अभी लरजाघाट के पास बागमती (करेह) पर एक पुल बना है जिसके चालू हो जाने के बाद हमारा संपर्क तो बेहतर होगा पर इस इलाके से पानी की निकासी पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। तटबंध में जगह-जगह स्लुइस गेट लगे हुए हैं पर उनमें से एक भी काम नहीं करता। विभाग तक दौड़ते-दौड़ते हम लोग थक जाते हैं, कुछ नहीं होता।
यहाँ तक तो हुई इंजीनियरिंग और राजनीति की बात और अब चलते हैं उन लोगों के पास जो जल-संसाधन विभाग की इस कीर्ति का फल भोग रहे हैं। जिस जमीन पर लाइलाज तरीके से पानी फैलेगा वहाँ खेती पर जिंदगी बसर करने वालों का क्या होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। बेरोजगारी की मार मालिक और मजदूर दोनों पर पड़ती है। मालिक शायद यह सदमा बर्दाश्त कर ले क्योंकि उसकी जीविका के अन्य वैकल्पिक श्रोत भी हो सकते हैं। मुमकिन है कि घर में कोई नौकरी करने वाला हो मगर गरीब परिवारों के लोग तो हर तरह से मजबूर हैं।ग्राम पैकड़ा, पंचायत सिंधिया-3, प्रखंड सिंधिया, जिला समस्तीपुर के मन्टुन सादा बताते हैं, ‘‘...बाढ़ यहाँ हर साल आती है। पहले बागमती का पानी आता है फिर कमला और कोसी का पानी आता है। हम लोग घर-द्वार छोड़ कर दुर्गा स्थान की ओर भाग जाते हैं। 1987 जैसी बाढ़ आ जाए तो जानवरों को खूंटे से खोल कर छोड़ देना पड़ता है। कोई भी पहले अपनी जान बचायेगा फिर जानवरों के बारे में सोचेगा। हमारा गाँव बागमती के बायें किनारे पर पड़ता है और हमारे लिए अच्छा यही होता है कि नदी का तटबंध दाहिने किनारे पर टूट जाए तो सारा पानी उस तरफ से निकल जायेगा और हमारी परेशानियाँ खतम तो नहीं होंगी क्योंकि कमला और कोसी का पानी तो रहता ही है मगर थोड़ी राहत जरूर हो जायेगी। 1987 में तो यह तटबंध दोनों तरफ टूटा था। उसके पहले तक ठीक ही चलता था, एक बार 1974 में जरूर बहुत पानी आया था। समाधान हम क्या सोचेंगे? कोई सुनता है क्या? एम.एल.ए. और एम.पी. पाँच साल में सिर्फ चार दिन दिखाई पड़ते हैं, पाँचवें दिन नहीं। यहाँ से दिल्ली तक एक ही हालत है।हमलोग तीन महीनें तो निश्चित रूप से पानी में डूबे रहते हैं। 2004 और 2007 में यह मियाद 6 महीनें तक पहुँच गयी थी। यह पानी ज्यादातर कोसी-कमला का था। खेती बटाई पर भी करते हैं और ठेके पर भी लेते हैं। ठेके पर 20 किलो अनाज प्रति कट्ठा देना पड़ता है (एक एकड़ = 22 कट्ठा)। जब तक हम 40 किलो नहीं उपजायेंगे तब तक मालिक को 20 किलो कैसे देंगे? खर्चा भी तो सारा का सारा हमें ही देना पड़ता है-पानी, बीज, खाद, दवाई सब का खर्च। जितना उगाते हैं उससे साल भर का खर्च भी नहीं चल पाता है, बाकी समय या तो महाजन का भरोसा होता है या फिर दिल्ली, पंजाब में मजदूरी काम आती है। कभी-कभी गाय-भैंस लेते हैं मालिक की तो उससे गाड़ी खिंचती है। दो से तीन महीना घोंघे से भोजन चल जाता है। नरेगा में काम अब तक तो नहीं मिला है। जॉब कार्ड बना हुआ है पर काम नहीं मिलता। एक बार पोखर में काम लगा था, उसके बाद से बंद।
स्थानीय मजदूरी की दर तीस रुपया रोज है, इतने कम पैसे पर कौन काम करेगा? जहाँ भी ज्यादा मिलता है, चले जाते हैं। पचास रुपये तक भी मिल जाता है तो काम कर लेते हैं। इसमें खाना शामिल नहीं होता। सरकार का तो कोई काम यहाँ चलता ही नहीं है। दिल्ली-पंजाब में, खेतों में काम मिल जाता है-वहाँ 150-200 रुपये रोज का काम मिल जाता है। दिल्ली में रिक्शा या ठेला चलाते हैं। पहले झुग्गी-झोपड़ी बना कर रह लेते थे, अब वह भी मुमकिन नहीं है। किराये पर खोली लेनी पड़ती है। तीन आदमी मिल कर 1000 से लेकर 2000 रुपये तक की खोली ले लेते हैं। पानी बिजली का खर्च ऊपर से है। रात में मालिक आकर चप्पलें गिनता है कि कोई बाहरी आदमी तो नहीं रह रहा है। इन किराये के मकानों में एक दिन से ज्यादा अपने यहाँ हम किसी मेहमान को नहीं टिका सकते। परिवार वाले को 2500 रुपया मासिक से कम में खोली नहीं मिलती। शौचालय सार्वजनिक है। पंजाब में भी खेतिहर मजदूरों को मालिक परिवार नहीं रखने देते। वहाँ आम तौर पर मजदूर ट्यूब वेल के पास बनी झोपडि़यों में रहते हैं। खाना-पीना वहीं बनता है, पंजाबी मालिक बड़े प्यार से रखता है-लस्सी भी पिलाता है। चाय-पानी मालिक के जिम्मे। आमतौर पर ठेकाबन्दी पर काम होता है-रोपनी से लेकर कटाई तक। पैसा मिलने में कोई समस्या नहीं है। दिल्ली में 24 घंटे के लिए रिक्शा 30 रुपये के किराये में मिल जाता है। 50-60 रुपया अपने ऊपर भी खर्च हो जाता है, समझिये 100 रुपये रोज का खर्च है। कुछ लोगों ने अपने रिक्शे भी खरीद लिये हैं। पार्क में या फुटपाथ पर खड़ा कर देते हैं। रिक्शा चोरी होने की घटनाएं होती रहती हैं। नशाखोर लड़के अक्सर यह काम करते हैं। कबाड़ी के यहाँ बेच देने पर भी उन्हें हजार-दो हजार की आमदनी हो जाती है और उनके कुछ दिन के लिए खाने-पीने का इन्तजाम हो जाता होगा।
यहाँ से दिल्ली या पंजाब जाने में एक हजार रुपये तक खर्च होता है। छः महीने से पहले वापस चले आने में फायदा नहीं है। जाने के लिए महाजन से पैसा ले लेते हैं। ब्याज की दर हमारे यहाँ तय नहीं है। 3 से 10 रुपया सैकड़ा प्रति माह की सीमा है। मालिक कितना ब्याज लेगा वही तय करता है। दिल्ली में अगर अच्छा काम मिल जाए तो पैसा जल्दी लौटाया जा सकता है। इस तरह के लेन-देन में लिखा-पढ़ी नहीं होती। सब विश्वास पर चलता है। अभी मोबाइल से भी हिसाब किताब हो जाता है। आम तौर पर तीन रुपया सैकड़ा के हिसाब से दिल्ली का दलाल यहाँ घर पर पैसे का भुगतान कर देता है। यानी वहाँ 1000 रुपया उसको दिया तो उसका आदमी यहाँ परिवार वालों को 970 रुपया भुगतान कर देगा।
अभी हमारे गाँव का एक लड़का था हरे राम। रिक्शा चलाता था, उसको फ्रिज ले जाने के लिए एक आदमी ने तय किया। नशा खिला कर उसका पैसा, मोबाइल और रिक्शा सब छीन लिया और सड़क पर छोड़ दिया। पुलिस उसे अस्पताल ले गयी। दो दिन बाद जब उसे होश आया तब उसे पता लगा कि वह लुट चुका था।
मैं मियाँ-बीवी हूँ यहाँ। एक लड़का है। उसके 5 बच्चे हैं। वह अपना संभालेगा या हमें देखेगा? हमको तो काम करना ही पड़ता है। कभी मालिक की गाय-भैंस पालेंगे तो कभी ठेके पर खेती करेंगे। यहाँ जो कुछ भी दिखायी पड़ता है, सब मालिक का है, हमारा कुछ भी नहीं। सिर्फ चापाकल (हैण्ड पम्प) सरकारी है।’’
मन्टुन सादा के कथन से इस इलाके की जीवन विधा का थोड़ा अंदाजा लगता है। बिना परदेश गए परिवार को चलाये रखने की सुविधा और हुनर जिसमें नहीं है वह तो इस तरह के विकास का शिकार हो ही गया। शिकार इसलिए कि इस इलाके की स्थिति पहले ऐसी नहीं थी।
गाँव माहें खैरा, प्रखंड सिंधिया, जिला समस्तीपुर, करेह के बायें किनारे पर पड़ता है। इस गाँव के विमल कुमार सिंह बताते हैं, ‘‘...2000 आबादी वाले इस गाँव में सही ढंग से पानी बरसा तब तो धान हो जाता है मगर बाढ़ आ जाए तो धान गया। बाढ़ लेकिन अक्सर आती है। बाढ़ हो या न भी हो, हथिया का पानी चाहिये वरना सिंचाई करनी पड़ेगी और वह बोरिंग से होती है। सरकार की यहाँ कोई व्यवस्था नहीं है। 80 से 90 रुपये प्रति घंटा बोरिंग से खेत सींचने में लगता है। एक बार एक एकड़ धान सींचने में कम से कम सात घंटा लगता है यानी 560 रुपये एक बार की सिंचाई में गए। अगर पानी ठीक से बरसता गया तो सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती मगर ऐसा बहुत कम होता है।
अगर सब कुछ ठीक चले और पूसा के धान का बीज समय से मिल जाए तो तीन मन का कट्ठा धान होता है यानी लगभग 65-70 मन धान एक एकड़ में हो जायेगा। यह तब अगर सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हों, मगर ऐसा कभी-कभी ही होता है। रब्बी में दलहन-जैसे मसूर होती है, मटर होती है। चना और अरहर पहले होती थी अब नहीं होती। अपनी जरूरत भर सब्जी बहुत से लोग उगा लेते हैं। कुछ लोग बेच भी लेते हैं। गरमा फसल नहीं होती। गन्ना हमारे यहाँ पहले भी नहीं होता था, अब भी नहीं होता। मोटा अनाज कोदो, सावाँ, मड़ुआ पहले खूब होता था पर अब लोग नहीं करते। मजदूर नहीं मिलते अब। सब दिल्ली, गुवाहाटी चले गए। बागमती नदी का तटबंध टूटने पर उसका पानी यहाँ आता है। यह तटबंध बीच-बीच में टूटता रहता है। 2004 में थलवारा में टूट गया था। 2007 में कोसी का पानी आ गया था। वैसे भी कोसी का पानी हर साल यहाँ आ ही जाता है। यह पानी गाँव में भी घुसता है। तब हम सारी दुनियाँ से कट जाते हैं। पूरे गाँव का बरसात का 3 महीना करेह के पूर्वी तटबंध पर ही कटता है। जिंदगी पहले चलती थी अब घिसटती है।
कोल्हुआ पुल के नीचे करेह तटबंध के दाहिने किनारे पर समस्तीपुर जिले के सिंघिया प्रखंड का कुण्डल गाँव पड़ता है। इस गाँव के अधिवक्ता गंगेश प्रसाद सिंह का अनुभव और आक्रोश थोड़ा अलग किस्म का है। वे कहते हैं, ‘‘...2007 में हमारे यहाँ पानी लगभग तीन महीनों तक टिका रहा । आम के सारे पेड़ सूख गए। शीशम और महुआ भी चला गया। पहले धान और मकई की मिश्रित खेती करने का रिवाज था और यह दोनों फसलें खूब होती थीं। महुआ और खेसारी प्रचुर मात्रा में पैदा होती थी। अरहर, उड़द और मसूर होती थी। गन्ने की जबर्दस्त फसल होती थी और बांस जितना मोटा गन्ना होता था यहां। पास में हसनपुर में चीनी मिल थी, वहीं बैलगाड़ी से ढो-ढो कर पहुँचाने जाया करता था। तटबंध बनने से सबसे बुरी मार गन्ने पर पड़ी है। यह चीनी मिल भी पिछले तीन-चार साल से बंद थी और मिल मालिक इसे उठा कर कहीं और ले जाना चाहते थे। स्थानीय प्रतिरोध के कारण चीनी मिल तो बच गयी मगर अब मिल चलाने भर गन्ना हो तब तो? यहां के किसान कभी गन्ना बेच कर लखपति हो जाते थे, वे सब के सब अब दरिद्र हो गए हैं। यहां तटबंध पश्चिम से पूरब की तरफ जाता है और राजघाट से हसनपुर को जोड़ने वाली सड़क उत्तर-दक्षिण दिशा में जाती है। बीच में फंसे हैं हमारे जैसे गांव जिनके पानी की निकासी का कोई रास्ता ही नहीं बचता। यह अटका हुआ पानी कभी-कभी राजघाट-हसनपुर सड़क को पार करने की कोशिश करता है और उसे अक्सर तोड़ देता है।
अभी लरजाघाट के पास बागमती (करेह) पर एक पुल बना है जिसके चालू हो जाने के बाद हमारा संपर्क तो बेहतर होगा पर इस इलाके से पानी की निकासी पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। तटबंध में जगह-जगह स्लुइस गेट लगे हुए हैं पर उनमें से एक भी काम नहीं करता। विभाग तक दौड़ते-दौड़ते हम लोग थक जाते हैं, कुछ नहीं होता। तटबंध के अंदर थोड़ी बहुत सिंचाई पम्प के माध्यम से हो जाती है। बाहर बोरिंग का सहारा है और वह कितनी मंहगी है सभी जानते हैं। मैं कुछ वर्षों तक असम में रहा था और एक ठेकेदार के लड़के को ट्यूशन पढ़ाता था। वहां भी नदियों पर तटबंध बने हुए हैं और वह अक्सर टूटते रहते हैं। मैंने एक बार ठेकेदार से पूछा कि आप लोग तटबंध को मजबूती से एक बार बांध क्यों नहीं देते कि कुछ दिन तक चले। उसका कहना था ‘‘...एक बार ठीक से बांध देने पर कुछ साल चलेगा तो जरूर, पर इस बीच क्या हम लोग सारंगी बजायेंगे? हमको भी तो काम और पैसा चाहिये।’’ ऐसे व्यवसायी का अगर राजनैतिक पार्टी से सम्बंध हो जाए और यह होता भी है, तो उस पर किसका नियंत्रण हो पायेगा? अब इलाके के सारे रंगदार ठेकेदार हो गए हैं। कौन जायेगा उनसे उलझने?’’
तटबंधों के टूटते रहने का इस इलाके में एक अलग और लम्बा सिलसिला है और शायद ही कोई ऐसा साल गुजरता हो जिसमें इस तरह की घटना न होती हो। 1987 के बाद से इस तरह के हादसों में एकाएक वृद्धि हुई है जिसकी शुरुआत उस साल महेशवारा में तटबंध के टूटने से हुई थी। फिर तो यह तटबंध न जाने कितनी जगह टूटा। 1998 में कोलहट्टा गाँव के पास तटबंध टूटा था जिसके बारे में कहा जाता है कि मछली का व्यवसाय करने वाले दो गुटों के आपसी संघर्ष में इसे काट दिया गया। 2002 में कुण्डल और महेशवारा, 2004 में महदेवा, परसा और भटवन, 2006 में काले ढाला और बसही, 2007 में एक बार फिर काले ढाला और बसही में तटबंध टूटा। तटबंध टूटने पर क्या होता है उसके बारे में बताते हैं ग्राम कुण्डल, प्रखंड सिंधिया, जिला समस्तीपुर के ही बबलू सिंह, ‘‘...1987 में नवीं कक्षा में पढ़ता था। गाँव के ज्यादातर घर मिट्टी के थे जो कि बैठ गए। हमारा मकान पक्का था सो बच गया मगर धान सुखाया जा रहा था, वह सब का सब बह गया। पानी बढ़ा तो हम लोग भाग कर तटबंध पर गए और वहाँ पॉलीथीन से झोपड़ी बना कर रहने लगे। आंधी आयी तो पॉलीथीन भी उड़ गया।
अब सारे लोग खुले आसमान के नीचे आंधी-पानी के बीच। वहीं रहना, वहीं खाना-पीना और वहीं टट्टी-पेशाब। औरतों की क्या हालत हुई होगी उसकी कल्पना ही कारुणिक है। सभी बेपर्दा और सारे बच्चे नंग-धड़ंग। ज़रा सी चूक हो तो सीधे पानी में। उस बार 11 अगस्त से लेकर 19 अगस्त तक लगातार पानी बरसता रह गया था। हेलीकॉप्टर से खाने का सामान गिराया जाता था। उसमें से आधा तो पानी में ही गिरता था। एक दिन मेरे भी हाथ पांच पैकेट आये जिनमें तीन पैकेट में हरेक में 3 किलो चूड़ा, 2 किलो चना, 250 ग्राम चीनी, 250 ग्राम नमक, आधा किलो गुड़ और कुछ मिर्च रखी हुई थी। बाकी के दो पैकेटों में पूड़ी-सब्जी थी। दूसरों को भोजन देने वाले परिवार के लिए खुद भोजन की थैली लपकना हमारे लिए विचित्र अनुभव था। परिवार के बड़े लोग उस समय बहुत तनाव में रहते थे।’’
बाढ़ की मार और मिट्टी का घर-इन दोनों के संयोग से किसी की मानसिक स्थिति क्या हो जाती होगी उसके बारे में ग्राम करांची, प्रखंड बिथान, जिला समस्तीपुर के राम सुधारी यादव कहते हैं, ‘‘...1987 में मेरा घर यहाँ मिट्टी का था, नये घर के लिए नींव दे रखी थी। पुराने घर में 100 मन के आस-पास अनाज था। एकाएक पानी आ गया, बारिश खूब हो रही थी और ऊपर भी बांध टूटा था उसका भी जोर था। बाढ़ की वजह से मेरी बेटियाँ भी अपने-अपने ससुराल से चली आईं। अब एक तरफ तो अनाज को बचा कर रखने की फिक्र और फिर इन सबको रखेंगे कहाँ उसकी चिंता। मिट्टी का घर था उसको गिरते देर नहीं लगती-एक ही झटके में सब दब कर मर जायेंगे। गनीमत थी कि नये घर की नींव पड़ चुकी थी। वहीं पॉलीथीन की झोपड़ी बनी। एक हैण्डपम्प था, उसका ऊपरी हिस्सा अभी भी पानी के ऊपर था। जलावन हमारा, बांध पर था और सुरक्षित था। शुरू-शुरू में दो-तीन दिन तो हम लोग भी बांध पर ही जाकर रहे पर जब पानी का बढ़ना बंद हो गया तब इधर गांव में आ गए। अफरा-तफरी मची हुई थी। अच्छे-अच्छे घरों के औरत-मर्द बदहवास इधर से उधर भागते थे। खाना नहीं था। भाग्यवश हमारा अनाज और जलावन दोनों बचा हुआ था। पत्नी से हमने कहा कि रोज कुछ ज्यादा रोटियाँ बना कर रखो, न जाने कब कौन जरूरतमन्द आ जाए। वैसे भी जो बेसहारा नजर आता था उसे हम लोग अपने घर बुला कर कुछ खाना खिला देते थे। 6 इन्च पानी और बढ़ गया होता तो हमारे घर में भी घुस गया होता और अनाज सड़ जाता। तब तो हम लोग भी बेसहारा ही हो गए होते। बांध टूटने का भी अजीब किस्सा है। हमारे गांव में 10 फीट पानी जमा रहता है, फिर भी बांध नहीं टूटता है। मगर आस-पास की सूनी जगह पर कम पानी होने पर भी टूट जाता है। दरअसल यह काम नेताओं और ठेकेदारों का है। रिलीफ से लेकर बांध की मरम्मत तक कमाई ही कमाई है। यहाँ गांव के हर घर में दो चार बांस रहता ही है।
खाद-बीज के बोरे होते ही हैं। इन सब की मदद से हम लोग मिल कर गांव में बांध को टूटने से बचा लेते हैं। हो सकता है इन सबका भी बिल बना कर विभाग वाले पैसा बना लेते हों। जितनी हमारी मेहनत उनको उतना ही फायदा हो जाता है। खेती के अलावा मवेशी पालना यहाँ का एक मुख्य व्यवसाय है। मवेशी पालने के लिए घास और हरा चारा चाहिये जो कि तटबंध के अंदर के खेतों और जमीन से मिल जाता है। चारे के लिए तो लोग फसल की चोरी तक कर लेते हैं। इधर खूब प्रचार है कि क्रिमिनल इस इलाके में भर गए हैं। यह आंशिक रूप से ही सच है। मकई के खेत के आस-पास देशी शराब के कुछ पाउच फिंकवा दीजिये, खेत वाला समझेगा कि वहाँ क्रिमिनल आकर रहते हैं। वह मारे डर के उधर जायेगा ही नहीं। उसकी मकई काट कर लोग जानवरों को खिला देंगे, नाम क्रिमिनल का लग जायेगा। पुलिस तमाशा देखती है। प्रशासन खामोश रहता है। जनता भी यह सब चुपचाप बर्दाशत करती है। यातायात शून्य है। हमारे यहाँ एक नेता जी आये थे वोट मांगने, हमने उनसे कहा कि आप यहाँ से जीप से प्रखंड कार्यालय तक जाकर दिखा दीजिये, हम आपको पूरे गाँव का वोट दिलवा देंगे। वह बुरा मान गए पर किया कुछ नहीं। अपनी तकलीफ आपको कहाँ तक बतायें?
ग्राम फुहिया (पंचायत सलहा चन्दन) प्रखंड बिथान, जिला समस्तीपुर के किसान सुशील ठाकुर बताते हैं, ‘‘...अपने बचपन में मैंने अपने खेतों में धान उगते देखा था मगर जब गाँव पानी से घिरना शुरू हुआ तब धान खतम हो गया। बाढ़ पूरी तरह उतर जाने पर जो जमीन सूखी निकल आयी, अब उस पर मक्का उगाना शुरू कर दिया है। यह सुविधा उन्हीं को उपलब्ध है जिनकी जमीन से पानी हट जाता है। जहाँ पानी नहीं हटता उनका तो भगवान ही मालिक है। जितना मक्का मेरे खेत में होता है उससे छः महीने तक का भोजन चल जाता है। बाकी समय के लिए बाहर पर निर्भर रहना पड़ता है। मैं खुद पंजाब के अनाज मंडी में मुंशी का काम करता था, किसानों से अनाज लेकर सरकार के खरीद केन्द्रों तक पहुँचाना मेरा काम था। बाद में कुछ दिन डाबर के साथ काम किया। डिस्ट्रीब्यूटर से माल ले कर दुकान वालों को सप्लाई किया। कुछ समय रोटोमैक में इसी तरह का काम किया मगर जब बाबा बीमार पड़ गए तो वापस आना पड़ गया। 2004 से 2006 के बीच बिहार सरकार की लोक शिक्षक योजना में काम किया। चार साल से घर बैठे हैं क्योंकि वह काम भी खतम हो गया। अब जीविका के लिए मक्का उगाने के अलावा कुछ और करना पड़ेगा।’’ भूगोल में स्नातक सुशील ठाकुर को यह पता नहीं है कि सरकार का कार्यक्रम कमला और बागमती के तटबंध को बढ़ा कर उनके गाँव फुहिया में मिलाने का है। वे कहते हैं कि अगर ऐसा हो गया तो पानी जो छः महीनें में निकल जाता है वह यहीं रह जायेगा।
Path Alias
/articles/laoga-kayaa-kahatae-haain-0