लोक नदी का आधुनिक विमर्श

भागीरथी को हम सभ्यताओं की संवाहक इसलिए भी मानते हैं क्योंकि गोमुख से गंगासागर की अपनी 1557 मील की यात्रा में यह जाने कितने काल खंडों के संघर्ष तथा मानवीय हर्ष व विषाद को अपने में समेटे हुए हैं। नवचेतना के अलम्बरदार कभी-कभी इस नदी की तुलना ब्रिटेन की टेम्स से कर अपनी बौद्धिकता दिखाते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि टेम्स महज 346 किमी. क्षेत्र तक सिमटी नदी को विराट वाङ्ग्मय वाली जाह्नवी के समकक्ष भला कैसे रखा जा सकता है! कमंडल और शिव की केशकुंडली से हिमालय के त्रि-शिखर पर उतरने वाली भागीरथी अपनी हजारों वर्षों की वय के बाद आज अपने लौकिक सौंदर्य के लिए क्रंदन कर रही है। उसके इस रुदन को हम संवाद की शक्ल में अपने तक पहुंचने देने के बजाय एकोन्मुखी होकर अपनी आंख-कान बंद कर चुके हैं। गंगा स्वर्ग पथगामिनी कही जाती है। उपनिषद् के काशी खंड में इसकी तारक शक्ति तथा मोक्षमहिमा का बखान भी है। हिमशिखरों के बाद यह पठारों में लोक जीवन के धर्म और कर्म, दोनों पक्षों का समुचित समन्वय बनाते हुए चलती है। सुदूर चलकर काशी इसका केंद्र बन जाता है, जहां गंगा से मिलकर लोक रागिनी हर-हर, बम-बम और अजान के सुर को समवेत कर ब्रह्मनाद में विलीन हो जाती है। यही नाद उसकी अलौकिकता का दर्शन है, जिससे वह उन सबको एकाकार करना चाहती है जो राग-द्वेष को किनारे कर इसकी साधना में विश्वास रखते हैं। वह कभी कबीर और रैदास होते हैं तो कभी तुलसी या फिर कभी नजीर और बिस्मिल्ला खां।

अंतर्तात्मा को झकझोर रही गंगा


इसके बावजूद कोई यह सोचे कि गंगा पर बात करना आधुनिकता नहीं है, तो उसे यह समझना होगा कि इस प्राणधारा नदी के लिए इतिहास का कोई हाशिया है ही नहीं। मुख्य धारा ही इसकी पहचान है। आप चाहे न चाहे लोकशक्ति मिलती रहेगी। कभी कम कभी ज्यादा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के प्रणेता कहे जाने वाले स्वामी सहजानंद सरस्वती तो यहां तक कहते हैं कि ईश्वर को मूर्त करने के लिए आपको मंदिरों के जीर्णोंद्धार कराने पड़ते हैं, लेकिन गंगा को अविरल और निर्मल करने के लिए आपकी अंतरात्मा आपको झकझोरेगी। आज नहीं तो कल।

वर्ष 1986 में जब राजीव गांधी ने गंगा कार्ययोजना का वराणसी में शुभारंभ किया था, तब बड़ा हर्षोल्लास मनाया गया। दूरदर्शन अपने प्रारम्भ की अवस्था में था। उसने राजेंद्र प्रसाद घाट से कार्यक्रम लाइव किया था। पूरे देश को लगा कि सिकुड़ती और मैली होती गंगा अपने अतीव सौंदर्य को प्राप्त होगी। लेकिन किसे मालूम था कि 86 में गंगा जल के साथ बजट का प्रावधान जुड़ते ही समाज इस नदी के प्रति कितना हिंसक हो उठेगा।

सभ्यताओं की श्रृंखला की प्रवहवान भागीरथी को सरकारों, अदालतों, निजी संस्थाओं और जाने कैसे-कैसे संगठनों के बीच पिसना होगा और अंततः उसे मल-जल तथा सीवेज का बोझ ढोने वाले एक बड़े से नाले का रूप देकर छोड़ दिया जाएगा। काशी में गंगा को लेकर छिड़ी जंग के जाने कितने अस्फुट अध्याय हैं, जिन पर चर्चा संभव नहीं लेकिन 28 वर्षों बाद कोई बनारस में आकर यह कहे कि मुझे मां गंगा ने बुलाया है। और अब मैं सरकार बनाने जा रहा हूं तो भारतेंदु की ‘नव उज्जवल जलधार हार हीरक...’ जैसी पंक्तियों से गंगा प्रेमियों का हताश मन जुड़ने लगता है।

सभ्यताओं की संवाहक भागीरथी


भागीरथी को हम सभ्यताओं की संवाहक इसलिए भी मानते हैं क्योंकि गोमुख से गंगासागर की अपनी 1557 मील की यात्रा में यह जाने कितने काल खंडों के संघर्ष तथा मानवीय हर्ष व विषाद को अपने में समेटे हुए हैं। नवचेतना के अलम्बरदार कभी-कभी इस नदी की तुलना ब्रिटेन की टेम्स से कर अपनी बौद्धिकता दिखाते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि टेम्स महज 346 किमी. क्षेत्र तक सिमटी नदी को विराट वाङ्ग्मय वाली जाह्नवी के समकक्ष भला कैसे रखा जा सकता है!

पश्चिम के साहित्य बोध में टेम्स का कोई खास स्थान नहीं जबकि भारतीय साहित्य के प्राचीन और अर्वाचीन दोनों ही अध्यायों में गंगा लक्षणा एवम् व्यंजना दोनों ही स्तरों पर आई हैं। नवगीतकार ज्ञानेंद्रपति ने तो ‘गंगा तट’ नामक पुस्तक ही लिखी। हम पहले और अब दोनों की तुलना करें तो ऋग्वेद से लेर राहुल सांकृत्यायन के कृतित्व तक गंगा को अवलंब मानकर या तो मौखरी में कुछ बोला गया या फिर लेखन में कुछ रचा गया। सांकृत्यायन ने ‘बोल्गा से गंगा तक’ 20 कहानियों का संग्रह लिखा जो आर्य संस्कृति से लेकर ‘अंग्रेंजों भारत छोड़ो’ के समय तक का तार्किक रेखांकन है।

जरूरत है इस बहस की कि इतनी वैभवशाली नदी से हमारा बर्ताव कैसा है। इससे लगायत हम अपनी मर्यादा को किस हद तक समझें इसकी सांसे रोकने के लिए इस वक्त बनाए जा रहे 600 पावर प्रोजेक्ट क्या जारी रखे जाएं या फिर इन्हें रोका जाए? इस देश के प्रति 12 में एक व्यक्ति जब गंगा सेवी है, तब क्यों न अद्यतन निर्गत सभी बजट का समुचित इस्तेमाल हो? क्यों न हम इस नदी को देश की धरोहर घोषित कर इसको उसी तरह पर्यटन का आकर्षण बना दें जैसा कि दुनिया में कुछ देशों ने अपने यहां किया? इन सबसे अलग यदि हम इस प्राणधारा को केवल अविरल और निर्मल ही बना दें तो यकीन मानिए कि हिंदुस्तान की सभ्यता, संस्कृति, भाईचारा तथा साहित्य को अपार बल मिलेगा। गंगा न होती तो शायद तुलसीदास अपने काव्यशिल्प की शिखर रचना ‘विनय पत्रिका’ न लिख पाते क्योंकि टीकाकार मानते हैं; तुलसी की इस रचना की एक-एक पंक्ति गंगा के सामीप्य में रची गई है।

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Post By: pankajbagwan
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