लेजर तकनीकी का उपयोग भूविज्ञान में बहुत आवश्यक है। लेजर रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी एवं कान फोकल लेजर स्कैनिक माइक्रोस्कोपी (चित्र 1) का उपयोग भूविज्ञान में अभी नया है एवं भविष्य में इसकी बहुत उपयोगिता है। पृथ्वी में जीवन की उत्पत्ति एवं प्रारंभिक अवस्थाओं का अध्ययन अब लेजर रमन स्पैक्ट्रोस्कोपी एवं कान फोकल लेजर माइक्रोस्कोपी के बिना अधूरा है। एल. आर. एस. एवं सी. एल. एस. एम. के माध्यम से जीवाणुओं की कोशिकाओं एवं उसकी संरचना तथा जैविक तत्वों का पता लगाया जा सकता है। सी.एल.एस.एम. के माध्यम से जीवाणुओं की त्रिआयामी संरचना का पता चल जाता है। इस तकनीकी का उपयोग अब मंगल ग्रह से प्राप्त शैलों के नमूनों पर भी किया जायेगा ताकि मंगल पर जीवन की उपस्थिति एवं उनकी त्रिआयामी संरचना का पता लगाया जा सके। मंगल ग्रह से पृथ्वी पर गिरी उल्का पिंडों का एल.आर.एस. एवं आइसोटोपिक अध्ययन द्वारा यह संभावना प्रबल है कि मंगल ग्रह में जीवन की प्रारंभिक अवस्था उपस्थित हो सकती है। भारतवर्ष एवं आस्ट्रेलिया से प्राप्त उल्का पिण्डों के एल.आर.एस. अध्ययन से इन उल्का पिंडों में अमीनों अम्लों का पता चला है जोकि लगभग 4-5 बिलियन वर्ष पुराने हैं।
अमीनों अम्ल जीवन के आधार होते हैं इसके अतिरिक्त एल. आर. एस. का उपयोग पृथ्वी पर पाये जाने वाले अति दुर्लभ खनिजों का पता लगाना भी है। कुछ खनिज जोकि बहुत ही उच्च दबाव (अल्ट्रा हाई प्रेशर) में बनते हैं। जैसे कि क्रायोसाइट का पृथ्वी पर पाया जाना भी यह इंगित करता है कि यह एक खगोलीय घटना हो सकती है। पृथ्वी पर पाये जाने वाले बहुत से पी. जी. एम. (प्लेटिनम ग्रुप एलिमेंटस) उल्का पिंडों या क्षुद्र ग्रहों द्वारा बनाये गये क्रेटरों से प्राप्त होते हैं जिसमें सोने एवं चाँदी की अवयव भी प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त समुद्र के अंदर पाए जाने वाले तेल के भंडार (जिसमें बम्बई हाई का तेल भी हो सकता है) भी बड़े क्षुद्र ग्रह के पृथ्वी से टकराने के बाद समुद्र में समा जाने से मिलता है। यह घटना 65 मिलियन वर्ष पृथ्वी के बड़े क्षुद्र ग्रह (एस्ट्राइड) के टकराने से हुई थी जिसमें डायनासोरों का भी अंत हो गया था। एल. आर. एस. एवं सी. एस. एल. एम. तकनीकी इस क्षेत्र में भी सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
इस तकनीकी द्वारा रत्नों (जेम खनिजों, हीरा, पन्ना इत्यादि) की शुद्धता का भी अध्ययन हो रहा है। पृथ्वी पर पाई जाने वाली गुफाओं के अंदर यह तकनीक बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। इसके द्वारा गुफाओं के अंदर की त्रिआयामी संरचना एवं दुर्लभ चित्रकलाओं को भविष्य के लिये सुरक्षित रखा जा सकता है। इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि लेजर तकनीकी भूविज्ञान के क्षेत्र में नई एवं बहुपयोगी है। 1917 में सर्वप्रथम अल्बर्ट आइंस्टीन ने स्टीमुलेटेड एमीशन पर शोध पत्र छापा। उनके अनुसार तीव्र कोहरेंट लेजर बीम बनाई जा सकती थी। सर्वप्रथम 1960 में दो लेजर किरणें बनाई गई। एक रूबी लेजर (तरंग दैर्ध्य 6943) तथा दूसरी हीलियम - नियान गैस लेजर (तरंग दैर्ध्य 11,500) थी। अन्य लेजर बाद में विकसित हुई जैसे आयन लेजर, कॉपर वेपर लेजर, मेटल वेपर लेजर, मॉलीक्यूलर गैस लेजर तथा केमिकल लेजर।
पचास वर्ष पूर्व लेजर की खोज को सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया। लेजर की खोज सन 1958 में आर्थर एल स्कावलोव तथा चार्ल्स एच टाउन्स नामक वैज्ञानिकों ने की। इन्होंने मेजर (माइक्रोवेव एम्प्लीफिकेशन बाई स्टीमुलेटेड एमिशन आफ रेडियेशन) नामक शोध पत्र लिखा जिसमें माइक्रोवेव सिद्धांत का प्रयोग किया गया था। सन 1960 में वैज्ञानिक थियोडोर मेमन ने लेजर बनाई। पिछले वर्ष 2010 में लेजर की खोज के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं।
भूविज्ञान के क्षेत्र में मुख्य रूप से लेजर रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी एवं कान फोकल स्कैनिंग माइक्रोस्कोप का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वर्ष 1928 में भारतीय वैज्ञानिक सी. वी. रमन ने रमन प्रभाव खोज की थी एवं इस शोध के लिये उन्होंने वर्ष 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। यह एक भारतीय वैज्ञानिक की अति महत्त्वपूर्ण खोज थी आज विश्व भर में लेजर तकनीकी का उपयोग हो रहा है। रमन प्रभाव एवं रमन तरंग दैर्ध्य में परिवर्तन के सिद्धांत द्वारा आज बहुत से उपकरण तैयार किये जा चुके हैं एवं इनका उपयोग चिकित्सा रक्षा एवं भूविज्ञान के क्षेत्र में किया गया है। चित्र 2 में सर सी. वी. रमन के पहले उपकरण के मॉडल को लेखक के साथ दिखाया गया है।
मौसम एवं पर्यावरण के क्षेत्र में लेजर किरणों का उपयोग : लेजर किरणों से यह पता लगाया जा सकता है कि वायुमंडल में प्रदूषण की मात्रा कितनी है। यह परावर्तित लेजर द्वारा मालूम करना संभव है। भारतीय विज्ञान संस्थान के कुछ वैज्ञानिक लेजर किरणों के द्वारा कृत्रिम वर्षा करने का भी प्रयास कर रहे हैं। लेजर किरणों को बादलों में भेज कर एक सीमित क्षेत्र में वर्षा की जा सकती है। यह तब उपयोगी हो सकता है जब कहीं पर सूखा पड़ रहा हो एवं मानसून की वर्षा वहाँ पर न हो रही हो। यह क्रिया वातावरण में प्रदूषण भी कर सकती है इसलिये इसका समर्थन वैज्ञानिक नहीं कर रहे हैं।
प्रकाशन, मनोरंजन एवं सूचना के क्षेत्र में लेजर तकनीकी का उपयोग : लेजर प्रकाशन आज बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा है। लेजर पुंज द्वारा सी.डी., डी.वी.डी. एवं मैमोरी डिस्क पर आसानी से लिखा एवं मिटाया जा सकता है। लेजर शो आजकल बहुत ही मनोरंजक हो गये हैं। विभिन्न प्रकार की लेजर जनित आकृतियाँ आकाश में बहुत सुंदर दिखती हैं। विज्ञापन के क्षेत्र में लेजर का उपयोग बहुत पहले से ही हो रहा है। 2010 में भारत में कॉमनवेल्थ खेलों के उद्घाटन एवं समापन समारोह में भव्य लेजर का प्रर्दशन किया गया था।
लेजर तकनीकी का भूविज्ञान में उपयोग : खनिजों की पहचान के लिये रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी बहुत ही आवश्यक है। कैल्साइट, एपाटाइट, क्वार्टज, तांबा, लोहा एवं फास्फोरस इत्यादि आसानी से पहचाने जा सकते हैं। फील्ड में कार्य करने के लिये पोर्टेबल मैक्रो रमन उपकरण का उपयोग किया जाता है। भारत में प्राप्त उल्कापिण्डों एवं अंटार्कटिका से प्राप्त उल्काओं में जीवन के मुख्य तत्वों जैसे एमिनों अम्लों इत्यादि का पता लेजर रमन तकनीकी द्वारा किया गया है। भारत में प्राप्त उल्कापिण्डों एवं अंटार्कटिका से प्राप्त उल्काओं में जीवन के मुख्य तत्वों एमिनों अम्लों इत्यादि का पता लेजर रमन तकनीकी द्वारा किया गया है। अवसादिकी शैलों में हाइड्रोकार्बन पाए जाते हैं। केरोजन इत्यादि का लेजर रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी से उनकी जैविक उत्पत्ति की जानकारी प्राप्त होती है। लेजर रमन तकनीकी द्वारा कीमती हीरा, पन्ना, रूबी इत्यादि की पहचान की जाती है। इस तकनीक से असली एवं नकली रत्नों की पहचान सुलभ है। रमन स्पेक्ट्रम द्वारा शुद्ध हीरे को पहचाना जा सकता है। शुद्ध हीरे की तरंग नम्बर 1332 होती है। यह अशुद्धियों के कारण अधिक तरंग नम्बर दिखा सकता है। लेजर तकनीकी द्वारा गुफाओं का त्रिआयामी चित्र प्राप्त हो सकता है। रमन लेजर स्पेक्ट्रोस्कोपी एवं सी. एल. एस. एस. एम. तकनीकी द्वारा कोशिकाओं की संरचना एवं उन्हें त्रिआयाम में देखा जा सकता है। (चित्र 2) इसके द्वारा जीवन की प्रारम्भिक अवस्थाओं का पता चल जाता है। डी. एन. ए. मोलिक्यूल के बेस युग्म एवं प्रोटीन का परा बैंगनी रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा भिन्न प्रकार के प्रोटीन एवं अमीनों अम्लों को भी पहचाना जा सकता है। न्यूक्लिक अम्ल बेस एवं डी. एन. ए. 244 (चारों बेस युग्मों) को अलग पहचाना जा सकता है।
अंतरिक्ष में लेजर तकनीकी का उपयोग : अपोलो 11 अंतरिक्ष यान में पृथ्वी से लेजर किरणों को भेजा गया था। पृथ्वी से भेजी गई लेजर किरणें अपोलो यान के शीशों से परावर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वापस आ गई। ऐसा लेजर किरणों के कोहरेंस से संभव हो सका कि लेजर अत्यधिक दूरी तय कर सकती है। मीर स्पेस स्टेशन द्वारा अंतरिक्ष में एरोसोल (धूलकणों) का अध्ययन लेजर द्वारा किया गया। गहरे अंतरिक्ष में अमेरिका द्वारा ऐसा उपग्रह भेजा गया है जिसमें लगी लेजर मशीन द्वारा विभिन्न चित्रों को प्रदर्शित किया जा सकता है। किसी दूसरी सभ्यता के जीवों (एलियंस) से सामना होने पर इन त्रिआयामी लेजर चित्रों को देखकर उन्हें पृथ्वी पर रहने वाले जीवों एवं मनुष्यों का पता लग सकता है। अंतरिक्ष विज्ञानी स्टीफेंस हाकिंस का मत है कि एलियंस पृथ्वी पर यहाँ के खनिज पदार्थों इत्यादि पर अधिकार करने हेतु आ सकते हैं परंतु उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क उचित नहीं होगा। चंद्रमा की सतह पर लेजर किरणें भेजने एवं वापस पृथ्वी पर परावर्तित होकर आने में जो समय लगता है, उसी के आधार पर चंद्रमा तथा पृथ्वी के बीच की दूरी 3,84,000 किमी तय की गई है। नासा के स्टार डस्ट मिशन द्वारा अंतरिक्ष में धूमकेतू से प्राप्त पृथ्वी पर धूलकण वापस लाए गये एवं लेजर तकनीकी से उनका परीक्षण किया गया। कान फोकल विधि द्वारा एरोजेल में उपस्थित अति सूक्ष्म कणों का अध्ययन किया गया।
रक्षा के क्षेत्र में लेजर तकनीकी का उपयोग : लेजर में प्रयोग होने वाली तीव्र उच्च ऊर्जा की किरणें रक्षा के क्षेत्र में बहुत उपयोगी हैं। दुश्मन की मिसाइलों को हवा में ही नष्ट करने में इनका उपयोग हो रहा है। रूस ने लेजर आधारित हथियारों का निर्माण कर लिया है जिसे युद्ध में उपयोग में लाया जा सकता है। लेजर किरणों की खोज के पश्चात इसका उपयोग सैन्य क्षेत्र में अधिक हुआ है। उदाहरण के लिये लेजर बम, दुश्मन की सेटेलाइट एवं मिसाइलों को नष्ट करना, रात्रि दृश्य कैमरों का विकास एवं जासूसी इत्यादि। लेजर तकनीक द्वारा अमेरिकी शत्रुओं की मिसाइलों को प्रकाश की गति से नष्ट कर सकता है। अमेरिका एवं इराक के युद्ध में लेजर गनों का भी उपयोग किया गया है। अमेरिका एवं इराक के युद्ध में लेजर निर्देशित बमों का उपयोग भी किया जा चुका है।
मानव कल्याण एवं चिकित्सा के क्षेत्र में लेजर का उपयोग : लेजर किरणें आज चिकित्सा एवं औषधि के क्षेत्र में बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही हैं। लेजर किरणें आँखों की शल्य चिकित्सा, किडनी की पथरी को तोड़ने तथा दाँतों इत्यादि की खराबी में उपयोगी की जा रही है। लेजर किरणों द्वारा ऑपरेशन करने से शरीर के अन्य भागों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है एवं ऑपरेशन भी शीघ्र हो जाता है। लेजर किरणों द्वारा ब्रेन मैपिंग (मस्तिष्क का नक्शा) की जाती है जिससे रोग की अवस्था का सही पता चल जाता है। एक कोशिका के अंदर औषधि की मात्रा एवं वितरण का भी रमन लेजर द्वारा पता चल जाता है। लेजर किरणों का उपयोग कॉस्मेटिक सर्जरी के लिये भी किया जा रहा है।
दुर्लभ चित्रों एवं चित्र कलाओं का सरंक्षण : अति प्राचीन एवं दुर्लभ चित्रों तथा मूर्तियों को भी लेजर तकनीकी से संवारा जा रहा है। इसके द्वारा मानव सभ्यता एवं विकास का इतिहास भी पता चलता है। अति प्राचीन तैल चित्रों की रसायनिक सूचना का पता रमन लेजर तकनीक द्वारा लगाया जा सकता है। हीलियम निआन लेजर द्वारा इटली के चर्च में चित्रों का सरंक्षण किया गया है।
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विनोद चंद्र तिवारी
वा. हि. भू. सं., देहरादून
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