ऊँची-ऊँची पहाड़ियों और बर्फ की सफेद चादर से ढका हुआ लद्दाख सुंदर क्षेत्रों में से एक है। यहाँ की खूबसूरत वादियों में रहता है एक अद्भुत जानवर जिसे ‘स्नो-लेपर्ड’ के नाम से जाना जाता है। इसे ‘भूरे भूत’ का नाम भी दिया गया है कारण है इसके पीले और गहरे रंग के फर का होना जिस कारण ये लद्दाख के बर्फ में यूँ सम्मिलित हो जाता है कि पता ही नहीं चलता कि ये कब ऊपर के पहाड़ों से नीचे आता और चला जाता है। स्नो-लेपर्ड यानी हिम तेन्दुआ (Uncia) एक विडाल प्रजाति है जो मध्य एशिया में रहती है।
मालूम हो कि जल्दी हाथ न आने वाला स्नो-लेपर्ड कभी-कभी देखने को मिलता है। स्थानीय चरवाह ज़ेवांग नोरबो शाम वैली के उले में हुई जानवरों के मुठभेड़ को याद करते हुए घबरा जाते हैं। कहते हैं कि “ स्नो-लेपर्ड (स्थानीय भाषा में शान) ने मेरे तीन साल के डज़ो (गाय) को मार डाला। डज़ो यॉक गाय की एक नस्ल है जो लद्दाख में बड़े पैमाने पर पाया जाता है। गाय के अतिरिक्त भेड़, बकरियों को भी उनके उन, दूध और मांस के लिये पाला जाता है। परंतु स्नो-लेपर्ड द्वारा इन पर आक्रमण करने से पालतू पशुओं की जान खतरे में है। कारणवश स्थानीय लोगों के मन में स्नो-लेपर्ड के प्रति बदले की भावना पैदा हो रही है। उसे पकड़ने के लिये जाल बिछाते हैं और पत्थरों द्वारा उसे तब तक मारते हैं जब तक वो मर न जाए। वास्तव में मैं और मेरा परिवार स्नो-लेपर्ड से नफरत करता था क्योंकि उसने हमारे जानवरों को मार दिया था। इसलिए हमें भी उसे मारना पड़ा, इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं था। अब या तो वो जिंदा रहता या हम।”
लद्दाख में मानव और वन्य जीवों के बीच ये संघर्ष काफी लम्बे समय से चला आ रहा है। इसके मद्देनजर स्नो-लेपर्ड के संरक्षण और लद्दाख के पर्यावरण को बचाने के लिये 2003 में रजिस्टर्ड संस्था ‘स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट’ ने काम शुरू किया। जिसका उद्देश्य मानव और स्नो-लेपर्ड के बीच के संघर्ष को कम करके एक स्वच्छ वातावरण स्थापित करना था।
प्राकृतिक रूप से स्नो-लेपर्ड पहाड़ की ऊँचाइयों पर ही रहता है और वहाँ उपस्थित नीले भेड़ का शिकार करता है। लेकिन प्राकृतिक असंतुलन के कारण नीले भेड़ की कमी ने उसे नीचे आने पर मजबूर कर दिया और अब वो अपना पेट भरने के लिये आबादी वाले क्षेत्र में आकर लोगों के पशुओं पर हमला करता है। ऐसी स्थिति में पूरे पर्यावरणीय व्यवस्था को इस प्रकार बनाना था कि तेंदुए को शिकार के लिये लोगों के बीच न जाना पड़े। इसी सोच ने 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' को जन्म दिया जिसने लगातार इस ओर प्रयास किए हैं।
स्थानीय लोगों के माल मवेशी पर हिंसक हमलों के कारण लोगों का तेंदुए पर गुस्सा बहुत अधिक था, ऐसे में क्षेत्र के विभिन्न पशुओं के नस्लों की रक्षा करना महत्त्वपूर्ण था। रात के समय पशुओं को रखने की जगह चारों ओर से तो सुरक्षित थी परंतु ऊपर से खुली होती थी। कारणवश स्नो-लेपर्ड रात के समय में जानवरों पर हमला कर देता था लोगों और स्नो-लेपर्ड के बीच संघर्ष का एक वातावरण निरन्तर रूप से बढ़ता ही जा रहा था।
इस समस्या के निदान के लिये 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' ने मवेशी को सुरक्षित रखने के लिये लोहे की जालीदार छत (PREDATOR ROOF) बनाया ताकि जानवर अंदर सुरक्षित रह सकें। और घोड़े जो चरवाहों के नजरों से दूर हो जाते थे वो भी उनके आस-पास रहें।
इसके बाद भी 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' ने यह महसूस किया कि अगर हम स्थानीय लोगों को सिर्फ ये बोलेंगे की स्नो-लेपर्ड की रक्षा में अपना योगदान दें तो वो नहीं मानेंगे। इसलिए स्नो-लेपर्ड से होने वाले नुकसान की भरपाई और स्नो-लेपर्ड की महत्व को दूसरे रूप से बताने के लिये 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' ने लद्दाख के 40 गाँव में “होम स्टे प्रोग्राम” की शुरुआत की। जिसके अंतर्गत लद्दाख में आने वाले पर्यटक को गाँव के घरों में ही रहने की व्यवस्था थी। क्योंकि ये पर्यटक खुद भी ग्रामीण परिवेश में रहने में रुची रखते थे। इसलिए 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' ने ग्रामीणों को इसके लिये प्रशिक्षण देना शुरू किया ताकि पर्यटक को हर प्रकार की सुविधा ग्रामीणों के घर में मिले। इसके बदले पर्यटक परिवारों को भुगतान करते हैं। और ग्रामीणों की आमदनी का ये एक साधन बन गया है। इस योजना को बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि पर्यटकों द्वारा स्नो-लेपर्ड में रूची रखने के कारण ग्रामीणों को इस बात का अहसास हो कि स्नो-लेपर्ड लद्दाख के परिवेश के लिये कितना महत्त्वपूर्ण है।
2002 में शुरू इस प्रोग्राम को माउन्टेन इंस्टीट्यूट और यूनेस्को की ओर से समर्थन प्राप्त हुआ। इस प्रोग्राम के कारण स्थानीय लोगों को माल मवेशी के अलावा जीविका का एक अन्य साधन मिल गया लेकिन उन्हें इस विकल्प के बदले ये निश्चय करना पड़ा कि अब चाहे तेंदुए उनके जानवरों को नुकसान पहुँचाए लेकिन वो स्नो-लेपर्ड की रक्षा करेंगे ताकि लद्दाख के वातावरण में संतुलन बरकरार रहे। इसके अतिरिक्त होम स्टे प्रोग्राम के अंतर्गत प्राप्त होने वाली राशि का दस प्रतिशत वो लद्दाख में चलने वाले ‘पर्यावरण रक्षा फंड (Environmental Protection Fund) में देंगे। गाँव वालों को परम्परागत कपड़े और अन्य वस्तुएँ बनाने का भी प्रशिक्षण दिया गया जिसे वो आने वाले पर्यटकों को बेचते हैं। ये आमदनी का एक अन्य साधन साबित हुआ।
साथ-साथ युवाओं को गाइड के रूप में प्रशिक्षण देकर उन्हें इसका भार सौंपा गया क्योंकि वो अपने इलाके से भली-भांति परिचित होते हैं इसलिए थोड़े से प्रशिक्षण के बाद वो अच्छे गाइड बन जाते हैं। इस प्रकार युवाओं को भी रोजगार मिल जाता है। इस बारे में 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' के डायरेक्टर डॉ सेवांंग नामगैल बताते हैं इस पूरे कार्यक्रम के कारण पर्यटक और स्थानीय लोगों को लद्दाख के प्राकृतिक परिवेश से जुड़ने का मौका मिलता है और प्रकृति के साथ वन्य जीवन को समझने का भी अवसर प्राप्त होता है। वो आगे कहते हैं साल 2015 में तेमिसगम गाँव में रात के समय में स्नो-लेपर्ड जानवरों के बीच आ गया और कई जानवरों को मार डाला। यह एक भयानक घटना तो थी परंतु हर बार की तरह इस बार लोगों ने उसे मारने की जगह तुरंत जम्मू कश्मीर के वाइल्ड लाइफ विभाग को सूचित कर स्नो-लेपर्ड को ले जाने का आग्रह किया और उसकी जान बच गई। अपने अनुभव के बल पर वो कहते हैं कि हालाँकि अगर 15 साल पहले ऐसा होता तो ये बिल्कुल भी संभव नहीं था लेकिन अब स्थिति पहले से बदल गई है।
वास्तव मे लद्दाख में स्थिति पहले से बदल चुकी है। 'स्नो-लेपर्ड कंजरवेंसी' के प्रयासों के कारण मानव और स्नो-लेपर्ड के बीच का तनाव काफी हद तक कम हुआ है। जिस कारण लद्दाख के वातावरण को संतुलित रखने में सहायता मिल रही है। और पर्यटकों को भी प्राकृतिक लद्दाख और इस क्षेत्र के विशेष स्नो-लेपर्ड को देखने का अवसर मिल रहा है। (चरखा फीचर्स)
सम्पर्क- सुजाता राघवन, 7042293791
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