उदाहरण के लिए आज यहां जिन (अधिकतर) इलाकों में नदी का पानी नहीं पहुंचता और ग्लेशियर भी पीछे खिसक रहे हैं, वहां आपसी भिड़ंत के बजाय गांव वालों ने कुछ नेकदिल स्वैच्छिक समाज सेवी संगठनों की मदद से ग्लेशियरों के पानी के संचयन का सस्ता और सुंदर तरीका विकसित कर लिया है।
हर सभ्य इनसान के लिए दो सवाल बड़े महत्वपूर्ण होते हैं: एक, जीवन में सुखी रहने के लिए न्यूनतम जरूरतें क्या हैं? दो, मेरे और मेरे जैसों के बारे में औरों की राय क्या है? हिंदुस्तानियों को इन दोनों सवालों का ईमानदार जवाब देश के सबसे खुश्क और बीहड़ भाग, लद्दाख जाकर मिलता है। अक्तूबर के बाद इलाके में तैनात सेना के लोगों, सरकार द्वारा वहां मैदानी इलाकों से (अक्सर बड़ी अनिच्छा से) भेजे गए कर्मचारियों और स्थानीय लोगों से इधर शायद ही कोई गैर लद्दाखी यहां टिकता हो। पर इन दिनों देसी-विदेशी पर्यटकों से भरा हुआ होने पर भी यह इलाका दूसरे हिमालयी राज्यों के विपरीत बहुत साफ-सुथरा है। स्थानीय लोगों की आदतों के साथ प्लास्टिक के थैलों पर पक्की पाबंदी इसकी बड़ी वजह है।
फिर भी गर्मियों में आने वाले घरेलू टूरिस्ट अपनी लाई दालमोठ, चॉकलेट और चिप्स की थैलियों से सड़कों को बेशर्मी से यत्र-तत्र गंदा करने से नहीं चूकते। उनके हाव-भाव अधिकतर अकड़ भरे होते हैं और हर कहीं उनको ऊंची आवाज में तकरार करते या बिना हिचकिचाहट के पर्यावरण प्रदूषण फैलाते देखना यातनादायक था। स्थानीय लोग इस अभद्रता की अनदेखी करते हैं, पर घरेलू पर्यटक बनाम विदेशी पर्यटकों की आदतों पर सवाल पूछने पर उनका लंबा मौन काफी कुछ कह जाता है।
नवंबर के बाद पारा जहां तेजी से गिरता हुआ शून्य से तीस डिग्री नीचे तक चला जाता हो, उस इलाके की आत्मा भी (शेष देश की तरह) स्थानीय गांवों में बसती है। ऊंचे वनस्पतिविहीन पहाड़ों के बीच नीचे घाटी में बहती वेगवती सिंधु नदी एक जीवन रेखा है। लेकिन बड़ी परियोजनाओं की कमी के कारण इस पानी का लाभ धारा के आसपास बसे घाटी के पांच-छह गांव ही उठा पाते हैं। गहरे बिजली संकट के चलते पानी के पंपिंग स्टेशन बनाना भी बेकार ही है।
लिहाजा यहां के अधिकतर गांव आज भी खेती-बाड़ी और गृहस्थी की जरूरतें छोटे स्थानीय ग्लेशियरों से मिलने वाले पानी से ही पूरी करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियरों के तेजी से पीछे खिसक जाने से इधर दिक्कत बढ़ रही है। फिर भी लद्दाखी लोग सदियों से शांति और प्रसन्नता के साथ इन तमाम स्थितियों से जूझते दिखाई देते हैं। उनकी सात्विक आस्था की जड़ें कुछ लोग स्थानीय लोगों के (बौद्ध) धर्म में खोजते हैं, पर इसका मूल कारण है गांवों की सुंदर समन्वयवादी सामाजिकता और समुदायों के बीच एक दूसरे पर पक्का भरोसा।
इस बार हमारा पथ प्रदर्शक बौद्ध था और ड्राइवर मुस्लिम। दोनों ही खेतिहर परिवारों के सदस्य थे और गर्मियों में बाहरी लोगों को शहर से बाहर के इलाकों के दर्शन कराना और उनसे मैदानी जीवन के बारे में जानना उनके लिए एक सहज और अपनी तरह का आनंददायक कर्म था, पैसा कमाने का जरिया भर नहीं। हर जगह उनके गांव वालों से और खुद आपसी व्यवहार से जाहिर था कि गांवों में पानी, चारे या ईंधन की तमाम कमी के बाद भी एक स्पृहणीय भाईचारा कायम है। इस कश्मीर में आज भी सभी धर्म के लोग साथ-साथ उठते-बैठते और सामिष भोजन पकाते-खाते हैं। न परदा है, न छुआछूत। और गांव के सीमित संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा आम राय से ही किया जाता है।
बताया गया कि शादी-ब्याह में पूरा गांव आज भी रीति रिवाजों में भिन्नता (गैर मुस्लिम परिवारों में शराब परोसना और नाचना-गाना नहीं होता, जबकि शेष संप्रदायों में जौ से बनी शराब छंग अवश्य परोसी जाती है और जमकर सामूहिक गाना और नाचना रात-रात भर चलता है) के बावजूद शामिल होता है। दिन भर गहरी मेहनत के बाद गांव वालों के लिए तो हर तरह के उत्सव का अपना आकर्षण, अपना मजा है। जहां मुस्लिम उत्सवों में परोसे जाने वाले अनेक तरह के लजीज सामिष व्यंजनों का लुत्फ जमकर लिया जाता है, वहीं अन्य संप्रदायों में खाने में उतनी वैरायटी न होते हुए भी रतजगे के नाच-गाने पर पूरा गांव झूमता है।
सामुदायिकता का सबसे बड़ा लाभ है, जल और जंगल की उपज का समुचित बंटवारा। जिन बातों पर मैदानों में लट्ठ या तमंचे चल जाते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी मुकदमेबाजी में खानदान के खानदान तबाह हो जाते हैं, उनको यहां हंसते-खेलते सुलझाना संभव है। उदाहरण के लिए आज यहां जिन (अधिकतर) इलाकों में नदी का पानी नहीं पहुंचता और ग्लेशियर भी पीछे खिसक रहे हैं, वहां आपसी भिड़ंत के बजाय गांव वालों ने कुछ नेकदिल स्वैच्छिक समाज सेवी संगठनों की मदद से ग्लेशियरों के पानी के संचयन का सस्ता और सुंदर तरीका विकसित कर लिया है। इसके तहत अक्तूबर में ग्लेशियरों के मुख पर छोटे, अस्थायी मिट्टी के बांध बना लिए जाते हैं, जो जाड़ों में पड़ने वाली बर्फ को नीचे खिसक कर दूर घाटी में नहीं जाने देते।
बर्फ का यही बैंक वसंत आने पर जब धीमे-धीमे पिघलने लगता है, तो उससे एक छोटी किंतु निरंतर जलधार का निर्माण हो जाता है। इस पानी की भी एक-एक बूंद सहेजी जाती है। इसके लिए गांव में एक जलाशय बनाया जाता है और गांव में बुजुर्गों की लगाई ड्यूटी के तहत रोजाना दो लोग जाकर कायदे से उसमें संचित पानी इस तरह छोड़ते हैं, कि किसी का खेत असिंचित न रहे। और हर घर को पीने-पकाने लायक पानी भी मिलता रहे। यही शैली पशुपालन में भी अपनाई जाती है। अच्छे मौसम में (जो सिर्फ चार महीने चलता है) हर गांव में रोज एक परिवार क्रमबद्ध तरीके से सारे गांव के जानवरों को चराने ले जाता है, ताकि शेष लोग अच्छे मौसम में ही निपटाए जा सकने वाले उत्पादक कामकाज (खेती के काम या घरों की मरम्मत, सामुदायिक बांध बनाना, घर की अतिरिक्त सब्जी-भाजी शहरी बाजार ले जाना या पर्यटकों को घुमाना आदि) कर सकें। इन पशुओं को एक पूर्व नियत जगह में ही चराया जाता है, ताकि उनका गोबर एक ही जगह इकट्ठा होता रहे।
ईंधन के अभाव से गोबर या इनसानी मल को ईंधन बनाकर निपटना भी यहां हर कोई जानता है। हमारे पथ प्रदर्शक ने बताया कि उनके बुजुर्ग फल और फूल घर की दीवारों के साथ रोपने का आदेश देते आए हैं, ताकि हर पंथी को छाया मिले और फल भी। घर के बगीचे से खूबानी तोड़नेवाले बच्चों पर यहां गोली नहीं चलाई जाती। सिर्फ यही कहा जाता है कि खूबानी खाकर गुठली छोड़ जाना। गुठली जमा कर उससे गुणकारी तेल निकाला जाता है, जिससे कई तरह के काम निकलते हैं और स्थानीय गोंपा में बुद्ध प्रतिमा के आगे अखंड ज्योति जलाई जाती है।
कारगिल युद्ध ने इस इलाके का शेष देश के लिए महत्व बमुश्किल रेखांकित किया ही था कि पिछले वर्ष भयावह बाढ़ ने लेह शहर पर कहर बरपा दिया। बस अड्डे से लेकर आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्र तथा हवाई अड्डे तक तबाही के क्षणों की छाप आज भी मौजूद है। लेकिन यह हिम्मती शहर फिर उठ रहा है। प्रसारण सेवाएं जारी हैं, पर्यटकों को कोई तकलीफ नहीं और बच्चे फिर स्कूल जाने लगे हैं। इस बार उच्च प्रशासनिक सेवाओं में यहां के ही एक गांव की युवती का चयन उनको आशान्वित कर गया है कि जमीन में गड़कर भी गरिमा और उत्साह से जी पाना संभव है।
कठोरतम चुनौतियों से जुड़ा युवा नेतृत्व तैयार करना हो, तो हमारे राजनीतिक दल क्यों न अपने हर युवा सांसद को छह माह तक लद्दाख में रहना अनिवार्य बना दें। फिर देखिए, उनका व्यक्तित्व कैसे निखरता है।
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