जापान की आपदा का पहला सबक यह है कि विज्ञान और तकनीकी के दंभ में हम प्रकृति विजेता होने का भ्रम न पालें। इस सृष्टि में मृत्यु के बाद भूकंप ही ऐसा सत्य है, जिसे रोका नहीं जा सकता। फर्क सिर्फ इतना है कि मौत से बचा नहीं जा सकता, लेकिन भूकंप से बचा जा सकता है।
जब भूकंप या सुनामी से दुनिया का कोई एक कोना दहलता है, तो दूसरा कोना उससे कतई अछूता नहीं रह सकता। आज अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई थरथराहट सुदूर एशिया को झकझोर देती है, तो जापान की प्राकृतिक आपदा का तात्कालिक प्रभाव अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। जापान के पास भूकंप के प्रभावों से निपटने की सर्वश्रेष्ठ युक्ति है। लेकिन यह भूकंप और उसके फलस्वरूप आई सुनामी जापान को बुरी तरह तोड़-मरोड़ गई। बेशक रिक्टर पैमाने पर 8.9 का भूकंप भयावह होता है। लेकिन जापान के विज्ञानियों और तकनीशियनों ने इस ओर इससे भी बड़े भूकंप की आशंका के आधार पर अपने भवनों, पुलों और ओवर ब्रिजों के ढांचे तैयार किए थे। पर उद्वेलित प्रकृति के कोप को किसी भी प्रकार का तकनीकी लाघव नहीं झेल पाया।
जापान की आपदा का पहला सबक यह है कि विज्ञान और तकनीकी के दंभ में हम प्रकृति विजेता होने का भ्रम न पालें। इस सृष्टि में मृत्यु के बाद भूकंप ही ऐसा सत्य है, जिसे रोका नहीं जा सकता। फर्क सिर्फ इतना है कि मौत से बचा नहीं जा सकता, लेकिन भूकंप से बचा जा सकता है। इसका पहला उपाय यह है कि हम बड़े बांध, बहुमंजिले भवन और भारी-भरकम फ्लाईओवर जैसे भीमकाय ढांचों से तौबा कर लें। आप अपनी सर्वश्रेष्ठ तकनीकी दक्षता के आधार पर ऊंची-ऊंची दीवारों वाले ऐसे बड़े बांध बना सकते हैं, जो भूकंप से न टूटें। लेकिन बांध के दोनों ओर खड़े पहाड़ों को भूकंप के कारण बांध में गिरने से आप नहीं रोक सकते।
जापान को करीब पांच दशक पहले भी एक बार सुनामी ने थपेड़ा था। तकनीकी क्रांति के अगुवा इस देश ने इस आपदा से सबक लेकर समुद्र तटों पर सैकड़ों फीट चौड़ी और मोटी दीवारें बना डालीं। इस बार की सुनामी ने उन दीवारों को ऐसे ढहा दिया, जैसे हवा तिनकों को उड़ा ले जाती है। यहां भी प्रकृति के नियमों की अवहेलना हुई। दुनिया के सारे समुद्र तटों पर प्रकृति ने ऊंचे और मजबूत पेड़ों की श्रृंखला इसीलिए खड़ी की है कि वे सुनामी जैसे समुद्री प्रकोपों को ढाल बनाकर झेल सकें। समुद्र तट के कतारबद्ध पेड़ सुनामी को एकदम नहीं रोकते, बल्कि स्पीड ब्रेकर की तरह क्रमशः उसकी गति धीमी करते है।
सुनामी तूफान बाहर से अपनी भयावहता का एहसास नहीं होने देता। यहां तक कि समुद्र की सतह पर चलने वाली छोटी-छोटी नौकाएं भी हिचकोले खाते हुए यथावत चलती रहती हैं। यह समुद्र का एक ऐसा दैत्य है, जो थल पर आने के बाद ही आक्रामक होता है। परमाणु बम से झुलसने के बाद जापान ने अपने आक्रांता अमेरिका को अपना गाइड बना लिया। जबकि अमेरिका ऐसा भस्मासुर है, जो अपनी भौतिक पिपासा में आत्ममुग्ध होकर खुद को ही जलाने जा रहा है। क्या कटरीना ने उसे नहीं तोड़ा था? जापान के पास ऐसी विभीषिका में मार्ग दिखाने वाले उसके स्वयं के ही दो दार्शनिक फकोइका तथा फुजी गुरु जी उपलब्ध हैं, जिन्होंने अपने समुद्रों को स्वस्थ रखने तथा ‘लघु ही सुंदर है’ के सिद्धांत का पालन करने की प्रेरणा दी थी।
परमाणु विभीषिका से बुरी तरह झुलस चुके जापान को ही नहीं, बल्कि हमें भी समझना पड़ेगा कि इस सृष्टि में दैहिक, दैविक और भौतिक, तीन तरह के ताप माने गए हैं। दूसरे विश्व युद्ध में जापान ने भौतिक ताप ही झेला, लेकिन दैविक ताप से बचने का नुस्खा उसके बिजनेस पार्टनर अमेरिका के पास भी नहीं है। वह नुस्खा तो सिर्फ जापान के आराध्य देव बुद्ध के पास है, जिन्होंने ढाई हजार साल पहले हमें विकास के मध्य मार्ग से परिचित करा दिया था।
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