पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट ने अपने आप को मखौल का सामान 1956 की बाढ़ के समय ही बना लिया था, यह किसी के दिमाग में घुसता ही नहीं था। सवाल इस बात का है कि 1954 में ही ललित नारायण मिश्र जब तटबन्धों के बीच कोसी के लेवेल के चार इंच ही बढ़ने की भविष्यवाणी कर चुके थे तो पूना की प्रयोगशाला के निर्णय की प्रतीक्षा किस बात की हो रही थी?
भारत सेवक समाज के कार्यकर्ताओं की एक मीटिंग घोघरडीहा में 11 जून 1956 को हुईं जिसमें प्रस्ताव किया गया कि, “...यह सम्मेलन भारत तथा बिहार सरकार का ध्यान कोसी के दोनों तटबन्धों के बीच नदी की ओर पड़ने वाले लोगों की दुःखद स्थिति की ओर आकृष्ट करता है। कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के अन्तर्गत करहारा, लौकही, धनछिया, बगेवा, अलोला, हटनी, निघमा, शत्रुपट्टी, धाबघाट, सहरवा, नौआबाखर (फुलपरास थाना) और बिशुनपुर, तरडीहा, सिकरिया, महिसाम और मटरस गाँवों की दुःस्थिति के आधार पर जो कुछ अनुभव हुआ है उससे पता चलता है कि तटबन्ध से एक दो मील तक की दूरी पर पड़ने वाले लोगों की तटबन्ध के परिणाम स्वरूप दुःस्थिति अनिवार्य है। ऐसे क्षेत्र समय से पहले जलमग्न होंगे और उनकी फसलें बरबाद हो जायेंगी, उनका भविष्य भी अंधकारमय किया गया है। उन्हें कोसी से छुटकारा पाने की कोई आशा नहीं है।”सभा ने यह भी मांग की कि जहाँ तक सम्भव हो सके सारे गाँवों की रिंग बांध बना कर रक्षा की जाये, बाढ़ पीड़ितों का पुनर्वास किया जाय, इनके लिए रोजगार के साधन मुहैया करने का इंतजाम किया जाय, और इन लोगों की लगान और कर्जों की माफी के लिए प्रमाणपत्र जारी किये जायें।
मजे की बात थी कि इस मांग पत्र का प्रस्ताव करने वाले ललित नारायण मिश्र ही थे जिन्होंने खुद 2 दिसम्बर 1954 को सार्वजनिक रूप से कहा था कि पुनर्वास का मसला कोई खास गंभीर नहीं है क्योंकि तटबन्धों के अन्दर बाढ़ का लेवल केवल दस सेन्टीमीटर (चार इंच) के आस-पास ही बढ़ेगा। इस सभा में प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में रसिक लाल यादव भी थे। हालत यह थी कि एक ओर लोग पुनर्वास की गुहार लगा रहे थे और दूसरी ओर अधिकारी बार-बार पूना प्रयोगशाला के विस्तृत नतीजों का इन्तजार करने का वास्ता दे रहे थे। पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट ने अपने आप को मखौल का सामान 1956 की बाढ़ के समय ही बना लिया था, यह किसी के दिमाग में घुसता ही नहीं था। सवाल इस बात का है कि 1954 में ही ललित नारायण मिश्र जब तटबन्धों के बीच कोसी के लेवेल के चार इंच ही बढ़ने की भविष्यवाणी कर चुके थे तो पूना की प्रयोगशाला के निर्णय की प्रतीक्षा किस बात की हो रही थी?
टी. पी. सिंह, प्रशासक-कोसी प्रोजेक्ट, ने 11 जून 1956 को प्रेस से बातचीत करते हुये कहा कि तटबन्धों के निर्माण के कारण सहरसा जिले में बहुत सी जमीन अब बाढ़ से सुरक्षित हो गई है। वह इलाका जो पहले कभी समुद्र की तरह दिखाई पड़ता था अब वहाँ लहलहाते खेत हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि जो लोग तटबन्धों के बीच फंस गये हैं, उन्हें बाढ़ से बचा पाना नामुमकिन है और उन्हें संरक्षित स्थानों पर पहुँचाने की कोशिशें जारी हैं।
वह रिलीफ कहाँ है जिसका वायदा किया गया था?
जहाँ तटबन्धों के बीच फंसे लोगों के प्रति सरकार का यह रुख था वहीं तटबन्धों के बीच की जामीनी हकीकत एकदम अलग थी। जानकी नन्दन सिंह ने बिहार विधान सभा को बताया कि, ‘...मैंने नाव पर उन इलाकों का दौरा किया और जो दर्दनाक हालत वहाँ की देखी उसे देख कर मुझे विश्वास हुआ कि पाषाण से पाषाण हृदय वाला आदमी भी दहल सकता है। पेशाब-पाखाना तक जाने के लिए कहीं भी सूखी जमीन नहीं है और न कोई फसल ही वहाँ बची है, यहाँ तक कि लोग मृत्यु के मुंह में जाने के लिए तैयार हैं। रिलीफ देकर किसी तरह उनकी मृत्यु को रोका जा सकता था तो कई दिनों से यह भी बन्द कर दिया गया है। अब आप समझ सकते हैं कि उनकी क्या हालत हो रही होगी। सहरसा और दरभंगा के लोगों ने मंत्री के पास दरख्वास्त दी लेकिन वह भी कहते हैं कि रिलीफ के लिए अब पैसे नहीं रह गये हैं। आप कहते हैं कि यह वेलपफेयर स्टेट है और दूसरी तरफ हजारों की तादाद में लोग भूख से तड़प रहे हैं और मृत्यु के मुंह में जाने के लिए तैयार हैं। अफसोस कि ऐसे लोगों के लिए आप कहते हैं कि पैसे नहीं है तो फिर सरकार किस लिए है?”
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