लोग क्या कहते हैं?

हमें न तो इस नहर से कोई फायदा है और न ही हमें इसके बारे में कोई जानकारी है। हमारी खेती में नहर का कोई योगदान नहीं है। सरकार के पटवन टैक्स को हम अपने खर्चे में गिन लेते हैं। जैसे खाद, बीज, डीजल पर खर्च है वैसे ही यह पटवन टैक्स भी है। कौन झमेला मोल लेगा, परची आती है जाकर पैसा जमा कर देते हैं। जितने का टैक्स बचायेंगे उससे ज्यादा का खर्च भाग-दौड़ और घूस-घास में चला जायेगा।

जब मुख्य नहर खस्ताहाल है तो बाकी जगह का क्या होता होगा उस पर एक नजर डालते हैं। मिश्री लाल सिंह (76), गा्रम नाथपुर, प्रखण्ड नरपतगंज, जि. अररिया-मुरलीगंज शाखा नहर के कमाण्ड क्षेत्र में इनका खेत पड़ता है। कहते हैं, “... खेती होती है मगर इस नहर से कहाँ होती है? 5 साल से पानी नहीं आया। हम तो रोपनी भी बोरिंग की मदद से करते हैं। 25 से ज्यादा बोरिंग है हमारे गांव में, बाँस बोरिंग भी है-तीन साल तक चल जाती है। आज से 10 साल पहले तक नहर में पानी आता था मगर वह तब भी खरीफ के मौसम में ही आता था। गेहूँ में तो खैर कभी नहीं आया। बगल में बुच्चा माइनर है जिसमें, क्या रबी और क्या खरीफ, पानी कभी आया ही नहीं। उप-शाखा नहर, माइनर, वितरणी सब बालू से पटी पड़ी है, कहाँ से पानी आयेगा? पहले हम लोग घेर-घार कर पानी रोक लेते थे, अब पानी हो तब तो घेरें। 75 रुपया एक एकड़ का लगता है सिंचाई का जो कि होती नहीं हैं। खेत पटे या न पटे, परची आ जाती है। पैसा इसलिए जमा कर देना पड़ता है कि पूरी गाँव के सामने बन्दूक के कुन्दे से मार कौन खायेगा? पैसा जाता है मगर इज्जत तो बची रहती है। हम लोगों ने कितनी बार सर्किल इन्सपेक्टर से कहा तो वह कहता है कि अमीन से कहिये। अमीन के पास जाते हैं तो कहता है कि ऊपर से आर्डर है, पैसा तो देना ही पड़ेगा। गरीब आदमी हैं, कहाँ तक लड़ेंगे? चुपचाप जमा कर देते हैं।’’

कुछ इसी तरह की बात बताते हैं ग्राम मझवा, पो. सरसी, जिला-पूर्णयाँ के श्यामानन्द गोस्वामी। उनके गाँव की नहर कुरसेला उप-नहर के बरकोना फाटक से निकलती है। इस नहर से पहले कभी आखि़री छोर तक सिंचाई हो जाया करती थी। 5-6 साल से बन्द है। अब जो कुछ सिंचाई होती है वह ‘इंजन’ से होती है। नहर है मगर या तो टूटी हुई है या जाम हो गई है और उसका मुहाना बन्द है, इसलिए पानी नहीं आता है। जिसका गाँव बड़ी नहर से लगा हुआ है शायद उसे पानी मिलता हो। ‘‘हमें न तो इस नहर से कोई फायदा है और न ही हमें इसके बारे में कोई जानकारी है। हमारी खेती में नहर का कोई योगदान नहीं है। सरकार के पटवन टैक्स को हम अपने खर्चे में गिन लेते हैं। जैसे खाद, बीज, डीजल पर खर्च है वैसे ही यह पटवन टैक्स भी है। कौन झमेला मोल लेगा, परची आती है जाकर पैसा जमा कर देते हैं। जितने का टैक्स बचायेंगे उससे ज्यादा का खर्च भाग-दौड़ और घूस-घास में चला जायेगा।’’

सिंचाई के टैक्स को लेकर किसानों को बड़ी तकलीफ है। न सिर्फ उन्हें न किये गये काम के एवज में पैसा जमा करना पड़ता है बल्कि रेवेन्यू कर्मचारी/अफसर और पुलिस की धौंस ऊपर से बर्दाश्त करनी पड़ती है। ऐसा ही किस्सा है रजनी बभनगामा गाँव का जो कि मधेपुरा जिले के बिहारी गंज प्रखण्ड में पड़ता है और जानकी नगर ब्रांच कैनाल के कमान क्षेत्र में आता है। गाँव के लोग बताते हैं कि ‘‘सिंचाई टैक्स के निर्धारण का काम सर्किल इन्सपेक्टर का है। यह काम वह अपने घर या दफ्तर में बैठ कर करता है, वहीं से वह हमारा खसरा और खतियान तय करता है। वहीं से वह अमीन को हिदायत देता है कि वह हमारी सिंचाई का रकबा तय करे। अमीन भी यह काम घर बैठ कर ही करता है। उसे यह मालूम है कि जब से सिंचाई शुरू हुई तब से अब तक का रकबा क्या है, उसी में वह अपनी मर्जी के मुताबिक रकबा भर देता है। इस बीच अगर जमीन बिक भी गई हो तो नोटिस पुराने मालिक के नाम पर ही जाता है क्योंकि अमीन या सर्किल इन्स्पेक्टर को इस बात का पता तब लगेगा जब जमीन का मालिक उसके पास शिकायत लेकर आयेगा। सरकारी कर्मचारी तो नवाब हैं उन्हें इन छोटी मोटी बातों से क्या मतलब है?’’

जहाँ किसानों की परेशानियों का कोई अन्त नहीं है वहाँ सरकार क्या करती है वह देखने लायक है, ‘‘...वर्ष 1991-92 के पूर्व जहाँ कर की वसूली निर्धारित लक्ष्य तक भी नहीं हो पाती थी, वहीं वर्ष 1991-92 से लगातार 1995-96 में अधिक वसूली का मापदण्ड स्थापित किया गया है जो राजस्व प्रशासन को अधिक प्रभावशाली बनाने का प्रतिफल है।’’ यानी राजस्व प्रशासन प्रभावशाली बनेगा तो किसान सरकार के बोगस बिलों का भुगतान करने पर मजबूर किये जायेंगे। जल संसाधन विभाग का सिंचाई शुल्क जमा करने की मुहिम किसी भी मायने में एमरजेन्सी के दौरान नसबन्दी कार्यक्रम चलाये जाने से कम नहीं है। दोनों ही मामलों में सरकार अपनी पीठ खुद थपथपाती रही है। जो सिंचाई शुल्क सरकार किसानों की छाती पर चढ़ कर वसूलती है उसकी लागत क्या है वह भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की 1996 (मार्च) की रिपोर्ट से पता लगता है। रिपेार्ट लिखती है कि, ‘‘...सिंचाई शुल्क का निर्धारण एवं संग्रह निदेशालय (राजस्व) को सुपुर्द किया गया था। निदेशालय में 18 प्रमण्डलों के संचालन के लिये 15 उप-समाहर्ता तथा 3,540 अन्य कर्मचारी कार्यरत थे। लेखा परीक्षा से यह पता चला कि 1991-92 से 1995-96 के दौरान इस निदेशालय द्वारा संग्रही सिंचाई शुल्क कुल जमा-योग बकाये 100.08 करोड़ रुपये के विरु( सिर्फ 39.23 करोड़ रुपये (अधिशेष 28.05 करोड़ रुपये तथा चालू 11.10 करोड़ रुपये) था। उसी समय के दौरान निदेशालय की स्थापना लागत 77.21 करोड़ रुपये थी।’’ यानी वसूल हुआ 39.23 करोड़ रुपया और सरकार के अमले पर खर्च हुआ 77.21 करोड़ रुपये। यह पैसा भी मिश्री लाल सिंह जैसे गरीब किसानों से जबरन वसूल किया गया। बड़े किसानों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके यह पैसा जमा नहीं किया। कोसी परियोजना में वसूली की बदहाली पर एक पुस्तक लिखी जा चुकी है जो अन्यत्र उपलब्ध है।

बात केवल टैक्स वसूली में खर्च हुये पैसे और उससे होने वाली आमदनी पर टिकी रह जाय तो भी गनीमत है यहाँ तो कोसी परियोजना (पूर्वी मुख्य नहर) जैसे इंजीनयरिंग प्रकल्प में वास्तविक काम पर हुये खर्च और सरकारी अमले पर हुये खर्च की जो बदनुमा तस्वीर है, वह भी सामने है। देखें तालिका-5.2

तालिका-5.2


पूर्वी कोसी नहर पर विगत कुछ वर्षों में हुआ खर्च

वर्ष

वास्तविक काम पर खर्च

(लाख रुपये)

स्थापना खर्च

(लाख रुपये)

1991-92

0

593.06

1992-93

0

749.29

1993-94

0

986.84

1994-95

0

883.32

1995-96

0

1085.44



जाहिर है जहाँ किसान बन्दूक के कुन्दों की मार खा रहे थे और उनके बैल खोले जा रहे थे वहाँ पूर्वी कोसी मुख्य नहर से सम्बद्ध इंजीनियर, अफसर और कर्मचारी घर बैठे तनख़्वाह पा रहे थे क्योंकि काम पर तो कथित वर्षों में एक भी पैसा खर्च नहीं हुआ।

अकर्मण्यता और बुरे नियोजन का एक अजीब सम्मिश्रण है कोसी पूर्वी मुख्य नहर। संसाधनों की कमी इसके दुःप्रभाव को मजबूत करती है। इस नहर के पूरे कमाण्ड क्षेत्र में कहीं भी रुक जाइये तो कोई न कोई किसान अपनी बरबादी की दास्तान सुनाने को मिल जायेगा। सहरसा, सुपौल मार्ग पर सुपौल से लगभग 8 किलोमीटर दक्षिण थलहा के पास सहरसा उप-शाखा नहर की एक वितरणी गुजरती है। इस नहर में सिर्फ भादों महीनें में पानी आता है, बाकी सारे साल नहर सूखी। पानी जब चाहिये तो पानी नदारद और जब पूरा इलाका बाढ़ में डूबा हो तो नहर से जितना चाहिये उतना पानी निकाल लीजिये।

इसी तरह सुपौल से भेलाही तक नहर के दाहिनी ओर मरिचा चौर की जमीन पड़ती है। करीबन 280 हेक्टेयर का रकबा इस चौर का होगा। बरसात के मौसम में सहरसा-सुपौल मार्ग और नहर के बीच चार फीट पानी लग जाता है जिसकी वजह से मेन रोड से लेकर मरिचा तक का धान खत्म हो जाता है और रबी की सम्भावना भी नहीं रहती। जबसे लोगों को गरमा धान के बारे में जानकारी हुई तब से कुछ गरमा धान होने लगा है- ‘चिड़िया को खिलाने भर’ वह भी तब अगर आषाढ़ में पानी न लगे वरना सब डूब जायेगा। नहर बनने के पहले धान, गेहूँ, मूंगफली, मूंग और मकई आदि सब कुछ पैदा होता था। मगर नहर ने चौर का निर्माण कर दिया। इन गाँवों के लोगों ने कितने छोटे-बड़े नेताओं के यहाँ अदब से सिर नहीं झुकाया? पर किसान की कौन सुनता है? एक बार एक्जीक्यूटिव इंजीनियर किसी तरह पसीजे तो एक नाला पानी की निकासी के लिये बनवा दिया, कुछ दिनों में वह भी जाम होकर पट गया। उसके बाद सब शान्ति है।

यही स्थिति मधेपुरा ब्रान्च कैनाल में भी है। इस नहर में भी पानी नहीं आता, परची आती है। गाँव वालों का मानना है कि कुछ साल पहले तक मधेपुरा प्रखण्ड के पिठाही, बिरनियाँ चकला, सिरपुर और गढ़िया आदि गाँवों के उत्तर में या तो किसान जल-जमाव के चलते नहर काट देते होंगे या नहर छेंक कर पानी ले लेते होगें जिसकी वजह से यहाँ पानी नहीं आता। उनकी यह भी शिकायत है कि नहर अगर कहीं टूट जाती है तो कर्मचारी जा कर खुद उसे और ज्यादा कटवा देता है जिससे मरम्मत में उसकी आमदनी हो सके।

सरकारी लोग अपनी रिपोर्टों में चाहे कुछ लिखते हों क्योंकि उन्हें कोई देखने नहीं जाता मगर नहरों की वस्तुस्थिति यही है और यह स्थिति किसी भी मापदण्ड से सन्तोषजनक नहीं कही जा सकती।

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Post By: tridmin
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