लोगों को विश्वास में लें, तो नहीं होगा विरोध


यह कहना सही नहीं होगा कि भूमि अधिग्रहण के कारण खनन कार्यों में व्यवधान पहुँच रहा है। राज्य के प्रत्येक व्यक्ति की चाहत होती है कि जिस जमीन से वार्षिक तीन लाख रुपये की आमदनी हो रही है, उससे उसकी आमदनी बढ़कर 13 लाख हो जाए। इसके लिये लोग कोशिश भी करते हैं। उत्खनन के क्षेत्र में यहाँ असीम सम्भावनाएँ हैं। जरूरत है इनको तराशने व दृढ़ इच्छाशक्ति से अमलीजामा पहनाने की। जरूरत उन सपनों को सच करने की है, जिन्हें पूर्वजों ने सदियों पहले अपनी उम्मीद भरी आँखों से देखा था। गुजरात व बिहार की तुलना झारखंड से करने पर मन में टीस होती है जब कि सब कुछ होते हुए भी हम देश में 28वें यानी अन्तिम पायदान पर हैं।

हमने देशभर के औद्योगिक घरानों को आमंत्रित करने की कोशिश भी की। कई कम्पनियों के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर भी हुए। लेकिन परिणाम सिफर रहा। एक भी एमओयू जमीन पर नहीं उतरा। हमें किसी भी योजना को सफलीभूत करने के लिये इच्छाशक्ति को पनपने देना होगा। आज सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड बीज से एक फलदार वृक्ष बन गया है। राज्य से लेकर केंद्र सरकार को यह फल दे रहा है। इस आशातीत सफलता के पीछे एक ही कारण है प्रबंधन में दृढ़ इच्छाशक्ति का होना। सोचने वाली बात है कि खनिज सम्पदा के मामले में बिहार व गुजरात में क्या है। कुछ नहीं। बावजूद इसके दोनों राज्य दिन दोगुनी व रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं। राज्य का विकासरूपी रथ सरपट दौड़ रहा है?

हमें यह सोचना चाहिए की आखिर ऐसी कौन सी बात है कि गुजरात सरकार का आमंत्रण मिलते ही उद्योगपति कूद पड़ते हैं। अच्छी बातों का जिक्र होना ही चाहिए। मुख्यमंत्री न सिर्फ उद्योगपतियों की बातों को तवज्जो देते हैं, बल्कि बातचीत में पारदर्शिता का ख्याल रखते हैं। किसी योजना के बारे में उद्योगपतियों की राय जानते हैं। इसके बाद ऑन द स्पॉट निर्णय लेते हैं। इसके तुरन्त बाद प्रेस वार्ता में आम लोगों को इसकी सूचना भी देते हैं। उनकी इच्छाशक्ति का परिणाम है कि उद्योगपतियों में उनके प्रति ज्यादा विश्वास है। इसका ताजा उदाहरण है टाटा की नैनो फैक्ट्री। सरकार कर कार्य में पारदर्शिता जरूरी है।

यह कहना सही नहीं होगा कि भूमि अधिग्रहण के कारण खनन कार्यों में व्यवधान पहुँच रहा है। राज्य के प्रत्येक व्यक्ति की चाहत होती है कि जिस जमीन से वार्षिक तीन लाख रुपये की आमदनी हो रही है, उससे उसकी आमदनी बढ़कर 13 लाख हो जाए। इसके लिये लोग कोशिश भी करते हैं। यदि सम्बन्धित व्यक्ति को जमीन के बदले आज के अनुसार बेहतर भविष्य दिया जाए, तो वह जमीन देने में पूरा सहयोग करेगा। हाँ, पूर्व के कुछ मामलों से लोगों में आक्रोश है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। मुझे ऐस नहीं लगता कि लैंड लूजर को जॉब सिक्योरिटी मिलने पर भूमि अधिग्रहण में किसी तरह की दिक्कत आ रही है। वर्ष 1992-93 में सीसीएल का अशोका व पिपरवार प्रोजेक्ट चालू हुआ था। यहाँ से कोयले का उत्पादन शुरू होते ही आस-पास के लोगों की जिंदगी बदल गई। कम्पनी को जमीन भी मिली। आज की तिथि में इन दोनों परियोजनाओं से प्रतिवर्ष 10-10 मिलियन टन कोयले का उत्पादन सम्भव हो पाता है।

इसके अलावा परेज, बिरसा, केदला व अन्य खदानों से उत्पादन चालू कराने में भूमि अधिग्रहण का मामला आड़े नहीं आया। इतना ही नहीं बिरसा क्षेत्र के आस-पास के लोग प्रोजेक्ट खुलने से इतने उत्साहित हैं कि ग्रामीण खुद से आकर पूछते हैं कि आगे क्या करना होगा। लोगों की सोच बदली है। लोग राज्य के विकास में योगदान देना चाहते हैं। जरूरत है कि जमीन मालिकों को विश्वास में लेने की। जमीन के बदले उचित सुविधा ऑन द स्पॉट देने की। कोल इंडिया मंत्रालय द्वारा तैयार भूमि अधिग्रहण विधेयक-2008 के लागू होने से भूमि मालिकों को मनचाहे तोहफे मिलेंगे। इससे खनन कम्पनियों को न सिर्फ भूमि मिलेगी, बल्कि ग्रामीणों को जॉब सिक्योरिटी भी मिलेगी।

इसके अलावा कम्पनी को आगे ले जाने में ग्रामीण मदद भी करेंगे। कोल रिजर्व में झारखंड का स्थान प्रथम है। इसके बाद दूसरा स्थान ओडीशा का है। झारखंड में ओडीशा जैसी स्थिति नहीं है। यहाँ लोगों के विरोध के कारण उत्पादन ठप हो जाता है। विरोध के चलते सम्बन्धित प्रोजेक्ट चालू नहीं हो पाते हैं। खनन कम्पनियों के लिये फॉरेस्ट क्लीयरेंस एक समस्या है। क्लीयरेंस के चलते न सिर्फ सरकार को बल्कि कम्पनियों को भी नुकसान हो रहा है। राज्य सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। इससे न सिर्फ सीसीएल, बल्कि अन्य खनन कम्पनियों के कई प्रोजेक्टों से उत्पादन चालू हो सकेगा। सीसीएल राज्य सरकार से सम्पर्क में हैं। खनन के क्षेत्र में मील का पत्थर स्थापित करने के लिये इसकी मंजूरी जरूरी है।

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