश्यकताओं के लिए भी पानी का उपयोग करता है तो उसे चोरी ठहराकर दंडित करने का प्रावधान कानून में दिया गया है। जल संबंधी कानूनों में स्थिति को उलट दिया है।

यहां सवाल यह है कि क्या इस देश को यह स्वीकार करना चाहिए की बारिश का पानी जो जमीन, खेती, जंगल और छतों पर गिरा हो और बहते हुये किसी नदी तालाब तक पहुंचा या फिर जलभरण से भूमिजल बना हो। वही पानी जब आपको अपनी आवश्यकताओं के लिए उपयोग करना पड़े तो आपको उसके लिए मनाई की जाए और उसी पानी के लिए सुविधा शुल्क के अलावा पानी की कीमत देकर खरीदने के लिए बाध्य किया जाए और वह भी उस कम्पनी से जिसे सरकार ने लोगों के अधिकारों कम्पनियों को पानी का हक बेचा हो अब समय आ गया है कि देश की जनता नैसर्गिक संसाधनों पर जनता का सामुदायिक हक बनाये रखने के लिए सत्याग्रह करे। जिसका पानी के निर्माण, बहाव या जलभरण में कोई योगदान नहीं है।

भारत वर्ष में पानी को जीवन कहा जाता है। भारतीय जनमानस में उसका महत्व पवित्रता और शुद्धता से जोड़ा गया है जो निसर्ग की देन है। सजीव सृष्टी के उपयोग के लिए वह सर्वत्र मुक्तरूप से प्राप्त है। आज तक जिसके उपयोग के लिए आर्थिक पक्ष सेवाशुल्क के रूप में ही प्राप्त किया जाता रहा है। उस पानी को बाजार की वस्तु बनाना, उस पर कानूनन मालकियत स्थापित करना और उसका व्यापार खड़ा करना अनाकरणीय और उन कल्पनीय बात है। लेकिन कार्पोरेट समूह और विश्व बैंक ने अपने चालबाज तरीकों से यह कर दिखाया है। विशेष यह की भारत में इतने संवेदनशील मुद्दे पर जनता को यह पता तक नहीं चलने दिया गया। भ्रष्ट राजनेता, अधिकारी और कुछ एन.जी.ओ. के माध्यम से उन्होंने यह कर दिखाया है। दुनिया में निरंतर विकास और गरीबी दूर करने के लिए काम करना विश्व बैंक का घोषित उद्देश्य है। लेकिन इस घोषित उद्देश्य की आड़ में पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत बनाना और कार्पोरेट समूहों का हितरक्षण करने का ही काम वह करती आयी है। विश्व बैंक के व्यक्ति को शीर्षस्थ स्थान पर बिठाकर, अनैतिक, गैरकानूनी लूट को कानूनन बनाने के लिए राष्ट्रीय नीतियां बनाना और कानून में परिवर्तन करके देश की लूट के रास्ते बनाना यह विश्व बैंक का काम करने का तरीका है। भारत में भी हर क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप करके विश्व बैंक ने इसी पद्धति का इस्तेमाल किया है। पानी के संबंध में विश्व बैंक की रणनीति, उसके आधार पर भारत में नीति और कानून में हुये बदलाव को देखने से यह बात अधिक स्पष्ट होती है।

इस प्रकार भारत में एक प्राकृतिक संसाधन पानी पर से जनता के अधिकार को छीना गया है। इतना ही नहीं बल्कि अब उसी पानी को लूट का माध्यम बनाकर जनता की लूट करने की व्यवस्था की गयी हैं। कल तक जिस पानी पर जनता का अधिकार था, कोई व्यक्ति या कंपनी उसका दुरुपयोग करती है तो जनता उस पर कार्रवाई कर सकती थी लेकिन आज धारक कंपनी के क्षेत्र में कोई व्यक्ति, किसान कीमत चुकाये बिना अपनी आवश्यकताओं के लिए भी पानी का उपयोग करता है तो उसे चोरी ठहराकर दंडित करने का प्रावधान कानून में दिया गया है। जल संबंधी कानूनों में स्थिति को उलट दिया है। विश्व बैंक, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें यह जानती हैं कि, पानी का निजीकरण एक संवेदनशील मुद्दा है, इसलिए इसे बड़ी चालाकी से लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। देश में चुनिंदा महानगरों में घरेलू जल आपूर्ती व्यवस्था को निजी कम्पनियों को सौंपा जा रहा है। कृषि सिंचाई के क्षेत्र में भी देश के कुछ राज्यों में विश्व बैंक के प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं।

भारत सरकार की जल नीति 2002 से यह स्पष्ट होता है कि भारत की जलनीति पूर्णता विश्व बैंक के निर्देशानुसार बनायी गयी है। देश की नितियों में विश्व बैंक के सीधे हस्तक्षेप का यह उत्तम उदाहरण है। विश्व बैंक की एक कोशिश यह भी रही है कि पानी को केन्द्रीय सूची में समाविष्ट किया जाए ताकि पूरे देश में एक साथ जलनीती और तत्संबंधित कानून को लागू किया जा सके। लेकिन यह संभव नहीं हुआ। चूंकि जल के संबंध में समुचित नितियां, कानून और विनियमन बनाने का अधिकार राज्यों का है। इसलिए देश के 14-15 राज्यों में जलनीति 2002 के आधार पर राज्य जल नीति और तंत्संबंधित कानून बनाये हैं। बाकी राज्यों में भी यह काम चल रहा है। इसके लिए विश्व बैंक राज्यों को ड्राफ्टिंग में मदद कर रहा है। और कई राज्यों में कर्ज के बदले शर्तें रखकर इसे लागू करवाया गया है।

राज्य जल नीति को लागू करने के लिए तीन प्रमुख कानून बनाये गये


1- Water Resources Regulatory Authqrity Act.
जल संसाधन नियमन प्राधिकरण अधिनियम।

2- Management of irrigation system by farmers Act.
सिंचाई प्रबन्धन में किसानों की भागीदारी अधिनियम

3- Ground WaterAct
भूमिजल अधिनियम।


जल संसाधन प्राधिकरण का काम पानी के हक बेचना और पानी की दरें निर्धारित करना है। तथा अन्य दोनों कानूनों के तहत उस उपयोगकर्ता संघ या जल समिति द्वारा ग्राहकों को पानी उपलब्ध कराना जलापूर्ती संसाधनों का रखरखाव और पानी की कीमत वसूलने का काम किया जाएगा।

पानी के कार्पोरेटीकरण के लिए ऊपर से नीचे तक एक कानूनी व्यवस्था स्थापित की गयी है। जिसके कारण घरेलू या खेती या अन्य उपयोग के लिए नदी, तालाब, बांध या फिर अपने ही कुओं पर पानी घनमापन पद्धति से जल कम्पनी द्वारा बेचा जाएगा। उसके लिए प्रत्येक कार्य क्षेत्र में लोगों की सहभागिता का दिखावा करने के लिए जल उपयोगकर्ता संघ या जलसमितियां बनायी जा रही हैं, लेकिन उनका काम जलव्यवस्था का रखरखाव, व्यवस्थापन और लोगों से पानी की कीमत वसूलकर कम्पनी को सौपनें का होगा। शुरू में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के रूप में इसे आगे बढ़ाकर धीरे-धीरे निजी कम्पनियों को सौंपा जाएगा।

और अब विश्व बैंक की नितियों को और आगे बढ़ाने के लिए जलनीति 2012 ड्राफ्ट हुयी है। साथ ही भूमि जल के कार्पोरेटीकरण की सुविधा के लिए भारतीय उपभोगधिकार अधिनियम 1882 (Indian Easement Act – 1882) बदलने का प्रयत्न चल रहा है। पानी को राष्ट्रीय सम्पत्ति करके सरकार पानी के हक बेचने का कानूनी अधिकार प्राप्त करेगी।

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