एकता परिषद् और केंद्र सरकार के बीच भूमि सुधारों को लेकर आगरा में हुआ समझौता एक बार पुनः अपनी परिणिति तक नहीं पहुंच पाया। एकता परिषद् की भूमि सुधारों को लेकर यह दूसरी पदयात्रा थी और इसे दिल्ली तक ही नहीं पहुंचने दिया गया और बहला-फुसलाकर समझौता करवा दिया गया। इस तरह की मानसिकता भूमिहीनों के मन में आक्रोश पैदा करेगी जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।
अपनी छः बीघा जमीन पर बर्बाद हुई फसल और कर्ज में डूबे मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास स्थित बैरसिया के एक किसान कमल पिता कुंजीलाल विश्वकर्मा ने पिछले दिनों फांसी लगा ली। इस फांसी से मध्य प्रदेश की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आनन-फानन में बैठक बुलाई और कहा कि संकट की इस घड़ी में सरकार किसानों के साथ है। सवाल यह है कि सरकार किसी किसान के फांसी लगाने पर ही क्यों चेतती है और फसलों के नुकसान होने पर ही क्यों उन्हें खेती-किसानी की याद आती है। लगातार दूसरी बार कृषि कर्मण अवार्ड मिलने से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान फूले नहीं समा रहे हैं। उनकी सरकार यह क्यों भूल जाती है कि जिन किसानों की दम पर यह सुनहरी तस्वीर दिखाई देती है, उनकी वास्तविक स्थिति क्या है।कृषि प्रधान कहे जाने वाले भारत में लाखों किसान किसानी छोड़ रहे हैं या आत्महत्या करने को मजबूर हैं। सरकारी नीतियों के कारण खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। पिछले कुछ दशकों में देश के नीति निर्धारकों की दृष्टि में कृषि कल्याण व किसानों के मुद्दे उपेक्षित रहे हैं। मध्य प्रदेश के छोटे व मंझौले किसान, बंटाईदार किसान व खेत मजदूर भूख, कुपोषण व पलायन के बीच बदहाल जीवन जी रहे हैं। सहकारी समितियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज पाने वाले किसान भी त्रस्त हैं तथा प्राकृतिक आपदा के दौरान मुआवजा प्राप्त करने की उनकी चाह राजनीति के भंवर में गुम हो जाती है। अतएव देशभर में ऐसी कृषि को प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है जिसमें छोटे किसानों, बंटाईदार किसानों, खेत मजदूरों व महिलाओं की आजीविका सुरक्षित रहे।
यह इसलिए भी ज़रुरी है क्योंकि खेती के बाजारीकरण व निगमीकरण पर टिके इस मौजूदा माॅडल की विफलता पूरी तरह उजागर हो चुकी है। बेतहाशा रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के उपयोग से किसान परिवार ऋणग्रस्त हो रहे हैं और अन्ततः खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पंजाब इस हकीकत को पूरी तरह रेखांकित करता है। सन् 2005 में किए गए राष्ट्रीय प्रतिवर्ष सर्वे रिपोर्ट बताते हैं कि पंजाब में प्रति परिवार औसत बकाया ऋण 63525 रुपये था, जबकि राष्ट्रीय औसत 25895 रुपये था। ये आंकडे दर्शाते हैं कि किसी भी कीमत पर ज्यादा से ज्यादा उगाओ वाली व्यवस्था ने गरीबी के दुष्चक्र में करोडों लोगों को झोंक दिया है। नतीजतन आज हर घंटे एक किसान आत्महत्या कर रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार सन् 1995 से 2012 तक के 18 वर्षों में करीब 2.85 लाख किसानों ने आत्महत्या की और लाखों अन्य किसान इसी तरह के अवसाद से घिर गए। सरकार की तथाकथित सघन कृषि विकास नीतियों व योजनाओं के क्रियान्वयन के चलते लगभग 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने पर आमादा हैं।
वैसे वर्ष 2001 से 2011 के बीच 85 लाख किसानों ने खेती से नाता तोड़ लिया। यानि 2300 किसान हर रोज खेती करना छोड़ रहे हैं। इसका मतलब साफ है कि सरकार व राजनीतिक दलों को किसान और किसानी पर अपने मौजूदा रुख में बदलाव किए जाने की जरूरत है। इसी के मद्देनजर आशा व प्रदेश के किसान संगठनों ने मिलकर देश की बेहतरी के लिए कार्य करने वाले राजनीतिक दलों से मांग की है कि उच्च बाहरी अनुदान आधारित सघन खेती ने हमारी खेती के आधार मिट्टी, पानी, जैवविविधता और जलवायु को गम्भीर क्षति पहुंचाई है इसलिए खेती से जुड़े करोड़ों किसानों की आजीविका को सतत् सुनिश्चित, सम्मानजनक तथा स्वावलम्बी बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं।
ऐसी स्थिति में किसान संगठनों, आशा (एलायंस फाॅर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर) व बीज स्वराज अभियान ने 12 संगठनों के साथ मिलकर किसान घोषणापत्र जारी किया है। घोषणापत्र के अनुसार ऐसी राजनीतिक कार्य संस्कृति विकसित हो जिसमें कृषि नीति, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, बड़े औद्योगिक घरानों व उच्च तकनीकी संस्थान के हितों को पोषण करने वाली न होकर सवा अरब लोगों के लिए अन्न पैदा करने वाले किसानों के हित साधने वाली हो। सभी किसान संगठनों की भी यह कोशिश है कि ऐसी बहस चलाई जाए ताकि आम चुनावों में किसानों के मुद्दे जगह पा सकें।
घोषणापत्र का कहना है कि देश में किसान स्वराज स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि सभी किसान परिवारों की आय सुनिश्चित हो तथा उत्पादकता से जुड़े जोखिम कम हों ताकि किसान खेती छोड़ने को बाध्य न हों। ऐसी खेती पद्धति को बढ़ावा मिले जिसमें संसाधनों का शोषण न हो व किसानों का जीवनयापन निरंतर बना रहे। जमीन, जल, जंगल, बीज एवं ज्ञान जैसे संसाधनों पर लोगों का नियंत्रण हो। इसमें कंपनियों, सरकारी अधिकारियों का हस्तक्षेप न हो। सभी भारतीयों को रसायन रहित खाद्यान्न मिले। किसान आय आयोग बने जो किसानों की वास्तविक आय का आंकलन करे। आयोग यह भी तय करे कि सभी फसलों के लाभप्रद मूल्य मिल सकें। पर्याप्त बीमा तथा मुआवजा तंत्र हो ताकि आपदा में किसान आर्थिक रूप से टूटें नहीं। खेती की लागत को कम करने के लिए अधिक पानी, अधिक उर्जा, अधिक रसायन वाली कृषि नीति में बदलाव किए जाए।
यह घोषणापत्र अनिवार्य मूल्य क्षति-पूर्ति की व्यवस्था लागू करने की वकालत करता है और मांग करता है कि लाभप्रद मूल्य से कम कीमत मिलने पर शेष राशि का सरकार भुगतान करे। किसान संगठनों व संस्थाओं के माध्यम से भंडारण, उपार्जन व प्रसंस्करण तथा विपणन हेतु ग्रामस्तर पर अधोसंरचना के विकास को प्रोत्साहन दिया जाए ताकि किसान को मेहनत का पूरा मूल्य मिल सके। भारतीय कृषि को प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत की दर से पर्यामित्र खेती के टिकाऊ माॅडल में बदला जाए।
यह सुनिश्चित किया जाए कि कृषि में ऐसे शोध हों जिससे रासायनिक खेती में कमी आए और कम लागत की खेती को बढावा मिल सके। खेतों में प्रयोग व व्यावसायिक कृषि की हितैषी जीएम फसलों को खुले तौर पर जारी करने की प्रक्रियाओं पर पाबंदी लगाई जाए तथा इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन किया जाए। इसके साथ ही कृषि में रसायनों को बढ़ावा दिए जाने वाली योजनाओं व अनुदानों को समाप्त किया जाए तथा ऐसे रसायनों को प्रतिबंधित किया जाए जिन्हें दूसरे देशों में भी प्रतिबंधित किया जा चुका है। बीजों पर पेटेंट तथा कंपनियों का नियंत्रण समाप्त किया जाए व किसान हितैषी बीज कानून बनाए जाएं। जलस्रोतों के निजीकरण को रोका जाए एवं कृषि भूमि के गैर कृषिगत इस्तेमाल हेतु अधिग्रहण को रोका जाए।
इन तमाम बातों पर गम्भीर चर्चा एवं परिणाम उन्मुखी निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है। बीते दशकों में बाजारवादी शक्तियों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को साधने वाली सरकारी नीतियों के कारण कृषि क्षेत्र में चहुंओर बर्बादी दिखाई पड़ रही है। इसलिए जरूरी है कि आम चुनाव के पहले कृषि क्षेत्र की समस्याएं मुखर ढंग से विश्लेषित की जाएं ताकि देश के करोड़ों किसानों के लिए भी लोकतंत्र सार्थक सिद्ध हो सके।
श्री प्रशांत कुमार दुबे विकास संवाद से संबद्ध हैं।
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