लकड़ी के बाँध से रोका पहाड़ी का पानी

wood dam
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कहते हैं जहाँ चाह, वहाँ राह इस बात को चरितार्थ किया है देवास में पानी-मिट्टी बचाने की मुहिम में लगे लोगों ने। उन्होंने यहाँ करीब सवा दो सौ फीट ऊँची पहाड़ी को अपने पुराने अस्तित्व में लाने की कोशिशों में जल संरचनाओं के जरिये ऐसे काम किये हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम आज सबके सामने हैं। यहाँ लकड़ियों, बाँस और चारकोल के ड्रम से इतनी लुभावनी संरचनाएँ बनाई है कि इससे पहाड़ी से हर साल बारिश में व्यर्थ बह जाने वाला हजारों गैलन पानी और मिट्टी तो थमी ही, इसका प्राकृतिक सौन्दर्य भी देखने लायक बन गया है।

मध्यप्रदेश में देवास शहर की पहचान यहाँ की माता टेकरी से है। पूरा शहर इस टेकरी के आस-पास बसा है। समुद्र सतह से करीब 2044 फीट ऊँचाई पर बसी यह टेकरी शहर आने वालों के लिए एक अदद आकर्षण का प्रतीक है। लोग पैदल टेकरी चढ़कर इसके प्राकृतिक सौन्दर्य का लुत्फ़ लेते हैं। बीते कुछ सालों में पानी की कमी के चलते यहाँ के पेड़-पौधे सूखने लगे इससे प्राकृतिक सौन्दर्य तो कम हुआ ही, टेकरी से बारिश में पानी के तेज बहाव से मिट्टी और उसके साथ पत्थर भी तेजी से बहने लगे। धीरे–धीरे टेकरी का क्षरण होना शुरू हो गया। टेकरी पर दिनो-दिन अतिक्रमण बढने लगा और यहाँ के पेड़ भी तेजी से कटने लगे। धीरे–धीरे टेकरी वीरान दिखने लगी। लोग ऊपर और ऊपर कच्चे–पक्के मकान बनाने लगे। हालात इतने बिगड़ने लगे कि प्रशासन के सामने टेकरी का अस्तित्व बचाने का ही संकट खड़ा हो गया। कुछ लोगों की राय पर प्रशासन ने लुढकते हुए पत्थरों को बचाने के लिए लोहे की जालियाँ लगवाई पर इससे कुछ नहीं हुआ। पत्थर नीचे नहीं आते पर क्षरण तो जारी ही रहा। आखिरकार प्रशासन ने कुछ पानी–मिट्टी बचाने वाले लोगों के साथ मिलकर इसके मूल कारण की तह में जाने का फैसला किया। पता लगा कि यह सब बारिश का पानी नहीं सहेजने और उसके अनियोजित बहाव की वजह से ही हो रहा है।

इसे सुधारने के लिए अब यहाँ की भौगोलिक और भूगर्भीय स्थितियों के मुताबिक़ तमाम तरह के जतन किये जा रहे हैं। टेकरी से हर साल बह जाने वाले हजारों गैलन पानी को सहेजने के लिए अब पहाड़ी क्षेत्र में जगह–जगह जल संरचनाएँ बनाई जा रही है। इस बारिश से इसमें से कई संरचनाओं ने तो काम करना भी शुरू कर दिया है। इनमें से कुछ ध्यान खींचने वाली संरचनाएँ भी हैं। बुशवुड चेक डेम, लूज बोल्डर चेक डेम, कन्टूर ट्रेंच, गेबियन स्ट्रक्चर आदि ऐसी ही संरचना है। बुशवुड संरचना एक अत्यन्त ही सस्ती तकनीक है जिसे पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ पत्थर कम होते हैं वहाँ पहाड़ी से बहने वाले पानी को रोकने के लिए उपयोग किया जाता है। इसमें बाँस अथवा अन्य उपलब्ध लकड़ियों को पहाड़ी नाले की चौड़ाई में इस तरह थोड़ी–थोड़ी दूरी पर खड़ी गाड दिया जाता है। इसमें बेशरम की झाड़ियों या अन्य तरह की झाड़ियों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे बने गड्ढे में पानी थोड़ी देर रूकता है और इसका कुछ मात्रा में पानी जमीन के अन्दर रिसाव होता रहता है। यह पानी के साथ बहने वाली मिट्टी और पत्थरों के कटाव को भी रोकता है। थोड़े ही दिनों में इस जाली में पत्तियाँ और पत्थर जमा होते जाते हैं। इससे यह स्थाई बाँध की तरह काम करने लगता है। इस तरह पानी रूकने की क्षमता भी बढती जाती है।

इसके अलावा कुछ बहुत छोटे–छोटे बाँध चारकोल के ड्रम और रेतभरी बोरियों की मदद से भी बनाये जा रहे हैं। जगह–जगह कन्टूर ट्रेंच भी बनाई गई है। एक ही नाले को कवर करते हुए एक के बाद एक तीन स्टॉप डेम बनाये गये हैं। ये सस्ती तकनीक से तार, ड्रम, बाँस, पत्थर बोल्डर और बोरियों की मदद से बने हैं। इन्हें बहुत आकर्षक तरीके से सजाया गया है जिससे इस क्षेत्र का प्राकृतिक सौन्दर्य और बढ़ गया है। यहाँ टेकरी की तलहटी में आस-पास ऊँची बाउंड्री वाल बनाकर करीब साढ़े तीन किमी का एक खूबसूरत वाकिंग ट्रेक भी बनाया गया है और इसके आस-पास झरने और जल संरचनाएँ भी बनाई गई है। अलग से एक बड़ा स्टॉप डेम भी बना है जिसे बारिश के अलावा भी अन्य जलस्रोतों से भरा जा सकता है।

जिला कलेक्टर आशुतोष अवस्थी बताते हैं कि इन सबके जरिये अब इस बारिश में पानी रोकने के साथ–साथ मिट्टी और पत्थर के कटाव को भी रोका जा सकना सम्भव हुआ है। अब पहली बारिश के बाद टेकरी पर करीब 5 किलो नीम की निबोलियाँ लगाकर यहाँ नीम का जंगल बनाने की मुहिम भी शुरू हो रही है। इन नेक कामों में प्रशासन के साथ स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकर्ता और आम लोग भी शामिल हैं।

प्रशासन और यहाँ के लोगों को अपनी गलती का अहसास हो गया था। उन्होंने प्रायश्चित करने के लिए जो तकनीकें इस्तेमाल की उसने यहाँ की रंगत ही बदल डाली। पर चलते हैं फ्लेश बेक में, ताकि यह मालूम भी पड़े कि आखिर वे गलतियाँ कौन सी थी, जिसने इस संकट को जन्म दिया। आइये, जानते हैं क्या थी वे गलतियाँ।

चलते हैं देवास के इतिहास की ओर। यूँ तो देवास की इस टेकरी का उल्लेख चंद बरदाई की पृथ्वीराज रासो में भी मिलता है पर तब देवास बसा नहीं था। देवास को बसाया 17वीं शताब्दी में शिवाजी के अग्रिम सेनापति साबू सिंह पवार ने। तब इस छोटे से कस्बे में बड़ी तादाद में तालाब, कुँए, कुण्डियाँ, बावड़ियाँ, चोपड़े और ओढ़ीयाँ हुआ करती थी, जिनमें से कई अब भी मौजूद हैं पर उपेक्षित। पानी के अधिकांश साधन तत्कालीन रियासत ने बनवाये थे और कुछ लोगों ने अपने निजी खर्च पर भी। तब लोग पानी के महत्व और उसके मोल को भली–भाँति जानते थे। रिकार्ड बताते हैं कि देवास और उसके आस-पास 79 तालाब, 872 कुएँ, 40 बावड़ियाँ और 209 ओढयाँ हुआ करती थी। इनसे करीब 4450 एकड़ जमीन में सिंचाई भी होती थी और इनका पानी पीने में भी काम आता था। दो बड़े कुँए ही पूरे देवास की प्यास बुझाने में सक्षम हुआ करते थे। यहाँ किसानों को अपने खेतों के लिए जल संरचनाएँ बनाने के लिए बकायदा ऋण भी उपलब्ध कराया जाता था। कुँए बनाने के लिए 5 साल का ऋण 9 फीसदी ब्याज पर दिया जाता था। स्पष्ट है कि तब पानी की कोई कमी नहीं हुआ करती थी। इसकी पुष्टि 90 साल तक के बुजुर्ग आज भी करते हैं।

तो हम बात कर रहे थे टेकरी की। टेकरी से हर साल बारिश में बहुत सारा पानी बह कर आया करता था। इसको सहेजने के लिए तब रियासत ने बड़े इन्तजाम किए थे। टेकरी पर कई जगह ऐसी संरचनाएँ थी जिनमें पानी एकत्रित होता था और फिर धीरे–धीरे रिश्ते हुए जमीन में चला जाता था। जगह–जगह पानी रोकने के लिए छोटी–छोटी खोह और कुंड जैसी आकृतियाँ हुआ करती थी। पानी निकासी की जगह निश्चित थी और यह पानी टेकरी की तलहटी में बसे देवास के बीच बने तालाबों में इकट्ठा होता था। इस पानी को इकट्ठा करने के लिए 5 तालाब हुआ करते थे। ये अलग–अलग दिशाओं में बहने वाले पानी को समेटते रहते थे। तालाब का पानी पूरे साल लोगों के लिए काम आता था और जलस्तर भी बनाये रखता था। मीठा तालाब तो आज भी अपने मूल स्वरूप में है, मुक्तासागर तालाब अब पोखर से भी छोटा हो चला है पर बाकी तीन तालाब अब पूरी तरह से पट चुके हैं और उनके ऊपर खड़ा है आज सीमेंट–कंक्रीट का दमकता–चमकता झिलमिलाता शहर। नयी बसाहट के दौर में तालाबों की सीमायें सिकुड़ती गई। देवी सागर, भवानी सागर और एक अन्य तालाब अब सिर्फ बुजुर्गों की यादों या रियासत के पीले और थक चुके कागजों में ही दर्ज हैं।

बीते कुछ दशकों में जल संरचनाएँ जिस अंधाधुंध और अनियोजित विकास के तेजी से दौड़ते चक्र से धराशायी हुई उसके बुरे परिणाम भी जल्दी ही सामने आने लगे। 70 के दशक में देवास का औद्योगिक विकास शुरू हुआ और अनायास यहाँ की जनसंख्या दो–तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ गई। पुराने स्रोत उपेक्षित होकर खत्म होने लगे और इधर बढती जनसंख्या के लिए पानी उपलब्ध कराना कठिन होता गया। हालत यह हुई कि कभी ट्रेन से पानी बुलवाना पड़ा तो कभी नर्मदा या क्षिप्रा से पानी लाकर। दिनोदिन हालात बिगड़ते गए।

अब ये गलतियाँ देवास ने तो सुधार ली पर क्या देश के बाकी जगहों में भी लोग ऐसी ही गलतियाँ अभी कर रहे हैं। बहुत छोटी-छोटी सी दिखने वाली ये गलतियाँ हमारे सैकड़ों सालों के प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करने पर आमदा हैं। इससे न केवल हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर अस्तित्व का संकट खड़ा है बल्कि पूरे देश के पर्यावरण व्यवस्था को भी नुकसान होता है। हमें अब इस पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है।
 

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